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जानें सफाईकर्मियों की जिंदगी कैसे हुई “कचरा”

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वो वक़्त, वो लम्हा, वो मौक़ा बेहद ही ख़ास था जब देश के सर्वोच्च पद पर बैठे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सफाईकर्मियों के ना सिर्फ पैर धुले बल्कि उसे बड़े ही स्नेह, आदर और सम्मान के साथ उस पैर को पोछा भी था, ये तस्वीर टीवी पर लाइव था, देश का हर व्यक्ति सन्न रह गया और पीएम नरेंद्र मोदी की खूब वाहवाही हुई कि पीएम मोदी ने एक सफाईकर्मी के पैर पखारे, ये दृश्य देख देश का हर सफाईकर्मी पीएम का मुरीद हो गया, अपने आपको धन्य कहने लगा, खुद पर गर्व करने लगा कि वो उस काम में लिप्त है जिसे मोदी ने सराहा, इतना सम्मान दिया, इतना आदर दिया। हर एक स्वछताग्रही, स्वच्छताकर्मी, सफाईकर्मी मन में ख़्याल लाने लगा, मन में लड्डू फूटने लगा कि अब कम से कम सफाईकर्मियों ने दिन बहुर जायेंगे, कम से कम देश के लिए ना सही लेकिन सफाईकर्मियों के अच्छे दिन आ जायेंगे लेकिन हालात क्या है, ये हम आपको बताएंगे। The CSR Journal आज वर्ल्ड डे ऑफ़ सोशल जस्टिस के विशेष दिवस पर बताने जा रहा है कि सफाईकर्मियों की क्या है दशा ?

क्यों मनाया जाता है वर्ल्ड डे ऑफ़ सोशल जस्टिस

विश्व सामाजिक न्याय दिवस यानि वर्ल्ड डे ऑफ़ सोशल जस्टिस हर साल पूरे विश्व में 20 फ़रवरी को मनाया जाता है। यह दिन विभिन्न सामाजिक मुद्दों, जैसे- छुआछूत, बहिष्कार, बेरोजगारी, सफाईकर्मचारियों और ग़रीबी से निपटने के प्रयासों को बढ़ावा देने के लिए मनाया जाता है । इस अवसर पर विभिन्न संगठनों, जैसे- संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा लोगों से सामाजिक न्याय के लिए अपील की जाती है । सामाजिक न्याय यानि लिंग, आयु, धर्म, अक्षमता और संस्कृति की भावना को भूलकर समान समाज की स्थापना करना। सामाजिक न्याय के संदर्भ में जब भी भारत की बात होती है तो हम पाते हैं कि हमारे संविधान की प्रस्तावना और अनेकों प्रावधानों के द्वारा इसे सुनिश्चित करने की बात कही गई है। भारत में आज भी कई लोग अपनी कई मूल जरुरतों के लिए न्याय प्रकिया को नहीं जानते जिसके अभाव में कई बार उनके मानवाधिकारों का हनन होता है और उन्हें अपने अधिकारों से वंचित रहना पड़ता है। आज भारत में अशिक्षा, ग़रीबी, बेरोजगारी, महंगाई और आर्थिक असमानता ज्यादा है। इन्हीं भेदभावों के कारण सामाजिक न्याय बेहद विचारणीय विषय हो गया है। और इसी सिद्धांत में सबसे अहम किरदार निभाते है हमारे देश में सफाई कर्मचारी। सफाई कर्मचारियों को आज भी हमारे देश में वो इज़्ज़त, वो मकाम नहीं मिलता, ये हम बार बार भूल जाते है कि इन स्वछता कर्मचारियों का काम उतना ही महत्वपूर्ण है जितना पीएम मोदी का है। इन स्वछता कर्मचारियों के साथ भेदभाव और सामाजिक हीनता को खत्म करने का ये सही मौका है।

जानें सफाईकर्मियों की अनदेखी दुनिया

सफाई कर्मचारी ही तो हमारी और आपकी जिंदगी को संवारता है, उसे स्वच्छ बनता है लेकिन उनकी जिंदगी का क्या, सफाईकर्मचारियों की जिंदगी किसी कचरे से कम नहीं है, पूरे देश मे सफाई कर्मचारियों की हालत दिन पर दिन और खराब होती जा रही है। ये विडम्बना ही है कि साल 2014 में जब मोदी सरकार द्वारा ‘स्वच्छ भारत मिशन’ की घोषणा की तब ऐसा लगा कि देश तो स्वच्छ हो जायेगा साथ ही स्वछता कर्मचारियों की दिन बहुर जायेंगे लेकिन आलम ये है कि कुछ भी सुधार नहीं हुआ। हालात बद से बदतर होते जा रहे है।  सफाईकर्मियों की अनदेखी दुनिया को अब देखने का वक़्त है, उनकी दुनिया संवारने का वक़्त है, उनकी मौतों को रोकने का वक़्त है, उनके सिर से मैला हटाने का वक़्त है। हमारा शहर जो साफ़ करता है, हम उसके बारे में बहुत कम जानते हैं, स्वच्छता के इतने सघन अभियान के बाद भी हम सफाईकर्मियों की स्थिति पर बात नहीं कर पाते हैं, हम ये तक नहीं समझ पा रहे है कि अगर सफाईकर्मचारियों ने ठान लिया कि हम काम नहीं करेंगे तो हम कूड़े के ढ़ेर के बीच रहेंगे। ये हमारे देश की विडंबना ही है कि जहां हर क्षेत्र में अत्याधुनिक मशीनों ने मजदूरों की जगह ले ली है तो क्यों आज भी हाथ से सीवर का गंदा मैला उठाया जा रहा है।

सीवर की सफाई में अब भी मर रहे हैं इंसान

भारत में आज भी बड़े पैमाने पर सीवर की सफाई इंसानों द्वारा किया जाता है, जिसको करने के लिए मशीनों की मदद ली जा सकती है लेकिन 21वीं सदी के भारत में आज भी सीवर को साफ करने के लिए इंसान उतर रहे हैं। टॉयलेट और अन्य जगहों से आने वाला गंदा मिश्रण जब सीवर में फंस जाता है तो उसे साफ करने के लिए मजदूरों को अंदर भेजा जाता है और कई बार यह जानलेवा भी साबित होता है। कई बार मजदूर बिना किसी पर्याप्त सुरक्षा इंतजामों के सिर्फ एक रस्सी के सहारे गहरे सीवर में उतरते हैं और उसके भीतर खतरनाक गैस मौत की वजह बन जाती है। ऐसा नहीं है कि इसे रोकने के लिए कानून नहीं है लेकिन केंद्र सरकार और राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश का गंभीरता से पालन नहीं कर रही हैं। सरकार तो सीवर में होने वाली मौत की भी जिम्मेदारी नहीं लेती है और वह ठेकेदार पर ही इसका ठीकरा फोड़ती है।

आकड़ों में सफाईकर्मियों की मौतों की कहानी

राज्यसभा में एक सवाल के जवाब देते हुए सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने बताया कि साल 2016 और नवंबर 2019 के बीच में देश में सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई के दौरान 282 कर्मचारियों की मौत हुई है। इनमें सबसे ज्यादा 40 मौतें तमिलनाडु हुई है, जबकि हरियाणा में 31 सफाई कर्मचारियों की मौत हुई है, राजधानी दिल्ली और गुजरात में 30 लोगों की मौत हुई है, जबकि महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में यह आंकड़ा 27 है। साल 2016 में यह आंकड़ा 50 था, साल 2017 में सेप्टिक टैंक और सीवरों में दम घुटने के कारण 83 सफाई कर्मचारियों की मौत हुई है। साल 2018 में 66 मौतें दर्ज की गई, नवंबर 2019 तक देश भर से रिपोर्ट की गई मौतों की संख्या 83 थी। यह आंकड़े पुलिस द्वारा दर्ज किए गए एफआईआर पर आधारित है। ये आंकड़े यहीं खत्म नहीं होते, हाथ से मैला ढोने की प्रथा को खत्म करने को लेकर काम करने वाली संस्था सफाई कर्मचारी आंदोलन साल 2000 के बाद से मौतों को आंकड़े 1760 बताए हैं।

क्यों होती है ये मौतें

एक ओर तो स्वच्छ भारत के नाम पर विज्ञापनों में अरबों रुपए खर्च किए जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर गटर की सफाई के दौरान मरने वालों के परिजनों को न्यूनतम सुविधा और पर्याप्त मुआवजा भी नहीं दिया जाता। सुप्रीम कोर्ट का उनके बारे में दिया गया निर्णय और मैनुअल स्कैवेंजिंग प्रोहिबिशन एक्ट भी लागू नहीं किया गया, किसी तरह की तकनीकी सुविधा उनको गटर में उतराने से पहले नहीं दी जाती, केवल आधी बोतल शराब और सिर पर मसलने के लिए उन्हें तेल दे दिया जाता है। कई बार वे जीवित अंदर जाते हैं और उनकी लाश ही बाहर आती है, अंदर की जहरीली गैस उनकी जान ले लेती है। कई बार गटर में उनका दम घुट जाता है। कई बार उनको लकवा मार जाता है। क्या ये स्वच्छ भारत अभियान में नहीं आता था कि सफाईकर्मियों को आधुनिक तकनीकी यंत्र उपलब्ध करा दिए जाएं, ताकि उन्हें खुद सीवर के अंदर न जाना पड़े? ये मशीनें काफी समय से उपलब्ध हैं। हम आज विश्व की प्रमुख शक्ति बनने जा रहे हैं, तकनीक और विज्ञान में हमने तरक्क़ी कर ली है, लेकिन इन सफ़ाई कर्मचारियों की असमय मौतों को रोकने का बंदोबस्त हम नहीं कर पा रहे हैं। यहां तक कि उनका हमारे पास कोई आंकड़ा तक नहीं है, ये देखने वाला कोई नहीं है कि गटर में मरने वालों के परिवार की क्या हालत होती है।

क्या कहता है मैनुअल स्कैवेंजिंग कानून

सीवर सफाई करने के लिए जो मजदूर भूमिगत नालों में उतरते हैं उन्हें बहुत कम पैसे दिए जाते हैं और कई बार सीवर सफाई के ठेकेदार अपने कर्मचारियों को बिना सुरक्षा उपकरण के ही काम करने को मजबूर करते हैं, मैनुअल स्केवेंजिग को खत्म करने और इसे प्रतिबंधित करने वाला पहला कानून 1993 में बना जबकि उसके बाद दूसरा कानून 2013 में बना था, मैनुअल स्कैवेंजिंग कानून 2013 के तहत किसी भी व्यक्ति को सीवर में भेजना पूरी तरह से प्रतिबंधित है, अगर किसी खास परिस्थति में सफाईकर्मी को सीवर के अंदर भेजा जाता है तो इसके लिए कई तरह के नियमों का पालन करना होता है, अगर सफाईकर्मी किसी कारण से सीवर में उतरता भी है तो इसकी इजाजत इंजीनियर से होनी चाहिए और पास में ही एंबुलेंस की व्यवस्था भी होनी चाहिए ताकि किसी आपातकाल स्थिति में सफाईकर्मी को अस्पताल ले जाया जा सके, इसके अलावा दिशा-निर्देश कहते हैं कि सफाईकर्मी की सुरक्षा के लिए ऑक्सीजन मास्क, रबड़ के जूते, सेफ्टी बेल्ट, रबड़ के दस्ताने, टॉर्च आदि होने चाहिए।

सीएसआर से बदलेगी सफाईकर्मचारियों की जिंदगी

इस साल के बजट में केंद्र सरकार ने कहा है कि वह स्वच्छता के क्षेत्र में खुले में शौच मुक्त भारत के लिए प्रतिबद्ध है, बजट में स्वच्छ भारत मिशन के लिए 2020-21 में कुल 12,300 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है, साथ ही सीवर सिस्टमों और सेप्टिक टैंकों की सफाई को मैनुअल तरीके से न करने को सुनिश्चित करने के लिए ऐसे कार्यों के लिए आवासन और शहरी कार्य मंत्रालय की तरफ से उचित तकनीक की पहचान की व्यापक पैमाने पर मंजूरी के लिए वित्तीय सहायता देने की बात कही गई है। बातें तो हर बजट में बड़ी-बड़ी की जाती है लेकिन जब गटर में उतरने की पारी आती है तो इन कर्मचारियों को मौत के मुंह में ढ़केल दिया जाता है, सीएसआर के तहत भी बड़े पैमाने पर स्वच्छ भारत मिशन के अंतर्गत स्वछता को बढ़ावा दिया जा रहा है लेकिन जब बात आती है इन कर्मचारियों की तो सरकारें मुंह मोड़ लेती है लेकिन अब वक़्त है कि इनके समस्यायों को सीएसआर द्वारा सुधारा जाय। बहुत ऐसे एनजीओ है जो अब सफाई कर्मचारियों की जिंदगी को संवारने के लिए आगे आ रही है, कई कॉर्पोरेट्स जैसे इंडियन आयल और रहेजा ने तो इनके लिए अत्याधुनिक रोबोटिक मशीनें सीएसआर के तहत दी है जो एक सराहनीय पहल है। लेकिन सवाल जिस पैमाने पर ये काम होना चाहिए, कॉर्पोरेट्स को साथ आकर सरकार के साथ सफाईकर्मियों की जिंदगी को सुधारना चाहिए।

60 की उम्र से पहले हो जाती है 90 फीसदी की मौत

क्या आप जानते हैं कि गटर-सीवर साफ करने वाले 90 फीसदी सफाई कर्मचारियों की 60 की उम्र से पहले ही मौत हो जाती है, गंदगी से जूझते हुए जानलेवा बीमारियां उन्हें अपना शिकार बना लेती हैं, ये सफाईकर्मचारी 20 फुट गहरे सीवर में उतरता है, सांस लेने की साफ हवा तक न हो, पता भी न हो कि अंदर हाइड्रोजन सल्फाइड इंतज़ार कर रही है या मिथेन गैस, इन सफाई वालों के पास कोई उपकरण नहीं होता जिससे पता कर सके कि सीवर में ज़हरीली गैस इंतज़ार कर रही है ऐसे में ये ऐसे ही हादसों के शिकार हो जाते है और अगर हादसों से बच जाते है तो इनके शरीर में बीमारियां घर कर जाती है जिससे ये भरी जवानी में ही मौत के शिकार हो जाते है। ये सफाईकर्मी बिना किसी सुरक्षा या औज़ार के काम करने के कारण अक्सर मानव अवशेष या मानव मल से सीधे संपर्क में आते हैं जिसकी वजह से इन्हें सेहत संबंधित खतरे और कई तरह की गंभीर बीमारियों का सामना करना पड़ता है।
The CSR Journal से ख़ास बातचीत करते हुए डॉक्टर मोहसिन अंसारी बताते है कि “इनकी लाइफ बिमारियों की वजह से बहुत छोटी हो जाती है, अत्याधुनिक उपकरणों की कमी की वजह से ये गंदगी के संपर्क में सीधे तौर पर आते है और तमाम बिमारियों के शिकार हो जाते है, सफाईकर्मचारी सालों से इस तरह के काम करते है लिहाजा इनमें अस्थमा, टीबी, दिल की बीमारी, स्किन की बीमारी हो जाती है, सफाई कर्मचारी इन घातक बिमारियों के कब शिकार हो जाते है ये इन्हे अर्ली स्टेज पर पता नहीं चलता जिससे ये बीमारियां और जटिल हो जाती है। डॉक्टर मोहसिन अंसारी कहते है कि इन सफाईकर्मचारियों को अपने स्वास्थ को लेकर कैसे सजग रहा जाय ये बताना चाहिए, सोशल मेडिकल सिक्योरिटी के साथ साथ इन्हे पर्सनल हाइजीन की ट्रेनिंग भी दी जानी चाहिए”।

सोशल सिक्योरिटी के नाम पर छलावा

देश की राजधानी दिल्ली और आर्थिक राजधानी मुंबई में अक्सर सफाईकर्मी की मौत होती है, अगर अकेले बीएमसी की बात करें तो यहां हर हफ्ते 5 सफाई कर्मचारियों की मौत होती है। महाराष्ट्र म्युनिसिपल कामगार यूनियन के सचिव विजय दलवी The CSR Journal से ख़ास बातचीत करते हुए बताया कि “सफाई कर्मचारियों की पुश्त-दर-पुश्त चलने वाला शायद यह पहला जातिगत प्रोफेशन है जिसमें हर तीन में से दो मौतें पेशे से जुड़ी बीमारियों या सीवर में गिर जाने से होती हैं। देश की सबसे बड़ी महानगर पालिका है बीएमसी और यहां का ये हाल है, मुंबई में रोजाना 8000 टन कचरा इकट्ठा होता है और उसके निबटारे के लिए कम से कम 30 हजार स्वीपर या सफाई कर्मचारी काम करते हैं। ये सभी मुंबई बीएमसी के सफाई कर्मचारी मुंबईकरों के आरोग्य दाता है, मुंबईकरों को साफ सुथरा शहर और स्वस्थ जीवन देने का जिम्मा इन सफाई कर्मचारियों पर है लेकिन ये जिमेद्दारी इन्हें अपनी मौत देकर चुकानी पड़ती है। मिनिमम वेज जो सरकार द्वारा निर्धारित है वो इन कर्मचारियों को नहीं मिलता, ईएसआईसी और ईपीएफ की भी सुविधाएं इन कॉन्ट्रैक्ट लेबरों को नहीं मिलता। विजय दलवी कहते है कि ऐसा नहीं है कि कानून में कोई प्रावधान नहीं है, कानून बहुत अच्छे अच्छे बने है लेकिन ये सभी कानून अच्छे अच्छे किताबों के पन्नों में सिर्फ दर्ज है अगर ये कानून इन सफाई कर्मचारियों की जिंदगी में आये तो इनकी जिंदगी संवारी जा सकती है।

सफाई कर्मचारियों से जुड़े कुछ और तथ्य

17 करोड़ दलित समाज के लोग आज भी मुख्यधारा से कटे हुए
13 लाख कर्मचारी मल-मूत्र साफ करने वाले
देश भर में 27 लाख सफाई कर्मचारी
770000 सरकारी सफाई कर्मचारी
करीब 20 लाख सफाई कर्मचारी ठेके पर काम करते हैं
औसतन सफाईकर्मी की कमाई 3 से 5 हजार रुपये महीने
हर महीने करीब 200 सफाईकर्मियों की काम करते वक्त मौत
सिर्फ मुंबई में हर महीने 20 से ज्यादा सीवर साफ करने वालों की मौत
90 फीसदी गटर-सीवर साफ करने वालों की मौत 60 बरस से पहले
देश में वाल्मीकि समाज की 1200 बस्तियों में कोई सुविधा नहीं
हेल्थ और इंश्योरेंस की कोई सुविधा नहीं
20 लाख लोग सीवर और गटर साफ करने में लगे हैं
बहरहाल मैला साफ करने वालों के प्रति भेदभाव और छुआछूत खत्म करने के लिए सामाजिक जागरूकता चाहिए और आज वर्ल्ड डे ऑफ़ सोशल जस्टिस के इस विशेष दिवस पर हम चाहते है कि हमारा समाज, हमारी सरकार वास्तव में उनके प्रति संवेदनशील बने और सफाईकर्मियों की जिंदगी संवारें।