9 नवम्बर 2000 — यह तारीख केवल एक प्रशासनिक बदलाव नहीं थी, बल्कि यह पहाड़ों की आत्मा की पुकार का उत्त र थी। इस दिन उत्तराखंड भारत का 27वां राज्य बना और सदियों से उपेक्षित पर्वतीय जनता को अपनी पहचान मिली। “हमारा पहाड़, हमारी सरकार” यह नारा केवल एक मांग नहीं, बल्कि उत्तराखंड आंदोलन का ध्येय बन गया था। गढ़वाल, कुमाऊँ और तराई के हजारों लोगों ने वर्षों तक संघर्ष किया, महिलाएं सड़कों पर उतरीं, नौजवानों ने अपनी जानें दीं, और अंततः दिल्ली ने उनकी आवाज सुनी।
राज्य की स्थापना का इतिहास: जब पहाड़ों ने अपनी पहचान मांगी और इतिहास ने सुना
उत्तराखंड का इतिहास केवल भौगोलिक सीमाओं का नहीं, बल्कि आत्मसम्मान और अस्तित्व की लड़ा ई का इतिहास है। स्वतंत्रता के बाद जब पहाड़ी इलाकों को उत्तर प्रदेश में मिला दिया गया, तो लोगों को लगा कि उनकी विशेष भौगोलिक परिस्थितियां, कठिन पहाड़, सीमित संसाधन, पलायन, शिक्षा और स्वास्थ्य की कमी बड़े राज्य में खो जाएंगी। 1970 के दशक में उत्तराखंड क्रांति दल (UKD) की स्थापना हुई। यहीं से अलग राज्य की मांग ने राजनीतिक रूप लिया। 1994 में मुज़फ्फरनगर कांड ने इस आंदोलन को निर्णायक रूप से दिशा दी, जब शांतिपूर्ण आंदोलन कर रही महिलाओं और छात्रों पर पुलिस ने गोली चलाई। यह घटना पूरे पहाड़ में आग की तरह फैल गई। नारे गूंजे, “पहाड़ का पानी, पहाड़ की जवानी , अब पहाड़ के काम आएगी।”
आखिरकार, लंबे संघर्षों के बाद, 9 नवम्बर 2000 को केंद्र सरकार ने उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम पारित किया, और जन्म हुआ उत्तरांचल राज्य का ! बाद में 1 जनवरी 2007 को इसका नाम बदलकर उत्तराखंड रखा गया, जो शाब्दिक रूप से अर्थ रखता है, “उत्तर का खंड” या “देवभूमि ”।
देवभूमि उत्तराखंड- जहां हर घाटी में गूंजती है आस्था की गूंज
पवित्र नदियों, प्राचीन तीर्थों और आध्यात्मिक परंपराओं के कारण ही कहा जाता है उत्तराखंड को “देवभूमि” ! भारत के उत्तर में हिमालय की गोद में बसा राज्य उत्तराखंड केवल प्राकृतिक सौंदर्य के लिए ही नहीं, बल्कि अपनी आध्यात्मिक महिमा और धार्मिक धरोहर के लिए भी जाना जाता है। इसे “देवभूमि” यानी “देवताओं की भूमि” कहा जाता है। यहां हर नदी, हर पर्वत, हर घाटी में किसी न किसी देवता, ऋषि या पवित्र कथा का निवास माना गया है।
उत्तराखंड- जहां देवताओं ने किया था वास
पुराणों और धार्मिक ग्रंथों के अनुसार, उत्तराखंड वह स्थान है जहां भगवान शिव, विष्णु, पार्वती, ऋषि-मुनि और योगियों ने तपस्या की। केदारनाथ में स्वयं भगवान शिव लिंग रूप में विराजमान हैं। बद्रीनाथ भगवान विष्णु का प्रमुख धाम है, जहां उन्होंने नीलकंठ पर्वत की छाया में ध्यान किया था। गंगोत्री और यमुनोत्री से निकलती नदियां गंगा और यमुना भारत की जीवनरेखाएं हैं। इसीलिए यह भूमि केवल भौगोलिक क्षेत्र नहीं, बल्कि दैवीय ऊर्जा से परिपूर्ण प्रदेश मानी जाती है।
आस्था की भूमि – देवताओं की धरती उत्तराखंड
उत्तराखंड को “देवभूमि” यूं ही नहीं कहा जाता। यहां के हर शिखर, हर घाटी और हर नदी में आस्था की धारा बहती है। हिंदू धर्म में “चारधाम यात्रा” का विशेष धार्मिक महत्व है। यह यात्रा भगवान विष्णु, भगवान शिव, देवी गंगा और देवी यमुना को समर्पित है। कहा जाता है कि जो व्यक्ति इन चार धामों की यात्रा कर श्रद्धा से दर्शन करता है, वह जीवन-मरण के बंधन से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करता है।
बद्रीनाथ धाम- भगवान विष्णु का निवास
अलकनंदा नदी के तट पर स्थित यह धाम भगवान विष्णु के नारायण स्वरूप को समर्पित है। पौराणिक कथा के अनुसार, जब भगवान विष्णु ने तपस्या के लिए हिमालय का चयन किया, तब देवी लक्ष्मी ने बुरांश के पेड़ का रूप धारण कर उन्हें छाया दी। इसी कारण इसका नाम “बद्री वन” पड़ा। यहां के दर्शन को “वैष्णव साधना” का सर्वोच्च रूप माना गया है। “जय बद्री विशाल” की गूंज यहां के हर यात्री के हृदय को भक्ति से भर देती है।
केदारनाथ धाम- भगवान शिव की तपोभूमि
यह मंदिर समुद्र तल से 11,755 फीट की ऊंचाई पर स्थित है, जहां हर पत्थर शिवत्व का प्रतीक है। कथा है कि महाभारत के बाद पांडवों ने भगवान शिव से क्षमा मांगी और शिव ने बैल के रूप में प्रकट होकर यहां लिंग रूप में अवतार लिया। यहां का शिवलिंग त्रिकोणाकार है, जो पूरे भारत में अद्वितीय है। 2013 की विनाशकारी बाढ़ में भी यह मंदिर चमत्कारिक रूप से सुरक्षित रहा, जिसे आज भी लोग शिव की कृपा मानते हैं।
गंगोत्री धाम- मां गंगा का उद्गम स्थल
गंगोत्री वह पावन स्थान है जहां मां गंगा धरती पर अवतरित हुईं। मान्यता है कि राजा भगीरथ के तप से प्रसन्न होकर गंगा ने स्वर्ग से अवतरण किया था ताकि उनके पूर्वजों को मोक्ष मिले। इस स्थल पर गंगोत्री मंदिर में भक्त गंगा मां की आरती करते हैं और हिमालय की गोद में बहती नदी को प्रणाम करते हैं।यहां हर बूंद में शुद्धता, हर लहर में आस्था झलकती है।
यमुनोत्री धाम- देवी यमुना का पवित्र निवास
यमुनोत्री, चारधाम यात्रा का प्रारंभिक पड़ाव माना जाता है। यह स्थान मां यमुना को समर्पित है, जो सूर्य देव की पुत्री और यमराज की बहन मानी जाती हैं। कहा जाता है कि यमुना के दर्शन से व्यक्ति को मृत्यु के भय से मुक्ति मिलती है। यहां के “सूर्यकुंड” में भक्तजन पूजा हेतु प्रसाद पकाते हैं, जो इस धाम की विशेष परंपरा है।
मां धारी देवी- देवभूमि की रक्षक शक्ति
उत्तराखंड की धार्मिक परंपरा में मां धारी देवी का स्थान सबसे विशेष है। यह मंदिर अलकनंदा नदी के तट पर, श्रीनगर (गढ़वाल) और रुद्रप्रयाग के बीच स्थित है। देवी धारी मां को यहां “उत्तराखंड की जाग्रत देवी” कहा जाता है। मान्यता है कि सदियों पहले अलकनंदा की धारा में मां धारी देवी की मूर्ति बहती हुई यहां पहुंची थी।स्थानीय लोगों ने जब उस मूर्ति को स्थापित किया, तो मां ने स्वयं कहा, “मैं यहीं विराजमान रहूंगी और इस भूमि की रक्षा करूंगी।” धारी देवी की मूर्ति आधे शरीर के रूप में विराजमान है। ऊपरी भाग धारी देवी मंदिर में और निचला भाग कालीमठ में पूजित है। यह स्वरूप कोमलता और क्रोध, दोनों शक्तियों का प्रतीक माना जाता है।
धारी देवी की चेतावनी और 2013 की त्रासदी
मां धारी देवी की दिव्यता की सबसे चर्चित कथा 2013 की बाढ़ से जुड़ी है। जून 2013 में मंदिर क्षेत्र में जलविद्युत परियोजना के कारण मां की मूर्ति को अस्थायी रूप से हटाया गया। स्थानीय श्रद्धालुओं ने चेतावनी दी थी कि “यह अशुभ है, मां को हिलाना विनाश को आमंत्रित करेगा।” उसी शाम भयंकर आपदा आई, अलकनंदा और मंदाकिनी में प्रलयकारी बाढ़ आई, जिसने केदारनाथ समेत पूरे गढ़वाल को हिला दिया। लोगों का विश्वास है कि यह केवल संयोग नहीं था, बल्कि मां की नाराज़गी का प्रतीक था। तब से धारी देवी को “देवभूमि की रक्षक देवी” कहा जाने लगा।
चारधाम और धारी देवी- देवभूमि का आध्यात्मिक संतुलन
मां धारी देवी को “गढ़वाल की कुलदेवी” भी कहा जाता है। मान्यता है कि उत्तराखंड में जब भी कोई बड़ा संकट आता है, मां धारी देवी ही रक्षा करती हैं। हर वर्ष अष्टमी और नवमी पर यहां विशेष पूजा होती है, जहां हज़ारो श्रद्धालु एकत्र होते हैं। चारधाम के देव और देवी शक्ति रूप में धारी देवी, दोनों मिलकर उत्तराखंड को संतुलित करते हैं। चारधाम मोक्ष और अध्यात्म का मार्ग दिखाते हैं। मां धारी देवी उस मार्ग की रक्षक हैं। यही कारण है कि उत्तराखंड केवल तीर्थभूमि नहीं, बल्कि आस्था, भक्ति और दिव्य चेतना की भूमि है।
त्रियुगीनारायण मंदिर और हरिद्वार का कुंभ मेला
जहां विवाह की साक्षी बनी अग्नि अब भी जल रही है, जहां अमृत की बूंदों ने धरती को पवित्र किया ! देवभूमि उत्तराखंड में हर घाटी, हर पत्थर, हर नदी की अपनी एक कथा है। इन्हीं में से दो स्थलों का विशेष धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व है, त्रियुगीनारायण मंदिर, जो भगवान विष्णु की साक्षी में भगवान शिव औरदेवी पार्वती के वि वाह का स्थल माना जाता है, और हरिद्वार का कुंभ मेला, जहां लाखों श्रद्धालु आत्मशुद्धि के लिए गंगा में डुबकी लगाते हैं।
त्रियुगीनारायण मंदिर – जहां एक हुए अविनाशी शिव और माता पार्वती
त्रियुगीनारायण मंदिर एक अत्यंत प्राचीन और पवित्र तीर्थस्थल है, जो केदारनाथ धाम के समीप रुद्रप्रयाग ज़िले के त्रियुगीनारायण गांव में स्थित है। नाम ही बताता है, “त्रि-युग” अर्थात् तीन युगों से यह ज्योति प्रज्वलित है- सत्ययुग, त्रेतायुग और द्वापरयु ग !
हिंदू पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, यह वही स्थान है जहां भगवान शिव और देवी पार्वती का विवाह संपन्न हुआ था। कहते हैं कि स्वयं भगवान विष्णु ने पार्वती के भाई के रूप में उपस्थित होकर विवाह की विधि पूरी कराई थी। साक्षी के रूप में यहां जो अग्निकुंड प्रज्वलित किया गया था, उसकी अग्नि आज भी अनवरत जल रही है। यह अग्नि तीन युगों से बिना बुझी हुई मानी जाती है। भक्त यहां “अक्षत विवाह” की कामना लेकर आते हैं। माना जाता है कि इस कुंड की राख अपने पास रखने से वैवाहिक जीवन में सौहार्द बना रहता है। मंदिर के सामने स्थित तीन पवित्र कुंड भी हैं –
1. रुद्र कुंड – स्नान हेतु
2. विष्णु कुंड – धार्मिक आचरण हेतु
3. ब्रह्म कुंड – आचमन और पूजन हेतु,
यहां के जल को अमृत तुल्य माना जाता है।
तीर्थ और विवाह का संगम स्थल
त्रियुगीनारायण मंदिर की विशेषता यह भी है कि यहां कई नवविवाहित जोड़े आज भी विवाह संस्कार सम्पन्न करते हैं। कहा जाता है कि त्रियुगीनारायण में विवाह करने वाला जोड़ा सदा अखंड प्रेम और सौ भाग्य से परिपूर्णरहता है। मंदिर का निर्माण उत्तर भारतीय नागर शैली में हुआ है, जो केदारनाथ मंदिर से काफी मेल खाता है। यहां के पत्थरों पर इतिहास, पौराणिकता और श्रद्धा, तीनों एक साथ अंकित हैं। केदारनाथ यात्रा करने वाले श्रद्धालु त्रियुगीनारायण के दर्शन को अधूरा नहीं छोड़ते। यह स्थान तीर्थयात्रा और विवाह संस्कार, दोनों का प्रतीक है, जहां आध्यात्मिकता और जीवन का आनंद एक साथ जुड़ते हैं।
हरिद्वार कुंभ मेला- जहां अमृत की बूंदों ने धरती को पवित्र किया
हरिद्वार- अर्थात् “हरि का द्वार”, जहां गंगा पर्वतों से निकलकर मैदानों की ओर प्रवाहित होती है। यह शहर भारत के चार प्रमुख कुंभ स्थलों में से एक है -प्रयागराज, उज्जैन, नासिक और हरिद्वार। कुंभ मेले की कथा समुद्र मंथन से जुड़ी है। जब देवताओं और असुरों ने अमृत प्राप्ति के लिए क्षीरसागर का मंथन किया, तो अमृत कलश निकलने पर देवताओं ने उसे छिपाने की कोशिश की। इसी दौरान अमृत की चार बूंदें पृथ्वी पर चार स्थानों पर गिरीं- प्रयागराज, उज्जैन, नासिक और हरिद्वार में ! इन्हीं चार स्थलों पर हर 12 वर्ष में कुंभ मेला आयोजित किया जाता है।
हरिद्वार का महत्व : गंगा का स्पर्श और मोक्ष का द्वार
हरिद्वार का कुंभ मेला गंगा तट पर स्थित हर की पौड़ी पर केंद्रित रहता है। यहां जब लाखों श्रद्धालु सूर्योदय से पहले गंगा स्नान करते हैं, तो पूरा वातावरण “हर हर गंगे, जय माँ गंगे” की गूंज से भर उठता है। मान्यता है कि कुंभ स्नान के दौरान गंगा का एक स्पर्श जन्मों के पाप मिटा देता है और मोक्ष प्रदान करता है। हरिद्वार के कुंभ की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक भव्यता विश्व चर्चित है। कुंभ मेले में अखाड़ों के नागा साधु, तपस्वी और संन्यासी शाही स्नान के लिए हरिद्वार पहुंचते हैं। शाही जुलूस के रूप में जब संत समाज गंगा में प्रवेश करता है, तो पूरा वातावरण आध्यात्मिक उत्सव में बदल जाता है। यहां धर्म, योग, आयुर्वेद, और भारतीय संस्कृति का विराट संगम दिखाई देता है। 2025 में आयोजित आखिरी हरिद्वार कुंभ मेला दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक आयोजन बना। अगला महाकुंभ 2033 में होने की संभावना है, जिसके लिए अभी से तैयारियाँ शुरू हो चुकी हैं।
कुंभ का संदेश : एकता और आत्मशुद्धि
कुंभ मेला केवल स्नान या अनुष्ठान नहीं है। यह आत्मबोध और मानवता का महोत्सव है। यह हमें सिखाता है कि, “पानी केवल शरीर को नहीं धोता, बल्कि आत्मा को भी शुद्ध करता है।” हरिद्वार में जब सूर्य की पहली किरण गंगा पर पड़ती है, तो ऐसा लगता है जैसे स्वयं ईश्वर ने इस भूमि को आशीर्वाद दिया हो।
देवभूमि के दो प्रतीक- विवाह और मोक्ष
उत्तराखंड के त्रियुगीनारायण मंदिर और हरिद्वार कुंभ मेला दो अलग प्रतीक हैं- एक सृष्टि की शुरुआत का, दूसरा आत्मा की मुक्ति का ! त्रियुगीनारायण हमें बताता है कि प्रेम और धर्म का संगम जीवन की नींव है, और हरिद्वार सिखाता है कि त्याग और आस्था से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। देवभूमि उत्तराखंड की यही विशेषता है- यहां विवाह भी तपस्या है, और स्नान भी साधना !
संस्कृति और परंपरा – लोकजीवन की आत्मा
उत्तराखंड की संस्कृति सादगी, श्रम और प्रकृति के साथ सामंजस्य की मिसाल है। यहां के लोकगीत और नृत्य लोगों के जीवन से गहराई से जुड़े हैं। झोड़ा, छपेली, थड्या, चांचरी जैसे लोकनृत्य हर पर्व पर झूम उठते हैं। मंगल गीत विवाहों में गाए जाते हैं, जबकि बेडू पाको बारामासा राज्य का अमर लोकगीत बन चुका है। उत्तराखंड की थाली में भट्ट की दाल, झंगोरे की खीर, मं डुवे की रोटी, सिसुने की साग और गहत की दाल जैसे पारंपरिक व्यंजन मिलते हैं। महिलाओं की पिछौड़ा और गहने उनकी पहचान हैं, जबकि पुरुषों की टोपी और अंगवस्त्र पहाड़ी संस्कृति का प्रतीक हैं। नंदा देवी राजजात यात्रा- बारह साल में एक बार होने वाली यह यात्रा भक्ति और लोकएकता का अद्भुत उदाहरण है। हरेला, भिटोली, गंगा दशहरा और घी संक्रांति जैसे पर्व प्रकृति और कृषि जीवन से जुड़ी आस्था दर्शाते हैं।
भौगोलिक स्वरूप – प्रकृति का अद्भुत संतुलन
उत्तराखंड की पहचान उसकी प्राकृतिक भव्यता में है। राज्य दो मुख्य भागों में बंटा है- गढ़वाल और कुमाऊं! यहां हिमालय की ऊँचाइयां, हरियाली से भरे जंगल, झरनों की आवाज और झीलों की शांति सब कुछ मिलकर इसे धरती पर स्वर्ग बनाते हैं। उत्तराखंड की प्रमुखपर्वत और चोटियां, नंदा देवी (7816 मीटर) भारत की दूसरी सबसे ऊंची चोटी और राज्य की शान कहलाती है। त्रिशूल, पंचचूली, चौखंभा- ये शिखर न केवल पर्वतारोहियों के आकर्षण का केंद्र हैं, बल्कि धार्मिक दृष्टि से भी पूजनीय हैं। यहां से निकलने वाली नदियां गंगा, यमुना, अलकनंदा, मंदाकिनी , काली और शारदा पूरे उत्तर भारत को सिंचित करती हैं। नैनीताल, भीमताल, देवरिया ताल, टिहरी झील, सातताल जैसे झीलें पर्यटन और जल संसाधन दोनों के लिए अहम हैं। राज्य में कॉर्बेट नेशनल पार्क, राजाजी नैशनल पार्क, नंदा देवी बायोस्फियर रिजर्व जैसी संरक्षित वन संपदाएं हैं, जो बाघ, तेंदुए, हिरण, कस्तूरी मृग और सैकड़ों पक्षी प्रजातियों का घर हैं।
उत्तराखंड का इतिहास और विरासत
उत्तराखंड का अतीत सांस्कृतिक रूप से अत्यंत गौरवशाली रहा है। यहां कत्यूर वंश (8वीं-11वीं सदी) और बाद में चंद वंश ने शासन किया। इन राजाओं ने कला, संस्कृति और स्थापत्य को अभूतपूर्व ऊँचाइयाँ दीं। बैजनाथ मंदिर समूह और जागेश्वर मंदिर परिसर आज भी उन दिनों की भव्यता की झलक दिखाते हैं। गढ़वाल क्षेत्र में गढ़ों (किलों) की परंपरा रही, जिनसे ही “गढ़वाल” नाम पड़ा। यह भूमि महर्षि व्यास, कश्यप, पार्वती और कई योगियों की तपस्थली रही है। कहा जाता है कि महाभारत का लेखन भी बद्रीनाथ क् षेत्र में हुआ था। यात्रा के अलावा उत्तराखंड अपने प्राकृतिक सौंदर्य, रोमांचक गतिविधियों और विविध संस्कृति के कारण विश्व प्रसिद्ध है।
उत्तराखंड के मुख्य पर्यटन स्थल
गढ़वाल क्षेत्र-“Queen Of Hills” मसूरी में झरनों, वादियों और औपनिवेशिक स्थापत्य का सुंदर संगम है।
देहरादून – राज्य की राजधानी, जहां प्राकृतिक सौंदर्य के साथ-साथ शिक्षा और शोध संस्थान हैं। ऋषिकेश – योग और ध्यान की विश्व राजधानी। यहां गंगा आरती और रिवर राफ्टिंग पर्यटकों को आकर्षित करती है।
टिहरी झील – एशिया की सबसे बड़ी मानव निर्मित झील, जहां बोटिंग और वाटर स्पोर्ट्स का आनंद लिया जा सकता है।
कुमाऊं क्षेत्र: नैनीताल – झीलों का शहर, जहां नैना देवी मंदिर और टिफिन टॉप प्रसिद्ध हैं।
रानीखेत और अल्मोड़ा – शांत वातावरण, देवदार के जंगल और प्राचीन मंदिरों से भरपूर।
पिथौरागढ़ और मुनस्यारी – यहां से हिमालय की पंचचूली श्रृंखला का नजारा अद्भुत है।
जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क – भारत का पहला राष्ट्रीय उद्यान (1936), जहां बाघ देखने के लिए दुनियाभर से पर्यटक आते हैं।
रोमांच और साहसिक पर्यटन
उत्तराखंड रोमांच-प्रेमियों का भी स्वर्ग है। यहां हर तरह के साहसिक खेलों की सुविधा है —
रिवर राफ्टिंग: ऋषिकेश और अलकनंदा घाटी में,
ट्रेकिंग: केदारनाथ, रूपकुंड, हर्षिल, फूलों की घाटी और पिंडारी ग्लेशियर जैसी जगहों पर।
पैराग्लाइडिंग: भीमताल और टिहरी में।
स्कीइंग: औली में, जो एशिया के बेहतरीन स्की रिसॉर्ट्स में से एक है।
प्रकृति और वन्य पर्यटन
फूलों की घाटी (Valley of Flowers): यह यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल है। यहां जून से सितंबर तक सैकड़ों दुर्लभ फूलों की प्रजातियां खिलती हैं।
राजाजी नेशनल पार्क: हाथियों, हिरणों और पक्षियों के लिए प्रसिद्ध।
नंदा देवी बायोस्फीयर रिजर्व: जैव विविधता और ट्रेकिंग के लिए प्रसिद्ध।
होमस्टे और ग्रामीण पर्यटन
उत्तराखंड सरकार ने “होमस्टे योजना” शुरू की है, जिसके तहत ग्रामीण परिवार अपने घरों को पर्यटकों के लिए खोल रहे हैं। इससे न केवल पर्यटक स्थानीय संस्कृति से जुड़ते हैं, बल्कि ग्रामीणों को भी आर्थिक मजबूती मिलती है। चौखुटिया, भीमताल, स्यालदे, और खाती जैसे गांव अब ग्रामीण पर्यटन के मॉडल बन चुके हैं।
ईको-टूरिज्म और आध्यात्मिक संतुलन
राज्य में अब ईको-टूरिज्म को बढ़ावा दिया जा रहा है, ताकि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना पर्यटन का विकास हो। साथ ही, योग, ध्यान, प्राकृतिक चिकित्सा और आयुर्वेदिक पर्यटन को भी प्राथमिकता दी जा रही है। ऋषिकेश, हरिद्वार और कौसानी जैसे स्थान अब वेलनेस डेस्टिनेशन के रूप में भी विश्व पटल पर प्रसिद्ध हैं।
पर्यटन से अर्थव्यवस्था तक का सफर
उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था में पर्यटन का योगदान लगभग 25 प्रतिशत तक है। हर साल औसतन चार से पांच करोड़ यात्री और पर्यटक राज्य का भ्रमण करते हैं। सरकार चारधाम महामार्ग परियोजना, रिवर फ्रंट डेवलपमेंट और नए एयर कनेक्टिविटी प्रोजेक्ट्स के ज़रिए पर्यटन को और सशक्त बना रही है।
उत्तराखंड के लिए प्रकृति वरदान है, लेकिन यह वरदान जिम्मेदारी के साथ आता है। 2013 की केदारनाथ आपदा ने दिखा दिया कि विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन कितना जरूरी है। पहाड़ों पर अनियोजित निर्माण, सड़कों का अत्यधिक विस्तार, और नदियों के किनारे होटल निर्माण जैसी गतिविधियाँ पारिस्थितिकी तंत्र को कमजोर कर रही हैं। राज्य सरकार ने अब “Green Uttarakhand Mission” और “Chardham All Weather Road” जैसी योजनाएं लागू की हैं, जिनमें पर्यावरण संरक्षण पर खास ध्यान दिया जा रहा है।
अर्थव्यवस्था और पलायन की चुनौती
उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था मुख्यतः कृषि, पर्यटन, जलविद्युत और सेवा क्षेत्र पर आधारित है। परंतु एक गंभीर समस्या ग्रामीण पलायन है, जहां लाखों लोग रोजगार की तलाश में मैदानों की ओर जा रहे हैं, सैकड़ों गांव खाली हो चुके हैं, जिन्हें “भूतिया गांव” कहा जाने लगा है। सरकार “रिवर्स माइग्रेशन नीति” के तहत स्वरोजगार, होमस्टे और जैविक खेती को बढ़ावा दे रही है। महिलाएँ स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से जैविक उत्पाद, हस्तशिल्प और फूलों की खेती कर रही हैं।
योग, आयुर्वेद और शिक्षा का केंद्र
ऋषिकेश को “विश्व की योग राजधानी” कहा जाता है। यहां हर साल अंतरराष्ट्रीय योग महोत्सव आयोजित होता है, जिसमें 100 से अधिक देशों के लोग भाग लेते हैं। हरिद्वार और देहरादून में आयुर्वेदिक अनुसंधान संस्थान और विश्वविद्यालय योग, प्राकृतिक चिकित्सा और जैविक विज्ञान को प्रोत्साहित कर रहे हैं। IIT रुड़की, वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट, Doon University जैसे संस्थान राज्य को शिक्षा और अनुसंधान की दिशा में अग्रणी बना रहे हैं।
आत्मनिर्भर उत्तराखंड की राह
उत्तराखंड की आत्मा उसकी संस्कृति, प्रकृति और सरलता में है। भविष्य के लिए आवश्यक है कि यह राज्य अपनी मूल पहचान को खोए बिना आधुनिक विकास की ओर बढ़े। इको-टूरिज्म, जैविक खेती, वन आधारितउद्योग और नवीकरणीय ऊर्जा राज्य के लिए स्वर्णिम अवसर हैं। युवा पीढ़ी को पहाड़ों में ही रोजगार और शिक्षा के अवसर मिलें, यह सबसे बड़ा लक्ष्य होना चाहिए।
देवभूमि उत्तराखंड- जहां हर सांस में ईश्वर का वास है
उत्तराखंड से लौटते हुए हर यात्री-सैलानी के मन में बस यही भाव उमड़ता है-“अब मुझे और कुछ नहीं चाहिए,
उत्तराखंड आज भले छोटा राज्य हो, लेकिन उसकी आत्मा विराट है। यहां की मिट्टी में आस्था है, हवा में शांति है, और जल में जीवन की पवित्रता। जैसे-जैसे यह राज्य आगे बढ़ रहा है, वैसे-वैसे यह देश को यह सिखा रहा है कि विकास केवल ऊंची इमारतें नहीं, बल्कि ऊंचे संस्कार भी हैं। “जहां हिमालय झुककर धरती को चूमता है,

