भारतीय संस्कृति में गुरु को ईश्वर तुल्य माना गया है, क्योंकि वे हमें अज्ञानता के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जाते हैं। गुरु केवल वह नहीं जो हमें किताबों का ज्ञान देते हैं, बल्कि हर वह व्यक्ति है जो हमें सही राह दिखाता है, हमारी कमियों को दूर करता है और हमें एक बेहतर इंसान बनने में मदद करता है।
महर्षि वेदव्यास को समर्पित गुरु पूर्णिमा
महर्षि वेदव्यास पराशर ऋषि और सत्यवती के पुत्र थे। वेदव्यास जी ने न केवल चारों वेदों का विभाजन किया, बल्कि महाभारत की रचना भी की, जिसे ‘पंचम वेद’ कहा जाता है। उन्होंने 18 पुराणों का संकलन व संपादन किया। साथ ही उन्होंने श्रीमद्भागवत महापुराण जैसी अमूल्य रचनाएं भी इस संसार को दी हैं। वेदव्यास जी को ‘आदि गुरु’ कहा जाता है क्योंकि उन्होंने वेदों को जनसामान्य के लिए सुलभ करवाया। वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने ज्ञान को शास्त्र बद्ध रूप में संकलित किया। वेदव्यास जी ने अपने शिष्यों को अलग-अलग वेदों का ज्ञान दिया। कहते हैं कि यहीं से गुरु-शिष्य परंपरा की औपचारिक शुरुआत हुई। इसलिए गुरु पूर्णिमा का दिन उन्हें समर्पित है। उनके जन्म के दिन को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है। यानि आषाढ़ पूर्णिमा के दिन वेदव्यास जी का जन्म हुआ था, इसलिए इस दिन को गुरु पूर्णिमा या व्यास पूर्णिमा कहते हैं। गुरु पूर्णिमा से ही ‘चातुर्मास’ का आरंभ होता है, जिसमें साधु-संत स्थिर होकर ज्ञान, ध्यान और प्रवचन में प्रवृत्त होते हैं।
गुरु-अज्ञान के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश में ले जाने वाला
हमारे धर्म ग्रंथों में गुरु मे ‘गु’ का अर्थ अन्धकार या अज्ञान, और ‘रू’ का अर्थ प्रकाश (अन्धकार का निरोधक)। अर्थात् अज्ञान को हटा कर प्रकाश (ज्ञान) की ओर ले जाने वाले को गुरु कहा जाता हैं। गुरू की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार होता है। गुरू की कृपा के बिना कुछ भी सम्भव नहीं है। गुरु पूर्णिमा उन सभी आध्यात्मिक और अकादमिक गुरुजनों को समर्पित परम्परा है जिन्होंने कर्म योग आधारित व्यक्तित्व विकास और प्रबुद्ध करने, बहुत कम अथवा बिना किसी मौद्रिक खर्चे के अपनी बुद्धिमता को अपने शिष्यों के साथ साझा करने का कार्य किया है। गुरु पूर्णिमा को भारत, नेपाल और भूटान में हिन्दू, जैन और बोद्ध धर्म के अनुयायी उत्सव के रूप में मनाते हैं। यह पर्व हिन्दू, बौद्ध और जैन धर्मावलंबियों द्वारा अपने आध्यात्मिक शिक्षकों/अधिनायकों के सम्मान और उन्हें अपनी कृतज्ञता दिखाने के रूप में मनाया जाता है।
गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी। बल्कि सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है।
गुरु-शिष्य परंपरा यानि भारतीय सनातनी परंपरा
भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य परंपरा, प्राचीन काल से चली आ रही वह परंपरा है, जिसमें गुरु अपना सम्पूर्ण ज्ञान शिष्य को प्रदान करने का प्रयत्न करते हैं। यह परम्परा हिंदू, सिख, बौद्ध और जैन आदि भारत से उपजे सभी धर्मों में समान रूप से पायी जाती है। भारतीय परम्परा में शिक्षा दान का कार्य कई महान त्यागी लोगों ने किया है। जब तक ऐसा होता रहा, तब तक भारत का कल्याण हुआ। प्राचीन काल में गुरु और शिष्य के संबंधों का आधार था गुरु का ज्ञान, मौलिकता और नैतिक बल, उनका शिष्यों के प्रति स्नेह भाव, तथा ज्ञान बांटने का निःस्वार्थ भाव! शिष्य में होती थी गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा, गुरु की क्षमता में पूर्ण विश्वास तथा गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण एवं आज्ञाकारिता। अनुशासन शिष्य का सबसे महत्वपूर्ण गुण माना गया है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने गुरु-शिष्य परम्परा को ‘परम्पराप्राप्तम योग’ बताया है। गुरु-शिष्य परम्परा का आधार सांसारिक ज्ञान से शुरू होता है,परन्तु इसका चरमोत्कर्ष आध्यात्मिक शाश्वत आनन्द की प्राप्ति है,जिसे ईश्वर-प्राप्ति या मोक्ष-प्राप्ति भी कहा जाता है। बड़े भाग्य से प्राप्त मानव जीवन का यही अंतिम व सर्वोच्च लक्ष्य होना चाहिए।
आदर्श गुरु-शिष्य उदाहरण, जिनका कोई जोड़ नहीं
महाभारत में श्रीकृष्ण-अर्जुन, रामायण में श्रीराम-हनुमान, गुरु-शिष्य परंपरा और भक्ति के सर्वोच्च उदाहरण माने गए हैं। जिस तरह गुरु द्रोणाचार्य और अर्जुन इस परंपरा के उपयुक्त उदाहरण हैं, उसी तरह द्रोणाचार्य-एकलव्य कोंची गुरु-शिष्य परंपरा का कुशल उद्वाहक माना गया है, भले ही महर्षि द्रोणाचार्य ने एकलव्य को शिष्य बनाने से इंकार कर दिया था।
गुरु श्रीकृष्ण और शिष्य अर्जुन
महाभारत में, कृष्ण अर्जुन के मित्र होने के साथ-साथ उनके गुरु भी थे। कृष्ण ने अर्जुन को न केवल युद्ध में मार्गदर्शन दिया, बल्कि जीवन के गहरे रहस्यों और कर्मों के महत्व को भी समझाया। कुरुक्षेत्र में जब अर्जुन मोहग्रस्त होकर युद्ध करने से हिचकिचा रहे थे, तब कृष्ण ने उन्हें गीता का उपदेश दिया। यह उपदेश कर्म योग, ज्ञान योग, और भक्ति योग पर आधारित है, और अर्जुन को उनके कर्तव्य का बोध कराता है।
अर्जुन ने कृष्ण को अपना गुरु माना और उनकी शरण में आकर शरणागत हो गए। अर्जुन, कृष्ण की शिक्षाओं पर अटूट विश्वास करते थे और उनके हर आदेश का पालन करते थे।
कृष्ण ने अर्जुन को न केवल युद्ध में, बल्कि जीवन के हर पहलू में मार्गदर्शन दिया। उन्होंने अर्जुन को सिखाया कि कर्म करना मनुष्य का कर्तव्य है, और फल की चिंता किए बिना कर्म करते रहना चाहिए।
अर्जुन में धैर्य, पराक्रम, और कर्मठता जैसे गुण थे, जिसके कारण कृष्ण ने उन्हें गीता का ज्ञान देने के लिए चुना। अर्जुन, चुनौतियों का सामना करने और अपने पराक्रम को दिखाने में कभी पीछे नहीं हटते थे। कुल मिलाकर, कृष्ण और अर्जुन का संबंध एक आदर्श गुरु-शिष्य संबंध का उदाहरण है, जिसमें ज्ञान, समर्पण, और मार्गदर्शन का महत्व है।
गुरु महर्षि द्रोणाचार्य और शिष्य अर्जुन
गुरु द्रोणाचार्य और अर्जुन, महाभारत के प्रसिद्ध गुरु-शिष्य संबंध का श्रेष्ठ उदाहरण है। अर्जुन ने जहाँ कर्तव्य, कर्म, उचित-अनुचित, नीति, नियम और कर्मठता की शिक्षा श्रीकृष्ण से ली, वहीं अस्त्र-शस्त्र और धनुर्विद्या महर्षि द्रोण से सीखी। द्रोणाचार्य कौरवों और पांडवों के अस्त्र-शस्त्र के गुरु थे, और अर्जुन उनके प्रिय शिष्य थे, जिन्हें वे सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाना चाहते थे। द्रोणाचार्य ने अर्जुन को धनुर्विद्या में निपुण बनाने के लिए विशेष प्रयास किए और उन्हें विश्व का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाने का संकल्प लिया। द्रोणाचार्य ने अर्जुन को कई दिव्य अस्त्र-शस्त्र भी प्रदान किए।
अर्जुन ने भी अपने गुरु के प्रति बहुत सम्मान और निष्ठा दिखाई। द्रोणाचार्य ने अर्जुन से गुरु दक्षिणा में द्रुपद को बंदी बनाकर लाने के लिए कहा, जो द्रोणाचार्य का शत्रु था। अर्जुन ने बिना किसी संकोच के गुरु की आज्ञा का पालन किया और द्रुपद को बंदी बनाकर ले आए। द्रोणाचार्य ने अर्जुन से यह भी वचन लिया कि यदि वह धर्म के विरुद्ध खड़े हों तो अर्जुन उन पर भी प्रहार करने से पीछे नहीं हटेंगे।
यह संबंध गुरु-शिष्य परंपरा का एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जिसमें गुरु अपने शिष्य को श्रेष्ठ बनाने के लिए समर्पित था और शिष्य ने भी गुरु के प्रति पूर्ण निष्ठा और सम्मान दिखाया।
गुरु द्रोणाचार्य और शिष्य एकलव्य
द्रोणाचार्य अर्जुन को धनुर्विद्या में सर्वश्रेष्ठ बनाना चाहते थे। इस वजह से गुरु द्रोण ने एकलव्य को ज्ञान देने से मना कर दिया था। इसके बाद एकलव्य ने द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाई और उस मूर्ति को गुरु मान कर धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा। लगातार अभ्यास करने से वह भी धनुर्विद्या सीख गया।
एक दिन पांडव और कौरव राजकुमार गुरु द्रोण के साथ शिकार के लिए पहुंचे। राजकुमारों का कुत्ता एकलव्य के आश्रम में जा पहुंचा और भौंकने लगा। कुत्ते के भौंकने से एकलव्य को अभ्यास करने में परेशानी हो रही थी। तब उसने बाणों से कुत्ते का मुंह बंद कर दिया। एकलव्य ने इतनी कुशलता से बाण चलाए थे कि कुत्ते को बाणों से किसी प्रकार की चोट नहीं लगी।
महर्षि द्रोण ने जब कुत्ते को देखा तो वे धनुर्विद्या का ये कौशल देखकर दंग रह गए। तब बाण चलाने वाले की खोज करते हुए वे एकलव्य के पास पहुंच गए। गुरु द्रोण को लगा कि एकलव्य अर्जुन से श्रेष्ठ बन सकता है। तब उन्होंने गुरु दक्षिणा में उसका अंगूठा मांग लिया था और एकलव्य ने अपना अंगूठा काटकर गुरु को दे भी दिया। अंगूठे बिना भी एकलव्य धनुर्विद्या में दक्ष हो गया था। श्रीकृष्ण जानते थे, अगर एकलव्य को नहीं मारा गया तो महाभारत युद्ध में वह कौरवों की ओर से लड़ेगा और पांडवों की परेशानियां बढ़ा सकता है। श्रीकृष्ण और एकलव्य के बीच युद्ध हुआ, जिसमें एकलव्य मारा गया।
गुरु व्यास और शिष्य शुक
व्यास और शुक, गुरु और शिष्य की एक प्रसिद्ध जोड़ी है, जो भारतीय पौराणिक कथाओं और आध्यात्मिक परंपराओं में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। व्यास, जिन्हें वेद व्यास के नाम से भी जाना जाता है, महाभारत और पुराणों के रचयिता माने जाते हैं। शुक, व्यास के पुत्र और शिष्य थे। व्यास को वेदव्यास या कृष्णद्वैपायन के नाम से भी जाना जाता है। वेदों को विभाजित करने और पुराणों की रचना करने का श्रेय उन्हें जाता है। वे महाभारत के लेखक और एक महान ऋषि थे। शुक, व्यास के पुत्र और एक महान ऋषि थे। उन्हें श्रीमद्भागवत पुराण सुनाने के लिए जाना जाता है, जो उन्होंने राजा परीक्षित को सुनाया था। शुक को एक ज्ञानी और शुद्ध आत्मा माना जाता है, जिन्हें गर्भ में ही ज्ञान प्राप्त हो गया था। उनकी महानता का एक उदाहरण यह है कि जब वे नदी में स्नान कर रही अप्सराओं के पास से गुजरे तो उन अप्सराओं ने उन पर कोई ध्यान नहीं दिया, जबकि व्यास के आने पर उन्होंने अपने वस्त्र लपेट लिए। शुक को अक्सर नग्न अवस्था में चित्रित किया जाता है, जो उनके शरीर की चेतना से परे होने का प्रतीक है।
व्यास और शुक का संबंध गुरु-शिष्य परंपरा का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। व्यास ने शुक को आध्यात्मिक ज्ञान और वेदों की शिक्षा दी। शुक ने अपने पिता से ज्ञान प्राप्त करने के बाद, उसे दूसरों तक पहुंचाया, जिससे यह परंपरा आगे बढ़ती रही। यह परंपरा ज्ञान और बुद्धिमत्ता के हस्तांतरण का एक महत्वपूर्ण माध्यम रही है।
गुरु संदीपनी और शिष्य श्री कृष्ण
संदीपनी बहुत तेजस्वी और सिद्ध ऋषि थे। संदीपनी का अर्थ होता है देवताओं के ऋषि। संदपनी ऋषि ने उजैन्न में घोर तपस्या की थी। साथ ही यहां उन्होंने वेद पुराण, न्याय शास्त्र, राजनीति शास्त्र, धर्म ग्रंथ आदि की शिक्षा के लिए आश्रम का निर्माण किया था। महर्षि संदपीनी के गुरुकुल में वेद पुराण सहित चौंसठ कलाओं की शिक्षा दी जाती थी। भगवान श्रीकृष्ण, सुदामा और बलराम ने महर्षि संदीपनी के आश्रम में शिक्षा ग्रहण की थी।
भगवान कृष्ण ने यहां 64 दिनों में ही अपनी शिक्षा पूर्ण कर ली थी। श्रीकृष्ण ने 18 दिनों में 18 पुराण, 4 दिन में चारों वेद, 16 दिनों में सभी 16 कलाएं और महज 20 दिन में गीता का ज्ञान हासिल कर लिया था। शिक्षा पूरी होने के बाद जब गुरु दक्षिणा की बात आई तो ऋषि संदीपनी ने कहा कि, ‘शंखासुर नाम का एक दैत्य मेरे पुत्र को उठाकर ले गया है। उसे ले लाओ। यही गुरु दक्षिणा होगी।’ श्रीकृष्ण ने गुरु पुत्र को खोजकर वापस लाने का वचन दे दिया।
श्रीकृष्ण और बलराम समुद्र तक पहुंचे तो समुद्र ने बताया कि पंचज जाति का दैत्य शंख के रूप में समुद्र में छिपा है। संभव है कि उसी ने आपके गुरु के पुत्र को खाया हो। भगवान श्रीकृष्ण ने शंखासुर को मारकर उसके पेट में गुरु पुत्र को खोजा, लेकिन वह नहीं मिला। तब श्रीकृष्ण शंखासुर के शरीर का शंख लेकर यमलोक पहुंच गए। यमराज से गुरु पुत्र को वापस लेकर गुरु संदीपनी को लौटा दिया।
गुरु संदीपनी और कृष्ण का संबंध शिक्षा और गुरु-शिष्य परंपरा का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है।
रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद भारतीय आध्यात्मिक इतिहास के दो महान व्यक्ति थे। रामकृष्ण परमहंस एक महान संत और गुरु थे, जबकि विवेकानंद उनके शिष्य थे, जिन्होंने अपने गुरु के विचारों को दुनिया भर में फैलाया।
रामकृष्ण परमहंस एक महान संत और आध्यात्मिक गुरु थे, जिन्होंने विभिन्न धर्मों के माध्यम से ईश्वर की प्राप्ति का अनुभव किया था। उन्हें “परमहंस” की उपाधि दी गई थी, जो समाधि की अंतिम अवस्था को प्राप्त करने वाले व्यक्ति को दी जाती है। उन्होंने दक्षिणेश्वर काली मंदिर में पुजारी के रूप में काम किया और वहां मां काली की आराधना की।
स्वामी विवेकानंद रामकृष्ण परमहंस के प्रमुख शिष्यों में से एक थे। उन्होंने अपने गुरु से शिक्षा प्राप्त की और उनके विचारों को दुनिया भर में फैलाया। स्वामी विवेकानंद ने 1897 में रामकृष्ण मठ और मिशन की स्थापना की। वे एक महान वक्ता, दार्शनिक और समाज सुधारक थे।
रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानंद को ‘नर’ (मनुष्य) और ‘नारायण’ (ईश्वर) का अवतार माना था।
विवेकानंद ने भी अपने गुरु को “सर्वोच्च” माना और उनके प्रति गहरी श्रद्धा रखी। रामकृष्ण ने विवेकानंद को अद्वैत वेदांत और भक्ति की शिक्षा दी। विवेकानंद ने अपने गुरु के विचारों को दुनिया भर में फैलाया और उनके मिशन को आगे बढ़ाया।
उनका गुरु-शिष्य संबंध भारतीय आध्यात्मिक इतिहास में एक अद्वितीय उदाहरण है।
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