देश के कई इलाकों में बाढ़ की स्तिथी है। गर्मियों में पारा इतना चढ़ जाता है कि मानों आसमान से आग के गोले बरस रहें हों। ठंडी के सीजन में ठंड इतनी होती है कि इंसान की हड्डियां भी कांप जाती है। मौसम में इस बदलाव का कारण ग्लोबल वार्मिंग है। ग्लोबल वार्मिंग की बढ़ती दिक्कतों को देखते हुए अब हम सजग हो रहे हैं। आज हम पर्यावरण की भी बातें करते है। पर्यावरण संरक्षण को लेकर हम खुद जमीन पर उतर कर काम करने लगे हैं। हम पेड़ लगाने लगे है। पर्यावरण संरक्षण एक कलेक्टिव प्रोसेस है। हम सभी को साथ आना ही होगा। देश आज World Nature Conservation Day मना रहा है। ऐसे में आईये जानते है पर्यावरण संरक्षण कानून से जुड़े कुछ महत्त्वपूर्ण पहलूओं को।
भारत में पर्यावरण संरक्षण का इतिहास बहुत पुराना है। हड़प्पा संस्कृति पर्यावरण से ओत-प्रोत थी, तो वैदिक संस्कृति पर्यावरण-संरक्षण के लिए पर्याय बनी। भारतीय सभ्यता और परंपरा में हम हमेशा पर्यावरण को उच्च स्थान दिए है। हम मनुष्यों ने ना सिर्फ समूची प्रकृति बल्कि सभी प्राकृतिक शक्तियों को देवता स्वरूप माना है। ऊर्जा के स्त्रोत सूर्य को देवता माना, नदियों को जीवनदायिनी कहा। केला, पीपल, तुलसी, बरगद, आम आदि पेड़ पौधों की पूजा की। लेकिन वक्त के साथ विनाशकारी दोहन नीति के कारण असंतुलन भारतीय पर्यावरण में ब्रिटिश काल में ही दिखने लगा था। स्वतंत्र भारत के लोगों में पश्चिमी प्रभाव, औद्योगीकरण तथा जनसंख्या विस्फोट के परिणामस्वरूप देश में विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों को जन्म दिया।
आजादी के बाद भारतीय संविधान में पर्यावरण संरक्षण के प्रावधानों से नहीं जुड़ा था। सन् 1972 के स्टॉकहोम सम्मेलन ने भारत सरकार का ध्यान पर्यावरण संरक्षण की ओर खिंचा। सरकार ने 1976 में संविधान में संशोधन कर दो महत्त्वपूर्ण अनुच्छेद 48 ए तथा 51 ए (जी) जोड़ें। अनुच्छेद 48 ए राज्य सरकार को निर्देश देता है कि वह ‘पर्यावरण की सुरक्षा और उसमें सुधार सुनिश्चित करे, तथा देश के वनों तथा वन्य जीवन की रक्षा करे’। अनुच्छेद 51 ए (जी) नागरिकों को कर्तव्य प्रदान करता है कि वे ‘प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा करें तथा उसका संवर्धन करे और सभी जीवधारियों के प्रति दयालु रहे’। स्वतंत्रता के पश्चात बढते औद्योगीकरण, शहरीकरण तथा जनसंख्या वृद्धि से पर्यावरण की गुणवत्ता में निरंतर कमी आती गई। पर्यावरण की गुणवत्ता की इस कमी में प्रभावी नियंत्रण व प्रदूषण के परिप्रेक्ष्य में सरकार ने समय-समय पर अनेक कानून व नियम बनाए।
भारत में पर्यावरण संबंधित कई कानूनों का निर्माण उस समय किया गया था जब पर्यावरण प्रदूषण देश में इतना व्यापक नहीं था। इनमें से अधिकांश कानून अपनी उपयोगिता खो चुके हैं। लेकिन अभी भी कुछ कानून व नियम पर्यावरण संरक्षण में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं।
जल,वायु व ध्वनि प्रदूषण कानून
जल (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) अधिनियम, 1974 तथा 1977 जल प्रदूषण नियंत्रण के महत्त्वपूर्ण हैं। ये न केवल विषैले, नुकसानदेह और प्रदूषण फैलाने वाले कचरे को नदियों और प्रवाहों में फेंकने पर रोक लगाने की व्याख्या करते हैं बल्कि प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों को अधिकार देते हैं कि वे प्रदूषण फैलाने वालों के खिलाफ कार्रवाई करें। बोर्ड इन नियमों का उल्लंघन करने वालों व प्रदूषण फैलाने वालों के विरुद्ध मुकदमा भी चला सकता है। जल कर अधिनियम 1977 में यह प्रावधान भी है कि कुछ उद्योगों द्वारा उपयोग किए गये जल पर कर देय होगा। इन संसाधनों का उपयोग जल प्रदूषण को रोकने के लिए किया जाता है। वायु (प्रदूषण और नियंत्रण) अधिनियम, 1981 वायु प्रदूषण को रोकने का एक महत्वपूर्ण कानून है जो प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को न केवल औद्योगिक इकाइयों की निगरानी की शक्ति देता है, बल्कि प्रदूषित इकाइयों को बंद करने का भी अधिकार प्रदान करता है। ध्वनि प्रदूषण नियंत्रण कानून में ध्वनि प्रदूषको को आपराधिक श्रेणी में मानते हुए इसके नियंत्रण के लिए भारतीय दण्ड संहिता की धारा 268 तथा 290 का प्रयोग किया जा सकता है। पुलिस अधिनियम, 1861 के अंतर्गत पुलिस अधीक्षक को अधिकृत किया गया है कि वह त्योहारों और उत्सवों पर गालियों में संगीत नियंत्रित कर सकता है।
वन्यजीव संरक्षण व वन संरक्षण कानून
वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, (1972) को अधिक व्यावहारिक व प्रभावी बनाने के लिए इसमें वर्ष 1986 तथा 1991 में संशोधन किए गये। वन्यजीव संरक्षण अधिनियम को सफलतापूर्वक क्रियान्वित करने के लिए वन्य जीव संरक्षण निर्देशक तथा दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता व चेन्नई में चार उप निर्देशकों की व्यवस्था की गई है। देश की स्वतंत्रता के पश्चात राष्ट्रीय वन नीति (1952) घोषित की गई लेकिन वनों के विकास पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया। 1970 के दौरान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण के प्रति चेतना की जागृति का विकास होने से वन संरक्षण को भी बल मिला। वन संरक्षण अधिनियम (1980) का इस दिशा में विशेष योगदान रहा।
पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986
संयुक्त राष्ट्र का प्रथम मानव पर्यावरण सम्मेलन 5 जून, 1972 में स्टॉकहोम में संपन्न हुआ। इसी से प्रभावित होकर भारत ने पर्यावरण के संरक्षण लिए पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 पास किया। यह एक विशाल अधिनियम है जो पर्यावरण के समस्त विषयों को ध्यान में रखकर बनाया गया है। इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य वातावरण में द्यातक रसायनों की अधिकता को नियंत्रित करना व पारिस्थितिकी तंत्र को प्रदूषण मुक्त रखने का प्रयत्न करना है। पर्यावरण संरक्षण अधिनियम (1986) एक व्यापक कानून है। इसके द्वारा केंद्र सरकार के पास ऐसी शक्तियां आ गई है जिसके द्वारा वह पर्यावरण की गुणवत्ता के संरक्षण व सुधार हेतु उचित कदम उठा सकती है। इसके अंतर्गत केंद्रीय सरकार को पर्यावरण गुणवत्ता मानक निर्धारित करने, औद्योगिक क्षेत्रों को प्रतिबंधित करने, दुर्घटना से बचने के लिए सुरक्षात्मक उपाय निर्धारित करने तथा हानिकारक तत्वों का निपटान करने, प्रदूषण के मामलों की जांच एवं शोध कार्य करने, प्रभावित क्षेत्रों का तत्काल निरीक्षण करने, प्रयोगशालाओं का निर्माण तथा जानकारी एकत्रित करने के कार्य सौंपे गए हैं। इस कानून की एक महत्वपूर्ण बात यह है कि पहली बार व्यक्तिगत रूप से नागरिकों को इस कानून का पालन न करने वाली फैक्ट्रियों के खिलाफ केस दर्ज करने का अधिकार प्रदान किया गया है।
जैव-विविधता संरक्षण कानून
भारत विश्व में जैव-विविधता के स्तर पर 12वें स्थान पर आता है। अकेले भारत में लगभग 45000 पेड़-पौधों व 81000 जानवरों की प्रजातियां पाई जाती है जो विश्व की लगभग 7.1 प्रतिशत वनस्पतियों तथा 6.5 प्रतिशत जानवरों की प्रजातियों में से है। जैव-विविधता संरक्षण हेतु केंद्र सरकार ने 2000 में एक राष्ट्रीय जैव-विविधता संरक्षण क्रियान्वयन योजना शुरू की जिसमें गैर सरकारी संगठनों, वैज्ञानिकों, पर्यावरणविदों तथा आम जनता को भी शामिल किया गया। इसी प्रक्रिया में सरकार ने जैव विविधता संरक्षण कानून 2002 पास किया जो इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। वर्ष 2002 में पारित इस कानून का उद्देश्य है-जैविक विविधता की रक्षा की व्यवस्था की जाए उसके विभिन्न अंशों का टिकाऊ उपयोग किया जाए, तथा जीव-विज्ञान संसाधन ज्ञान के उपयोग का लाभ सभी में बराबर विभाजित किया जाये। अधिनियम में, राष्ट्रीय स्तर पर जैव-विविधता प्राधिकरण बनाने का भी प्रावधान है, राज्य स्तरों पर राज्य जैव विविधता बोर्ड स्थापित करने, तथा स्थानीय स्तरों पर जैव-विविधता प्रबंधन समितियों की स्थापना करने का प्रावधान है ताकि इस कानून के प्रावधानों को ठीक प्रकार से लागू किया जा सके।
राष्ट्रीय जल नीति, 2002
21वीं सदी में जल के महत्व को स्वीकारते हुए जल संसाधनों के नियोजन, विकास और प्रबंधन के साथ ही इसके सदुपयोग का मार्ग प्रशस्त करने के लिए ‘राष्ट्रीय जल संसाधन परिषद’ ने 1 अप्रैल, 2002 को राष्ट्रीय जल नीति पारित की। इसमें जल के प्रति स्पष्ट व व्यावहारिक सोच अपनाने की बात कही गई है। जल बंटवारे की प्रक्रिया में प्रथम प्राथमिकता पेयजल को दी गई है। इसके बाद सिंचाई, पनबिजली, आदि को स्थान दिया गया है। इसमें पहली बार जल संसाधनों के विकास और प्रबंधन पर सरकार के साथ-साथ सामुदायिक भागीदारी सुनिश्चित करने की बात कही गई है। जल के बेहतर उपयोग व बचत के लिए जनता में जागरूकता बढ़ाने एवं उसके उपयोग में सुधार लाने के लिए पाठ्यक्रम, पुरस्कार आदि के माध्यम से जल संरक्षण चेतना उत्पन्न करने की बात कही गई है
राष्ट्रीय पर्यावरण नीति, 2004
समस्याओं को देखते हुए एक व्यापक पर्यावरण नीति की आवश्यकता है। साथ ही वर्तमान पर्यावरणीय नियमों तथा कानूनों को वर्तमान समस्याओं के संदर्भ में संशोधन की आवश्यकता को भी दर्शाया गया है। राष्ट्रीय पर्यावरण नीति के निम्न मुख्य उद्देश्य रखे गये हैं – संकटग्रस्त पर्यावरणीय संसाधनों का संरक्षण करना। पर्यावरणीय संसाधनों पर सभी के विशेषकर गरीबों के समान अधिकारों को सुनिश्चित करना। संसाधनों का न्यायोचित उपयोग सुनिश्चित करना ताकि वे वतर्मान के साथ-साथ भावी पीढ़ियों की आवश्यकताओं की भी पूर्ति कर सकें
वन अधिकार अधिनियम, 2006
वन अधिकार अधिनियम (2006) कानून जंगलों में रह रहे लोगों के भूमि तथा प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार से जुड़ा हुआ है जिनसे, औपनिवेशिक काल से ही उन्हें वंचित किया हुआ था। इसका उद्देश्य जहां एक ओर वन संरक्षण है वहीं दूसरी ओर यह जंगलों में रहने वाले लोगों को उनके साथ सदियों तक हुए अन्याय की भरपाई का भी प्रयास है। यह कानून जंगलों में निवास करने वाले या वनों पर अपनी आजीविका के लिए निर्भर अनुसूचित जनजातियों के अधिकारों की रक्षा करता है।
पर्यावरण संबंधी कानून होने पर भी भारत में पर्यावरण की स्थिति काफी गंभीर बनी हुई है। नाले, नदियां तथा झीलें औद्योगिक कचरे से भरी हुइ हैं। दिल्ली में यमुना नदी एक नाला बनकर रह गई है। वन क्षेत्र में कटाव लगातार बढ़ता जा रहा है जिसके परिणाम हमें भीषण बाढ़ के रूप में स्पष्ट देखने को मिलता है। भारत में जिस प्रकार से पर्यावरण कानूनों को लागू किया जा रहा है उसे देखते हुए लगता है कि इन कानूनों के महत्व को समझा ही नहीं गया है। पर्यावरण संरक्षण कानूनों को तोड़ने पर कानून अपना काम करेगा ही लेकिन पर्यावरण को सुरक्षित करने के प्रयासों में आम जनता की भागीदारी भी सुनिश्चित करने की बहुत जरूरत है।