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September 14, 2025

हिंदी दिवस पर जानिये, क्यों सिमटकर रह गई भारत में ‘हिंदी’ एक ‘दिवस’ पर 

The CSR Journal Magazine
हिंदी दिवस का जश्न पहली बार 1949 में शुरू हुआ जब भारत की संविधान सभा ने देवनागरी लिपि में लिखी गई हिंदी को भारतीय गणतंत्र की आधिकारिक भाषा के रूप में 14 सितंबर को अपनाया था, हालांकि हिंदी को कभी भारत की राष्ट्रभाषा के तौर पर मान्यता नहीं मिली।

हिंदुस्तान में हिन्दी ने लड़ी अस्तित्व की लंबी लड़ाई

हिंदी…दुनिया की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषाओं में से एक है, लेकिन अपने ही देश में यह राष्ट्रभाषा के अस्तित्व के लिए लड़ रही है। ये विडंबना है कि राजभाषा हिंदी को जब भी राष्ट्रभाषा बनाने की बात हुई, इसके विरोध में स्वर उठे। 1918 में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने की वकालत की थी। हिंदी से जुड़ा का विवाद आज का नहीं है, बल्कि आजादी से भी पहले का है। महात्मा गांधी 1915 में दक्षिण अफ्रीका से भारत आए और तीन साल बाद यानी साल 1918 में उन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की बात कही थी। गांधीजी के अलावा पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की वकालत की थी। लेकिन विरोध के स्वर तब भी उठे थे। फिर अंग्रेजों की विदाई के बाद जब देश आजाद हुआ, तो आजादी के दो साल बाद हिंदी को राष्ट्रभाषा नहीं, बल्कि राजभाषा का दर्जा 14 सितंबर 1949 को मिला था। लेकिन राष्ट्रभाषा को लेकर लंबी बहसें चली और नतीजा कुछ नहीं निकला।

संविधान बनाते समय खड़ा हुआ विवाद

1946-1949 तक संविधान को बनाने की तैयारियां शुरू कर दी गई। संविधान में हर पहलू को लंबी बहस से होकर गुजरना पड़ा, ताकि समाज के किसी भी तबके को ये ना लगे कि संविधान में उसकी बात नहीं कही गई है। लेकिन सबसे ज्यादा विवादित मुद्दा रहा कि संविधान को किस भाषा में लिखा जाना है, किस भाषा को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा देना है! इसे लेकर सभा में एक मत पर आना थोड़ा मुश्किल लग रहा था, क्योंकि दक्षिण के प्रतिनिधि इस पर अपनी विरोध प्रकट कर रहे थे।

1965 तक अंग्रेजी में कामकाज पर बनी थी सहमति

इतिहासकार रामचंद्र गुहा की किताब ‘India After Gandhi’ में एक जगह उल्लेखित है कि मद्रास का प्रतिनिधित्व कर रहे टीटी कृष्णामचारी ने कहा कि अगर यूपी के दोस्त हिंदी साम्राज्यवाद की बात करें, तो हमारी यानी दक्षिण भारतीयों की समस्या और ना बढ़ाएं। उन्होंने कहा कि यूपी के मेरे दोस्त पहले यह तय कर लें कि उन्हें अखंड भारत चाहिए या हिंदी भारत। लंबी बहस के बाद सभा इस फैसले पर पहुंची कि भारत की राजभाषा हिंदी (देवनागिरी लिपि) होगी, लेकिन संविधान लागू होने के 15 साल बाद यानि 1965 तक सभी राजकाज के काम अंग्रेजी भाषा में किए जाएंगे।

57 साल पहले हुई थी हिंदी को लेकर हिंसा

फिर आया 1965 का साल। उस समय लाल बहादुर शास्त्री देश के प्रधानमंत्री थे और व्यक्तिगत रूप से हिंदी के हिमायती थे। उन्होंने हिंदी को देश की भाषा बनाने का निर्णय ले लिया था। हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने की कोशिश की गई, तो दक्षिण भारतीय राज्यों में असंतोष बढ़ गया। यह असंतोष और तीव्र हुआ। इसके चलते हिंसक झड़पें होने लगीं। इसमें दो लोगों की मौत भी हो गई थी। दरअसल, तमिलनाडु में हिंदी को लेकर विरोध 1937 से ही रहा, जब चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की सरकार ने मद्रास प्रांत में हिंदी को लाने का समर्थन किया था, पर द्रविड़ कणगम (डीके) ने इसका विरोध किया था। लेकिन 1965 में जब शास्त्रीजी ने इस पर फैसला किया तो हिंसक प्रदर्शन हुए। इसे देखते हुए कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने लचीला रूख दिखाया और ऐलान किया गया कि राज्य अपने यहां होने वाले सरकारी कामकाज के लिए कोई भी भाषा चुन सकता है। फैसले में कहा गया कि केंद्रीय स्तर पर हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं का इस्तेमाल किया जाएगा और इस तरह हिंदी कड़े विरोध के बाद देश की सिर्फ राजभाषा बनकर ही रह गई, राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई।

दक्षिण भारतीय क्यों करते हैं हिंदी का विरोध

विशेषज्ञों का कहना है कि विरोध प्रदर्शन इसलिए किया जाता रहा है कि इसके बिना हिंदी को संरक्षण देने वाले लोग मज़बूत हो जाते। दरअसल, दक्षिण भारतीय अपनी भाषाई पहचान को अन्य लोगों की तुलना में अधिक गंभीरता से लेते हैं। तमिल भाषा और संस्कृति से प्यार करने वाले ये लोग थोपी गई भाषा पर मुखर हो उठते हैं।

हिंदी को सम्मान देने का एक दिन

यदि आप इसे पढ़ सकते हैं, तो आप दुनिया भर में हिंदी बोलने वाले 60 करोड़ लोगों में से एक हैं। हिंदी एक समृद्ध ऐतिहासिक और सांस्कृतिक भाषा है, और हालांकि इसे बहुत से लोग बोलते हैं, फिर भी हमारे दैनिक जीवन में इसका प्रयोग धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। वैसे तो यह गिरावट चिंताजनक नहीं लगती, लेकिन यह चिंताजनक है ज़रूर! यही कारण है कि हम हिंदी दिवस मनाते हैं। यह वह दिन है जब हम हिंदी भाषा को संजोने और उसे आदरांजलि देने के लिए रुकते हैं।

हिंदी दिवस भारत के विशाल और विविध परिदृश्य में लोगों को एकजुट करता है

1918 में, महात्मा गांधी, जिन्हें व्यापक रूप से ‘फादर ऑफ नेशन’ माना गया था, ने हिंदी साहित्य पर एक सम्मेलन में भाग लिया था और हिंदी को भारत की राष्ट्रीय भाषा बनाने के लिए कहा था। उन्होंने आगे बढ़कर इसे राष्ट्रीय भाषा भी कहा था। 14 सितंबर 1949 को अंग्रेजी के साथ-साथ, हिंदी को संविधान सभा द्वारा भारत की आधिकारिक भाषा के रूप में स्वीकार किया गया था। 1953 से भारत में इस भाषा के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए 14 सितंबर को प्रतिवर्ष हिंदी दिवस मनाया जाने लगा।

भारत की राष्ट्र भाषा क्यों नहीं है हिंदी

भारत, विविधताओं से भरा देश है, जहां अनेक भाषाएं और बोलियां बोली, लिखी और पढ़ी जाती हैं। सभी भाषाओं को एक समान सम्‍मान और आदर मिला हुआ है। देशवासी पूरे देश में अपनी मातृभाषा बोलने, लिखने और पढ़ने के लिए स्‍वतंत्र हैं। इसलिए भारत में किसी भी एक भाषा को राष्‍ट्रभाषा का दर्जा नहीं दिया गया है। इसका एक बड़ा कारण नौकरियों के अवसर भी हैं, क्योंकि भारत की एक बड़ी आबादी ऐसी भी है जो न तो हिंदी बोलती है और न ही हिंदी समझती है। अगर हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया गया तो ये आबादी नौकरियों के अवसर से वंचित रह सकती है, जैसा ब्रिटिश राज में फारसी की जगह अंग्रेजी को अपनाने के दौरान हुआ था। हालांकि भारत के संविधान के भाग 17 के अनुच्‍छेद 343(1) के तहत देश में हिंदी और देवनागरी लिपि को राजभाषा का दर्जा प्राप्त है। 14 सितंबर 1949 को हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया था, 1953 से राजभाषा प्रचार समिति द्वारा हर साल 14 सितंबर को हिंदी द‍िवस का आयोजन भी किया जाता है।

दक्षिण भारतीय राज्यों में आज भी विदेशी है हिंदी

भारत के उत्तरी भाग के अलावा, पश्चिमी भारत के राज्यों ने हिंदी के साथ-साथ उनकी मूल भाषा बोली और समझी। लेकिन भारत के दक्षिणी और उत्तर-पूर्वी राज्यों ने हिंदी को एक विदेशी भाषा के रूप में देखा। यही कारण है कि स्वतंत्रता के बाद हिंदी को भारत की राष्ट्रीय भाषा घोषित नहीं किया गया। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 351 के अनुसार, हिंदी भाषा के प्रसार को बढ़ावा देना केंद्र सरकार का कर्तव्य है, ताकि वह भारत की समग्र संस्कृति के सभी तत्वों के लिए अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके।

हिंदी से ज़्यादा बोली जाती है अंग्रेज़ी

यह कहना पूरी तरह सही नहीं है कि हिंदी भाषा पूरी दुनिया में अंग्रेजी से ज्यादा बोली जाती है। हालांकि हिंदी एक व्यापक रूप से बोली जाने वाली भाषा है, लेकिन अंग्रेजी का वैश्विक प्रभाव और उपयोग हिंदी से काफी अधिक है।
हिंदी भाषा:हिंदी बोलने वालों की संख्या लगभग 60 करोड़ है, जिसमें मातृभाषा और दूसरी भाषा के रूप में बोलने वाले शामिल हैं। हिंदी मुख्य रूप से भारत और नेपाल में बोली जाती है और प्रवासी भारतीय समुदायों द्वारा भी इस्तेमाल की जाती है।
अंग्रेजी भाषा:अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या 150 करोड़ से अधिक है। यह 70 से अधिक देशों में या तो आधिकारिक भाषा है या व्यापक रूप से इस्तेमाल होती है।अंग्रेजी अंतरराष्ट्रीय व्यापार, विज्ञान, शिक्षा, और इंटरनेट की प्रमुख भाषा है। इससे साफ है कि अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या हिंदी बोलने वालों से कहीं अधिक है।

हिंदी से ज़्यादा अंग्रेज़ी क्यों बोलते हैं भारतीय

ब्रिटिश शासन का प्रभाव: भारत पर ब्रिटिश शासन (1757-1947) के दौरान अंग्रेजी को प्रशासन, न्याय, और शिक्षा की भाषा बना दिया गया। यह प्रभाव आज भी जारी है।
वैश्विक भाषा: अंग्रेजी दुनिया में व्यापार, शिक्षा, और विज्ञान की मुख्य भाषा है। भारत जैसे उभरते हुए देश में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संपर्क बनाए रखने के लिए अंग्रेजी आवश्यक है।
कॉरपोरेट और तकनीकी क्षेत्र: भारत में ज्यादातर मल्टीनेशनल कंपनियों और तकनीकी क्षेत्र में अंग्रेजी में ही कामकाज होता है।
शिक्षा का माध्यम: भारत में कई प्रतिष्ठित शैक्षिक संस्थान, जैसे IITs और IIMs, अंग्रेजी में शिक्षा प्रदान करते हैं।
सामाजिक प्रतिष्ठा: कुछ लोग अंग्रेजी बोलने को आधुनिकता और प्रतिष्ठा से जोड़कर देखते हैं।
मल्टीलिंगुअल संस्कृति: भारतीय लोग अक्सर कई भाषाओं में पारंगत होते हैं। अंग्रेजी एक ऐसी भाषा है जो अलग-अलग भाषाई समूहों को आपस में जोड़ने में मदद करती है।

अंग्रेज़ी शासनकाल का प्रभाव

हम भारतीय हैं और हमारी भाषा हिंदी है लेकिन फिर भी हम पश्चिमी संस्कृति एवं अंग्रेजी भाषा से काफी प्रभावित हुए हैं। यह प्रभाव उस काल में अत्याधिक पड़ा जब अंग्रेजी हुकूमत भारत पर शासन कर रही थी। हम भारतीय यह तो कहते हैं कि हम हिंदी बोलते हैं, हिंदी हमारी भाषा है और इस पर गर्व करते हैं । परंतु बात अगर हम लेखन की करें, तो हमें हिंदी के अत्याधिक सरल शब्द भी नहीं लिखते आते। सच तो यह है कि अगर हम किसी से हिंदी की वर्णमाला पूछें तो उन्हें वह याद नहीं होती है। वही कोई उन्हें अंग्रेजी भाषा का अक्षर ज्ञान पूछे तो वह हमें बहुत ही अच्छे से याद है| यह एक प्रमुख कारण है कि हम हिंदी पखवाड़ा व हिंदी दिवस मनाते हैं जिससे हम में अपनी संस्कृति व भाषा के प्रति जागरूकता बढ़े और उसका महत्व समझ कर विश्व पटल पर एक बड़े स्तर पर सम्मानित करवाएं ।

अंग्रेजी बोलना प्रतिष्ठा का प्रतीक

आधुनिक भारत में फर्राटेदार अंग्रेजी बोलना प्रतिष्ठा का विषय है। हिंदी को तो हेय दृष्टि से देखा जाता है और हिंदी बोलने वाले को अनपढ़ व गवांर समझा जाता है। हर वर्ग के लोगों ने हिंदी को गर्त में पहुंचाने के लिए अपना बहुमूल्य योगदान दिया है। अंग्रेजों के श्रेष्ठ होने की परिकल्पना ही इस प्रवृत्ति की जनक है। अंग्रेजी एक शक्तिशाली भाषा है पर उसको अपनी संस्कृति के अनुरूप ढालना भी आना चाहिए जहां आधुनिक भारत विफल हो रहा है।
हम भिन्न मौकों पर नाना प्रकार की भाषा का प्रयोग करते हैं। जैसे ढाबा हिंदी का शब्द है, तो वहां हिंदी बोलनी पड़ती है। होटल अंग्रेजी का तो वहां अंग्रेजी। मतलब अपनी सुविधानुसार हम अपनी भाषा का चयन करते हैं। भाषा से स्तर का पता लगता है। अंग्रेजी विश्व स्तर पर स्वीकार्य भाषा है जिसका अपना सामरिक, आर्थिक, बौद्धिक महत्व है जिसको नकारा नहीं जा सकता। पर हमें हिंदी को भी समान महत्व देना चाहिए जो देश की जनस्वीकार्य भाषा है।
सारी क्षेत्रीय भाषाओं का इतिहास व्यापक व समृद्ध है और हमें निरंतर इसके बारे में सोचना चाहिए न की किसी एक विशिष्ट दिन। एक दौर था जब भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था। फिर देश पर विदेशी आक्रान्ताओं ने अपनी नज़र गड़ाई। पुर्तगाल, डच, मुग़ल, अंग्रेज आदि आक्रान्ताओं ने हमें समाप्त करने के पूरे प्रयास किये। किन्तु हमारी संस्कृति, समृद्धि और विरासत अन्दर से इतने मजबूत थे कि हमें पूरी तरह से कोई ख़त्म न कर सका।

अंग्रेज़ चले गए, अंग्रेज़ियत छोड़ गए

इन विदेशी आक्रान्ताओं के जाने के बाद भारतीय समाज पर बुरा असर अवश्य पड़ा। भारत में अनेक कुरीतियों ने जन्म लिया, जिन्हें हम आज भी वहन कर रहे है। हमारा देश युद्ध में हुए हमलों से इतना परेशान नहीं हुआ जितना कि विदेशियों की कूटनीति की वजह से हुआ। भारतीय स्वभाव से दयावान व भावुक होते हैं। सबकी सहायता करना, सबका भला करना ये सदियों से हमें सिखाया जा रहा है। इन्ही अच्छाइयों के चलते हमें कई बुराइयों का सामना करना पड़ा। अंग्रेजों ने 250 वर्षों की गुलामी में हमें मानसिक स्तर पर सबसे अधिक नुकसान पहुंचाया, जिसमें उन्होंने हमारी शिक्षा को आधार बनाकर हमें ख़त्म करने की ठानी। आज देश में मैकाले शिक्षा ने पूरी तरह पैर पसार लिए हैं। गुरुकुल शिक्षा पद्दति व भारतीय शिक्षा पद्दति पूर्ण रूप से समाप्त हो चुकी है। हम पुर्णतः पश्चिम से आई वस्तुओं, आचार-विचार को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। अंग्रेजी भाषा भी उन्ही में से एक है। आज हम अंग्रेजी भाषा के दास बन चुके है। यदि हम अंग्रेजी बोलने में असमर्थ होते हैं तो स्वयं ही हीन भावना के शिकार होते हैं।

युवा पीढ़ी पर हावी अंग्रेजियत

आज कल युवाओं में देखने को मिला है कि यदि अंग्रेजी बोलते-बोलते वे कहीं अटक जाते है तो बहुत ही शर्मिंदगी महसूस करते हैं। लेकिन जब वे हिंदी भाषा बोलते समय कहीं रुकते है तो अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग कर आगे बढ़ जाते हैं। बात की स्पष्टता यह है कि जो भाषा हमारी है ही नहीं, उसके लिए शर्मिंदगी किस बात की! और जो भाषा हमारी है उसके लिए शर्मिंदगी क्यों नहीं! हमारा भाषा से कोई विरोध नहीं, किन्तु प्राथमिकता तो अपनी मातृभाषा को ही मिलनी चाहिए, चाहे वह कोई भी भारतीय भाषा हो। जहां तक बात अंग्रेजी भाषा की है, तो उसे भारतीय मानुष के मन से निकालना संभव नहीं। किन्तु हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं को प्रोत्साहन दिया जाए तो वह दिन दूर नहीं, जब पश्चिम हमारा अनुसरण करेगा।
आज जो देश स्वयं की भाषा में कार्य करने में गर्व महसूस करते हैं, वे दुनिया में सबसे सक्षम व समृद्ध हैं, जिसमे चीन, जापान, जर्मनी व रूस मुख्य हैं। लेकिन हर रोज़ हिंदी, रेल के डिब्बे में लटककर यात्रा करती है, एक दिन एयरपोर्ट से मारिशस की सैर करती है। अंग्रेजी भाषा के प्रति हमारी दासवृत्ति इतनी आसानी से नहीं जाने वाली! हमें इसके लिए हिंदी को नए स्वरुप में सबके सामने स्थापित करना होगा, जिसके लिए महज़ एक दिन काफ़ी नहीं!

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