करीब दो दशक पहले सामाजिक कार्यकर्ता ललिता परांजपे ने महसूस किया कि सदाशिव पेठ की कई शिक्षित महिलाएँ घर तक सीमित हैं। उन्होंने सोचा क्यों न कढ़ाई-कला के ज़रिए उन्हें आत्मनिर्भर बनाया जाए? इसी सोच से शुरू हुई ललिता परांजपे एम्ब्रॉयडरी क्ला सेस ने अब एक आंदोलन का रूप ले लिया है। शुरुआत सिर्फ 10 महिलाओं से हुई थी, आज 300 से ज़्यादा महिलाएँ यहाँ सीखती और सिखाती हैं। कढ़ाई-कला सिखाने वाली इन कक्षाओं ने सैकड़ों महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाया ! परंपरा, आत्मसम्मान और रोज़गार का संगम बनीं ललिता परांजपे की पहल
ललिता परांजपे वाड़ा- पुरानी हवेली, नई सोच
पुणे की संकरी गलियों में स्थित ललिता परांजपे वाडा दूर से देखने पर एक पारंपरिक मराठी हवेली लगती है। लकड़ी की नक्काशीदार खिड़कियां, लाल टाइलों की छत, और दीवारों पर पुरानी यादों की खुशबू ! पर जैसे ही अंदर कदम रखते हैं, वहां हवा में सुई-धागे की खनक सुनाई देती है, दर्जनों महिलाएं रंग-बिरंगे धागों से कपड़ों पर सपने बुन रही हैं। पुणे के पुराने सांस्कृतिक केंद्र सदाशिव पेठ की गलियों में स्थित ललिता परांजपे वाडा आज केवल एक ऐतिहासिक इमारत नहीं, बल्कि महिलाओं की नई पहचान का प्रतीक बन गई है। यहां चल रही कढ़ाई और हस्तकला की कक्षाएं सैकड़ों महिलाओं के जीवन में परिवर्तन की डोर बुन रही हैं। इन कक्षाओं ने घरेलू और आर्थिक रूप से सीमित महिलाओं को न केवल नई कला सिखाई है, बल्कि आत्मनिर्भर बनने का साहस भी दिया है।
पुरानी हवेली में नई उम्मीदों का संसार
सदाशिव पेठ का यह वाडा (पुराना हवेली जैसा घर) कभी एक पारंपरिक मराठी परिवार का निवास हुआ करता था। आज यह “महिला सशक्तिकरण का केंद्र” बन चुका है। यहां रोज़ सुबह और दोपहर के सत्रों में महिलाएं रंग-बिरंगे धागों, मणियों और कापड़ों के साथ अपनी कल्पनाओं को आकार देती हैं। ‘हर टांका एक कहानी कहता है ,’ कहती हैं मुख्य प्रशिक्षिका सुषमा कुलकर्णी, जो पिछले 15 वर्षों से इस परियोजना से जुड़ी हैं।
कैसे हुई शुरुआत
करीब दो दशक पहले, सामाजिक कार्यकर्ता ललिता परांजपे ने देखा कि सदाशिव पेठ और आसपास के क्षेत्रों की कई महिलाएं पढ़ी-लिखी होने के बावजूद आर्थिक रूप से निर्भर हैं। उन्होंने सोचा कि क्यों न पारंपरिक महाराष्ट्रीयन कढ़ाई कला को आधुनिक रूप देकर इन महिलाओं को रोज़गार से जोड़ा जाए। इसी विचार से “ललिता परांजपे एम्ब्रॉयडरी क्लासेस” की नींव रखी गई। शुरुआत में मात्र 10 महिलाएं थीं। आज यह संख्या 300 से अधिक पहुंच चुकी है।
कला, जो बन गई रोज़गार
ललिता परांजपे वाड़ा में केवल पारंपरिक कढ़ाई नहीं, बल्कि आधुनिक डिज़ाइन तकनीकें भी सिखाई जाती हैं, जैसे Zardosi Work, Mirror Work, Mughal Embroidery, Kantha Stitch और Machine Embroidery। यहां प्रशिक्षण लेने वाली महिलाएं अब स्वयं छोटे व्यवसाय चला रही हैं। कोई बुटीक खोल चुकी है, कोई ऑनलाइन हैंडमेड उत्पाद बेच रही है, तो कोई फैशन डिजाइन संस्थानों में प्रशिक्षिका बन गई है।श्रीमती रेखा जोशी, जो पहले गृहिणी थीं, बताती हैं, “पहले मुझे लगता था कि घर से बाहर निकलना मुश्किल है। पर यहां आकर सुई-धागे ने मुझे पहचान दी। अब मैं हर महीने 15 से 20 हज़ार रुपये कमाती हूं।”
सांस्कृतिक धरोहर से जुड़ी शिक्षा
ललिता परांजपे वाडा की कक्षाओं में केवल कला नहीं सिखाई जाती, बल्कि इसके इतिहास और परंपरा के बारे में भी बताया जाता है। सदाशिव पेठ पुणे का वह इलाका है जहां पुरानी मराठी संस्कृति आज भी जीवंत है। वारकरी संप्रदाय के भजन, पैठणी साड़ियां और कला-शिल्प की परंपरा ! ललिता परांजपे वाडा ने इस संस्कृति को जीवित रखते हुए आधुनिक युग की आवश्यकताओं के साथ जोड़ा है।
डिजिटल युग में कला का विस्तार
कोविड महामारी के दौरान जब सब कुछ ठप पड़ा, तब इन कक्षाओं ने ऑनलाइन वर्कशॉप्स शुरू कीं। देशभर से महिलाएं वर्चुअल प्लेटफ़ॉर्म पर जुड़ीं। अब इनकी YouTube और Instagram पेजों पर कढ़ाई सिखाने के वीडियो लाखों बार देखे जा चुके हैं। आज ललिता परांजपे की परियोजना ‘Skill India’ और ‘Make in India’ जैसी सरकारी पहलों से भी जुड़ चुकी है।
ललिता परांजपे वाडा- सशक्तिकरण की असली परिभाषा
यहां आने वाली महिलाओं में से कई विधवा या आर्थिक रूप से संघर्षरत रही हैं। ललिता परांजपे ट्रस्ट न केवल उन्हें प्रशिक्षण देता है, बल्कि मुफ़्त किट, कपड़ा, धागे और डि ज़ाइन टेम्पलेट्स भी उपलब्ध कराता है। कुछ महिलाओं को माइक्रो-लोन और सेल्फ हेल्प ग्रुप्स (SHGs) से जोड़कर उनका कारोबार खड़ा करने में मदद की गई है। “यह सिर्फ सिलाई नहीं, आत्मसम्मान की सिलाई है,” कहती हैं 55 वर्षीय प्रतिभा कदम, जो अब अपनी बेटी को भी यही कला सिखा रही हैं।
विदेशों में भी पहुंच रहा पुणे का एम्ब्रॉयडरी ब्रांड
इन महिलाओं द्वारा बनाए गए उत्पाद अब पुणे, मुंबई और नागपुर के बाजारों के साथ-साथ लंदन और दुबई तक भेजे जा रहे हैं। कढ़ाईदार दुपट्टे, कुशन कवर, हैंडबैग और साड़ियों की भारी मांग है। इससे न केवल स्थानीय कला को पहचान मिली है, बल्कि पुणे के सदाशिव पेठ की पहचान “एम्ब्रॉयडरी हब” के रूप में उभर रही है। ललिता परांजपे ट्रस्ट अब इस मॉडल को महाराष्ट्र के अन्य शहरों, कोल्हापुर, सांगली और नासिक तक फैलाने की योजना बना रहा है। साथ ही, नई पीढ़ी की लड़कियों को आकर्षित करने के लिए फैशन-टेकआधारित कोर्स शुरू किए जा रहे हैं जिनमें पारंपरिक कढ़ाई और आधुनिक डिज़ाइन सॉफ़्टवेयर दोनों सिखाए जाएंगे।
कला से आत्मनिर्भरता तक: ललिता परांजपे वाडा बन रहा महिलाओं की नयी पहचान
भारत के सामाजिक परिदृश्य में महिला सशक्तिकरण की बातें तो बहुत होती हैं, परंतु जब कोई छोटी-सी पहल असल ज़िंदगी में बदलाव लाती है, तभी उसका प्रभाव स्थायी होता है। पुणे के सदाशिव पेठ में स्थित ललिता परांजपे वाडा ऐसी ही एक प्रेरणादायक मिसाल है जहां सुई-धागे से न केवल कपड़े सजते हैं, बल्कि जीवन भी संवरते हैं।भारत में सदियों से हस्तकला, बुनाई और कढ़ाई केवल एक कला नहीं, बल्कि संस्कृति का हिस्सा रही है। लेकिन आधुनिकता की दौड़ में ये पारंपरिक कलाएं धीरे-धीरे हाशिए पर चली गईं। ललिता परांजपे वाडा ने इस भूली हुई परंपरा को नए युग से जोड़ा ‘कला को रोज़गार में बदलने की शक्ति’ के रूप में ! यहां सिखाई जाने वाली कढ़ाई, ज़री, मिरर वर्क, और डिज़ाइन टेक्निक ने सैकड़ों महिलाओं को अपने पैरों पर खड़ा किया है। वे महिलाएं जो कभी घर की चारदीवारी में सिमटी थीं, आज छोटे उद्यम चला रही हैं, ऑनलाइन उत्पाद बेच रही हैं और अपने परिवार की रीढ़ बन चुकी हैं।
महिला सशक्तिकरण का वास्तविक अर्थ
अक्सर “महिला सशक्तिकरण” को केवल शिक्षा या नौकरी तक सीमित मान लिया जाता है। लेकिन असली सशक्तिकरण वह है जो आत्मनिर्भरता और आत्मसम्मान दोनों दे। ललिता परांजपे वाडा का मॉडल यही करता है। यह महिलाओं को केवल हुनर नहीं सिखाता, बल्कि उन्हें विश्वास दिलाता है कि वे अपने निर्णय स्वयं ले सकती हैं। यहां की महिलाएं अब ‘कमाने वाली’ ही नहीं, बल्कि निर्माण करने वाली भी हैं, अपनी कला, पहचान और भविष्य की।
आर्थिक स्वतंत्रता से सामाजिक बदलाव
जब किसी महिला के हाथ में उसकी मेहनत की कमाई आती है, तो वह केवल आर्थिक रूप से नहीं, मानसिक रूप से भी स्वतंत्र होती है। वह अपने बच्चों की शिक्षा में निवेश करती है, परिवार की ज़रूरतों को समझदारी से पूरा करती है, और समाज में अपनी आवाज़ उठाने का साहस पाती है। ललिता परांजपे वाडा की महिलाएं इसका प्रमाण हैं। कई महिलाएं अब सेल्फ हेल्प ग्रुप्स (SHGs) की सदस्य हैं, जो अन्य महिलाओं को प्रशिक्षित करती हैं। यह “विकास की श्रंखला” है जो आत्मनिर्भरता से आत्मविश्वास तक फैल रही है।
कला आधारित स्वरोजगार: भारत के लिए एक नया रास्ता
भारत में महिलाओं के लिए रोज़गार का सबसे बड़ा अवसर “कला आधारित स्वरोजगार” में निहित है। यह न केवल कौशल विकास (Skill Development) का साधन है, बल्कि सांस्कृतिक अर्थव्यवस्था ( Cultural Economy) का भी हिस्सा है। यदि हर शहर में ललिता परांजपे वाडा जैसी पहल को प्रोत्साहन मिले, तो लाखों महिलाएं घर बैठे आत्मनिर्भर बन सकती हैं। यह मॉडल सरकार की ‘स्किल इंडिया’, ‘मेक इन इंडिया’ और ‘वोकल फॉर लोकल’ जैसी योजनाओं को जमीनी स्तर पर साकार करता है।
डिजिटल युग की नई दिशा
इन महिलाओं ने यह भी साबित किया है कि परंपरा और तकनीक साथ चल सकती हैं। ऑनलाइन क्लासेस, सोशल मीडिया मार्केटिंग, और ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म के ज़रिए उन्होंने अपनी कला को सीमाओं से परे पहुंचा दिया है। यह वही दिशा है जो भारत की डिजिटल महिला शक्ति को वैश्विक मंच तक ले जा सकती है। ललिता परांजपे वाडा केवल एक इमारत नहीं, यह एक विचार है। एक ऐसा विचार जो कहता है कि “कला कोई शौक नहीं, वह शक्ति है”। यहां हर सुई की नोक पर मेहनत, आत्मसम्मान और स्वावलंबन की कहानी बुनी जाती है। ललिता परांजपे वाडा की यह पहल दिखाती है कि परंपरा और प्रगति एक-दूसरे के वि रोधी नहीं, बल्कि पूरकहैं। यहां सुई-धागे से सिर्फ कपड़ा नहीं, बल्कि आत्मनिर्भरता की कहानी बुनी जाती है।
महिला सशक्तिकरण का जीवंत उदाहरण
पुणे के दिल में बसी यह पुरानी हवेली आज नई सोच का प्रतीक है जहां हर महिला अपने हाथों से अपने भविष्य की डोर बुन रही है। यह केवल एक प्रशिक्षण केंद्र नहीं, बल्कि “महिला सशक्तिकरण का जीवं त उदाहरण” है। सरकारों के योजनात्मक प्रयास तब ही सफल होते हैं जब समाज की जमीनी पहलें उनसे जुड़ती हैं। ललिता परांजपे वाडा जैसी पहलें हमें याद दिलाती हैं कि सशक्तिकरण किसी नारे से नहीं, बल्कि कौशल, आत्मविश्वास औरसहयोग से आता है। अगर हर शहर, हर समुदाय इस सोच को अपनाए, तो भारत का हर कोना “महिला सशक्तिकरण” का केंद्र बन सकता है। और तब हम गर्व से कह सकेंगे — “हर घर में है एक कलाकार, हर कलाकार है एक सशक्त महिला।”
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