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June 24, 2025

कोंडापल्ली खिलौने: हाथ से बनने वाले इन खिलौनों का इतिहास है 400 साल पुराना

Kondapalli Toys आंध्र प्रदेश के विजयवाड़ा से 23 किलोमीटर दूर स्थित कोंडापल्ली कस्बा लकड़ी के खिलौने बनाने की 400 साल पुरानी दुर्लभ हस्तकला के दम पर चीनी खिलौनों को मात दे रहा है। यह कस्‍बा ‘Make In India’ की कहानी बयां करता है।
Kondapalli Toys: भारत में खिलौनों का प्रयोग प्राचीन समय से होता आया है। सिन्धु घाटी सभ्यता के खंडहरों से भी खिलौने प्राप्त किए गए थे। हालांकि, आज मॉर्डन ज़माने में नए-नए फ़ैसी, इलेक्ट्रॉनिक व रोबोटिक खिलौने आ गए हैं, इसलिए प्राचीन समय में इस्तेमाल होने वाले खिलौने और उन्हें बनाने की कला विल्पुत होती जा रही है। हालांकि, चुनिंदा लोगों द्वारा ऐसी हस्तकला अब भी सुरक्षित है।

100 परिवारों ने संभाल रखी है कोंडापल्ली की प्राचीन हस्तकला

Kondapalli Toys: दक्षिण भारत के आंध्र प्रदेश राज्य के विजयवाड़ा से क़रीब 23 किमी दूर कोंडापल्ली नाम का कस्बा है, जहां बनते हैं कोंडापल्ली खिलौने! खिलौने बनाने की ये दुर्लभ हस्तकला 400 साल पुरानी बताई जाती है, जिसे यहां के रहने वाले 100 परिवारों ने संभालकर रखा हुआ है। इस कस्बे की आबादी क़रीब 35 हज़ार है। प्राचीन हस्तकला से बनने वाले ये खिलौने देश-विदेश में मशहूर हो रहे हैं। इनका नाम कोंडापल्ली इस कस्बे के नाम की वजह से पड़ा है, क्योंकि ये यहीं बनाए जाते हैं।
आंध्र प्रदेश के विजयवाड़ा में स्थित कोंडापल्ली कस्बा ‘मेक इन इंडिया’ की असली कहानी लिख रहा है। लकड़ी के कोंडापल्ली खिलौने बनाने की 400 साल पुरानी दुर्लभ हस्तकला के दम पर यह कस्बा चीनी खिलौनों को भी मात दे रहा है। इसी कला ने इस कस्बे को देश-विदेश में पहचान दिलाई है। केंद्र सरकार ने भी इसे जियोग्राफिकल इंडीकेशन (GI) टैग प्रदान किया है। यह टैग ऐसे उत्पादों को दिया जाता है, जो विशेष भौगोलिक पहचान रखते हैं। करीब 35 हजार की आबादी वाले कोंडापल्ली के 100 परिवार इस पुश्तैनी कारोबार से जुड़े हैं।

हमारे खिलौनों का मुकाबला नहीं कर सकता चीन

Kondapalli Toys: ऐसे दौर में, जब चीनी समान भारतीय बाजारों में खासी पैठ बना चुका है, कोंडापल्ली के खिलौना निर्माता इससे बेफिक्र हैं। चार पीढि़यों की विरासत को आगे बढ़ा रहे हनुमंता राव कहते हैं, ‘चीन के खिलौने हमारे खिलौनों का मुकाबला नहीं कर सकते। चीनी खिलौने मशीनों व प्लास्टिक के बने होते हैं, जबकि हम कड़ी मेहनत से लकड़ी के खिलौनों को हाथ से बनाते हैं, इसीलिए लोग इन्हें ज्यादा पसंद करते हैं।’

GI टैग से सम्मानित कोंडापल्ली खिलौनों में ख़ास लकड़ी और गोंद इस्तेमाल

कोंडापल्ली खिलौनों को भारत सरकार द्वारा जीआई (GI) टैग भी दिया गया है। ये टैग उन उत्पादों को दिया जाता है, जो ख़ास भौगोलिक पहचान रखते हैं। ये लकड़ी के खिलौने हैं और इन्हें पारंपरिक तरीक़े से ही बनाया जाता है। इन ख़ास कोंडापल्ली खिलौनों को बनाने के लिए मशीन का प्रयोग नहीं किया जाता है। ये ख़ास तेल्ला पोनिकी नाम के पेड़ की लकड़ी से बनाए जाते हैं। लकड़ी के अलग-अलग टुकड़ों को अच्छे से तराशने के बाद इमली के बीज और लकड़ी के बुरादे से बनने वाले गोंद से चिपकाया जाता है। इस गोंद को ‘मक्कू’ कहा जाता है। इन खिलौनों को प्राकृतिक रंगों से ही रंगा जाता है। किसी भी तरह के सिथेंटिक रंगों का इस्तेमाल इन पर नहीं किया जाता है।

पौराणिक कथाओं से लिए जाते हैं चरित्र

कोंडापल्ली खिलौनों की एक और ख़ास बात ये है कि इनके चरित्र पौराणिक व दंत-कथाओं से लिए जाते हैं। साथ ही भगवान गणेश, दशावतार, हनुमान, माता लक्ष्मी व बालाजी आदि देवी-देवताओं की लकड़ी की कृतियां भी बनाई जाती हैं। ये खिलौने आपको 20 रुपए से 15 हज़ार रुपए तक में  मिल जाएंगे।

बिना मशीन की मदद के बेहतरीन कला

राज्य पुरस्कार से सम्मानित के. वेंकटाचारी का पूरा परिवार कोंडापल्ली खिलौनों के कारोबार से जुड़ा है। उनके पूर्वज भी यही काम करते थे। अब वेंकटाचारी के साथ उनकी पत्‍‌नी ज्योति और बेटी भार्गवी भी इस कला को आगे बढ़ा रही हैं। इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहीं भार्गवी चीन की चुनौती के सवाल पर आत्मविश्वास के साथ कहती हैं, ‘जो काम मशीन भी नहीं कर सकती, वो हम हाथ से कहीं बेहतर ढंग से करते हैं। यह एक साधना भी है।’
आंध्र प्रदेश पर्यटन प्राधिकरण की सहायक निदेशक लाजवंती नायडू बताती हैं कि कोंडापल्ली कला को प्रोत्साहित करने के लिए युवा पीढ़ी को प्रशिक्षण दिया जाता है। तीन माह के प्रशिक्षण के दौरान प्रशिक्षुओं को प्रतिदिन 300 रुपये मेहनताना दिया जाता है। के. वेंकटाचारी कहते हैं कि यह प्रशिक्षण एक साल कर देना चाहिए तथा अन्य राज्यों के युवाओं को भी प्रशिक्षण देना चाहिए।

चीन ने उतारे बाज़ार में नकली कोंडापल्ली खिलौने

अभिहारा सोशल एंटरप्राइज की सह-संस्थापक और CEO सुधा रानी, और इंस्टीट्यूट फॉर एडवांस्ड स्टडीज इन कॉम्प्लेक्स चॉइसेज (IASCC) की सह-संस्थापक चित्रा सूद ने खुलासा किया कि चीन में बने नकली खिलौने असली कोंडापल्ली खिलौनों के रूप में पेश किए जा रहे हैं और आंध्र प्रदेश के कोंडापल्ली शिल्प गांव की दुकानों में भी मिल रहे हैं। चीन की बुरी नज़र से बचाने के लिए IASCC और अभिहारा ने कोंडापल्ली शिल्प को पुनर्जीवित करने के उद्देश्य से 2022 की गर्मियों में कोंडापल्ली की महिलाओं के लिए एक प्रशिक्षण कार्यक्रम की योजना बनाई। उन्होंने 15 महिलाओं को कोंडापल्ली खिलौनों को छेनी, तराशने और डिजाइन करने का प्रशिक्षण दिया, जो कि लचीली टेलापोनिकी (सफेद सैंडर) लकड़ी का उपयोग करते हैं, और प्राकृतिक रंगों का उपयोग करके खिलौनों को पॉलिश और रंगते हैं। उत्पादों में कारों के लिए हनुमान गुड़िया, सजावटी बैलगाड़ी, गांव के व्यवसाय और बोम्माला कोलुवु (नवरात्रि समारोहों के लिए गुड़िया प्रदर्शन) के लिए दशावतारम सेट शामिल हैं। इन उत्पादों की कीमत 500 रुपये से अधिक है और इन्हें क्रमशः आंध्र प्रदेश और तेलंगाना सरकारों द्वारा संचालित कोंडापल्ली गांव, लेपाक्षी और गोलकोंडा हस्तशिल्प शोरूम में ग्रीन क्राफ्ट स्टोर में बेचा जाता है।

IASCC ने कोंडापल्ली को आगे बढ़ाने का बीड़ा उठाया

तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में हथकरघा समूहों के साथ काम कर रही सुश्री सुधा ने पाया कि 2020 की शुरुआत में, केवल कुछ परिवार ही पारंपरिक कोंडापल्ली खिलौने बना रहे थे, “बहुत से शिल्पकार प्राकृतिक रंगों का उपयोग करने की पुरानी तकनीक का पालन नहीं करते हैं। पिछले तीन दशकों में सिंथेटिक रंगों ने अपना दबदबा बना लिया है।” शिल्प को पुनर्जीवित करने के लिए एक प्रशिक्षण कार्यक्रम की आवश्यकता महसूस की गई। अनिल के. सूद और चित्रा सूद द्वारा सह-स्थापित IASCC ने मदद के लिए कदम बढ़ाया। उन्होंने अनुभवी शिल्पकार कोट्टैया चारी को शामिल किया जो कोंडापल्ली खिलौनों के लिए प्राकृतिक रंगों का उपयोग करने में माहिर हैं।
कोंडापल्ली में एक कार्यशाला स्थापित की गई और छह महीने के प्रशिक्षण कार्यक्रम के दौरान महिलाओं को ₹4,000 का मासिक वजीफा दिया गया। अभिहारा ने अपने मार्केटिंग नेटवर्क का लाभ उठाया और ऑर्डर मिलने लगे। सरकारी शोरूम और कोरोमंडल और लैंको जैसे कॉर्पोरेट समूहों ने थोक ऑर्डर दिए। सुश्री सुधा कहती हैं, “इन ऑर्डर से महिलाओं को कम से कम छह महीने तक राजस्व मिलने का आश्वासन मिला।” प्रशिक्षण बहुआयामी था, लकड़ी को छेनी से काटना और तराशना, बारीकियां देखना और फिर प्राकृतिक रंगों का उपयोग करके रंगना। पहले, छेनी से काटना और तराशना पुरुषों का काम माना जाता था। हरे रंग के लिए लौकी के पत्तों से प्राप्त रंगद्रव्य रंग निकालने के लिए एक विशेष प्रक्रिया से गुजरते हैं, रंग को ताजा तैयार करना पड़ता है और इसे संग्रहीत नहीं किया जा सकता है। अलग-अलग रंगों के लिए अलग-अलग प्रक्रियाएं अपनाई जाती हैं।

कोंडापल्ली खिलौने रोजगार लौटा सकते हैं

सुश्री चित्रा कहती हैं, “अब हमारे पास एक प्रशिक्षण मॉडल और विपणन ज्ञान है जो इस शिल्प को पुनर्जीवित करने में मदद कर सकता है और शहरों की ओर पलायन कर चुकी युवा पीढ़ी को वापस लौटने और शिल्प को अपनाने के लिए प्रेरित कर सकता है।” इस समय आपूर्ति की तुलना में मांग अधिक है। रोडमैप यह है कि कोंडापल्ली खिलौने डिजाइन करने के लिए अधिक पुरुषों और महिलाओं को प्रशिक्षित किया जाए। सुश्री चित्रा बताती हैं कि शैक्षिक क्षेत्र में भी संभावनाएं हैं, “वर्णमाला ब्लॉक के रूप में डिजाइन किए गए कोंडापल्ली खिलौनों का उपयोग स्कूली बच्चों के लिए शैक्षिक उपकरण के रूप में किया जा सकता है। जब कोई शिल्प उनकी मेज पर भोजन ला सकता है, तो कारीगर अन्य नौकरियों को लेने के लिए दूर नहीं जाएंगे। वे इसे गर्व और स्वामित्व की भावना के साथ अपनाएंगे।”

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