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November 14, 2025

निजता बनाम पारदर्शिता: क्या RTI का हक़ कमजोर हो रहा है?

The CSR Journal Magazine

 

डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन एक्ट के साथ RTI में बदलाव ! Digital Personal Data Protection Act, 2023 (DPDP अभिनियम) को लगभग दो वर्ष बाद अधिसूचित किया गया है। इस एक्ट के साथ ही Right to Information Act, 2005 (RTI Act) में भी तत्काल प्रभाव से कुछ संशोधन कर दिए गए हैं। अधिकांश प्रावधानों का लागू होना देर से होगा जो 2026 के अंत से 2027 के मध्य तक चरणबद्ध तरीके से प्रभाव में आएंगे। संशोधन के कारण पारदर्शिता और सूचना अधिकार तथा निज-गोपनीयता के बीच संतुलन पर बहस तेज हो गई है।

RTI Act तथा नियमों का अवलोकन

DPDP अभिनियम: मूल संरचना- यह अधिनियम डिजिटल व्यक्तिगत डेटा के प्रसंस्करण को नियंत्रित करता है। यानी जहां व्यक्तिगत डेटा ऑनलाइन एकत्रित, स्टोर या इस्तेमाल हो रहा है। अधिनियम का उद्देश्य है व्यक्तियों के निज-गोपनीयता अधिकार की रक्षा करना और एक ही समय में डेटा का न्यायसंगत उपयोग सुनिश्चित करना। उदाहरण के लिए, यदि किसी व्यक्ति का डेटा भारत में किसी सेवा के लिए उपलब्ध कराया जा रहा है, तो अधिनियम उस डेटा पर लागू हो सकता है, भले ही वह डेटा भारत के बाहर संसाधित हो रहा हो।

RTI नियम एवं लागू होने की समय-रेखा

हाल ही में Digital Personal Data Protection Rules, 2025 जारी की गई हैं, जो इस अधिनियम को व्यावहारिक रूप से लागू करने के लिए ढांचा प्रदान करती हैं। इसमें विशेष रूप से बच्चों के डेटा की सुरक्षा, बड़े डेटा हैंडलर्स (Significant Data Fiduciaries) के लिए ऑडिट व समीक्षा जैसी बातें शामिल हैं। समय-रेखा के अनुसार कुछ संशोधन तुरंत प्रभाव से लागू हो गए हैं, जैसे कि RTI Act में बदलाव। अन्य महत्वपूर्ण प्रावधान जैसे कि डेटा अधिकारी (Data Protection Officer) नियुक्त करना, बड़े डेटा हैंडलर्स के लिए अनुपालन आदि नवम्बर 2026 तक लागू होंगे। पूरे अनुपालन का दायरा मई 2027 तक बढ़ सकता है।

जब पारदर्शिता और गोपनीयता आमने-सामने हों- RTI Act में संशोधन और DPDP अधिनियम

भारत में डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन एक्ट (DPDP) का लागू होना तकनीकी युग की एक आवश्यक उपलब्धि है। दुनिया तेजी से डेटा-निर्भर हो रही है और भारत जैसे 1.4 अरब लोगों के देश में व्यक्तिगत जानकारी की सुरक्षा अब विलासिता नहीं, मूलभूत ज़रूरत बन चुकी है। इस दृष्टि से यह अधिनियम निश्चित रूप से एक बड़ा सुधार है। लेकिन समस्या तब पैदा होती है जब गोपनीयता का नाम लेकर पारदर्शिता को पीछे धकेल दिया जाए।

निजता महत्वपूर्ण है, पर लोकतांत्रिक जवाबदेही उससे बड़ी

2017 के सुप्रीम कोर्ट के Puttaswamy फ़ैसले ने निजता को मौलिक अधिकार घोषित किया था। यह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था की परिपक्वता का प्रतीक था। परंतु लोकतंत्र का दूसरा स्तंभ, पारदर्शिता भी उतना ही अनिवार्य है। RTI Act ने दो दशकों में जो सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन किए, वे किसी क्रांति से कम नहीं थे। जैसे-
राशन घोटाले उजागर हुए,
फर्जी लाभार्थियों की पहचान हुई,
ठेकों में हेरफेर सामने आई,
सरकारी योजनाओं की वास्तविकता दिखी, और आम नागरिक पहली बार सरकार से सीधे सवाल पूछने की स्थिति में आया। RTI Act जनता का अधिकार था- सत्ता की जवाबदेही तय करने का सबसे प्रभावी औजार। अब, DPDP के माध्यम से किए गए संशोधन इस औजार की धार कुंद कर सकते हैं। संशोधन का सार यह है कि अब कोई भी “व्यक्तिगत सूचना” RTI के दायरे से बाहर की जा सकती है। समस्या यह नहीं कि निजी जानकारी की रक्षा हो! यह तो स्वागत योग्य है। समस्या यह है कि ‘सार्वजनिक हित’ अपवाद को कमजोर कर दिया गया है। यानी, भले ही किसी जानकारी का खुलासा भ्रष्टाचार रोकने या सरकारी अक्षमता उजागर करने के लिए आवश्यक हो, उसे निजी बताकर छिपाया जा सकता है। यह लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक खतरनाक मिसाल है।

पारदर्शिता की कीमत पर सुरक्षा की दलील

यह सच है कि डेटा सुरक्षा कानून आधुनिक समय की आवश्यकता है। लेकिन जब सरकारें अपने ही डेटा संग्रह को व्यापक छूट दे दें, और जनता की जांच-पड़ताल पर नई दीवारें खड़ी कर दें, तो यह चिंता स्वाभाविक है। डेटा संरक्षण बोर्ड की नियुक्ति प्रक्रिया पूरी तरह कार्यपालिका पर निर्भर है। सरकारी विभाग डेटा संरक्षण के कई प्रावधानों से मुक्त हैं और अब RTI की पहुंच भी सीमित ! इन सबका जोड़ यह संकेत देता है कि सरकार अपनी निगाह तो बढ़ा रही है, पर अपनी जिम्मेदारी से दूर जा रही है।

पत्रकारिता पर बढ़ेगा असर

एक लोकतंत्र तब मजबूत होता है जब मीडिया स्वतंत्र और सक्षम हो। RTI इस स्वतंत्रता की रीढ़ थी। यदि पत्रकार ठेकों के लाभार्थी, बैंक डिफॉल्टरों के नाम, सरकारी कर्मियों की नियुक्ति व पदोन्नति के रिकॉर्ड, या लाभार्थी योजनाओं में घोटाले नहीं खोज पाएंगे, तो सत्ता की निगरानी कौन करेगा? गोपनीयता का अधिकार कभी भी भ्रष्टाचार की ढाल नहीं बनना चाहिए।

संतुलन बनाना ही समाधान है

भारत को दो चरम सीमाओं में से एक को चुनने की आवश्यकता नहीं है। न तो पूर्ण पारदर्शिता जो व्यक्तिगत निजता को कुचल दे, और न ही ऐसा गोपनीयता ढांचा जो सार्वजनिक जवाबदेही को समाप्त कर दे। सही मॉडल वही है जहां निजी जानकारी सुरक्षित रहे, पर सार्वजनिक हित में जानकारी सुलभ हो, सरकारें नागरिकों को जवाबदेह रहें, और लोकतांत्रिक निगरानी लगातार जारी रहे। DPDP और RTI Act संशोधन के बाद यह संतुलन डगमगाता दिख रहा है। आगे की राह अदालतों, सूचना आयोगों और नागरिक समाज की सक्रियता पर निर्भर करेगी।

भारत किस दिशा में बढ़ रहा है?

DPDP और RTI संशोधन साथ में यह संकेत देते हैं कि भारत एक ऐसे मॉडल की ओर जा रहा है जहां निजता की रक्षा मजबूत होगी (जो सही है), लेकिन पारदर्शिता सीमित हो सकती है (जो लोकतंत्र की आत्मा को कमजोर कर सकता है)। संवेदनशील लोकतंत्र का मंत्र है- “अधिक पारदर्शिता + बेहतर गोपनीयता संरक्षण” न कि “अधिक गोपनीयता + कम पारदर्शिता”।
आगे के महीनों में अदालतें, सूचना आयोग, सिविल सोसाइटी और मीडिया, सभी इस संतुलन को पुनर्स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। डेटा सुरक्षा का कानून जितना आवश्यक है, उतना ही लोकतंत्र की रोशनी भी जरूरी है। निजता की रक्षा की जानी चाहिए लेकिन सत्ता से सवाल पूछने के अधिकार की कीमत पर नहीं। लोकतंत्र तभी मजबूत रहता है जब सरकारें यह स्वीकारें कि सूचना जनता की संपत्ति है, और उसकी सुरक्षा व उपलब्धता दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यही वह संतुलन है जिसे खोना नहीं चाहिए।
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