उत्तराखंड के चकराता क्षेत्र के करीब 20–25 गावों ने सर्वसम्मति से निर्णय लिया है कि अब उनकी शादियों व अन्य सामाजिक समारोहों में फास्ट फूड- जैसे चाऊमीन, मोमो, पिज़्ज़ा, टिक्की आदि, डीजे / आधुनिक धुनें / आधुनिक संगीत-प्रदर्शन, अर्थात् समारोहों में शानदार, भव्य संगीत या पार्टी जैसे माहौल और महंगे व भव्य तोहफे, महंगी वस्तुएं, चांदी/सोने के सिक्के, ड्राई फ्रूट्स, आदि के लेन-देन पर पाबंदी रहेगी। इन नए क़ायदों का उल्लंघन करने पर प्रभावित परिवारों को ₹1,00,000 (एक लाख रुपए) तक का अधिकतम जुर्माना लगाने का प्रावधान किया गया है।
चकराता से उठी सादगी की मुहिम: आधुनिक शादी संस्कृति बदलने की दिशा में नया मोड़
उत्तराखंड के पहाड़ी इलाके चकराता के कुछ सुदूर गांव इन दिनों राष्ट्रीय चर्चा के केंद्र में हैं। वजह है एक ऐसा सामाजिक फैसला, जिसने न सिर्फ विवाह-परंपराओं पर कठोर सीमाएं तय की हैं, बल्कि आधुनिक समय में बढ़ते दिखावे और आर्थिक बोझ के खिलाफ एक स्पष्ट संदेश भी दिया है। इन गावों ने सर्वसम्मति से तय किया है कि अब शादी में डीजे नहीं बजेगा, चाऊमीन व अन्य फास्ट-फूड परोसा नहीं जाएगा, और महंगे उपहार देने-लेने की प्रथा पूरी तरह बंद होगी। नियमों का उल्लंघन करने पर एक लाख रुपये तक का दंड तय किया गया है।
ग्रामसभा से निकला बदलाव का स्वर
चकराता क्षेत्र में बीते महीनों से ग्रामसभाओं में बढ़ते शादी-खर्च की चिंता लगातार उठ रही थी। ग्रामीणों ने यह महसूस किया कि पिछले कुछ वर्षों में शादियां सामाजिक प्रतिष्ठा का मंच बन गई हैं। कई परिवार अपनी आय से कई गुना अधिक खर्च करने लगे थे! कभी उपहारों की होड़ में, तो कभी चमकदार भोजन और तेज़ संगीत वाले आयोजनों की प्रतिस्पर्धा में। पहाड़ी अर्थव्यवस्था और सीमित संसाधनों पर निर्भर इन गावों के लिए यह दबाव असहनीय होता जा रहा था। स्थानीय बुज़ुर्गों ने बताया कि शादी से पहले “लोग क्या कहेंगे” का दबाव इतना गहरा हो चुका था कि कई परिवार कर्ज़ लेकर आयोजन कर रहे थे। ग्रामसभा में उठी इसी चिंता ने अंततः सामूहिक निर्णय का रूप लिया। एक ऐसा निर्णय, जिसे किसी एक परिवार ने नहीं, बल्कि पूरे समुदाय ने मिलकर अपनाया।
सांस्कृतिक वापसी की कोशिश
नए नियमों का मकसद सिर्फ खर्च रोकना नहीं, बल्कि स्थानीय संस्कृति को पुनर्जीवित करना भी है। पारंपरिक गढ़वाली भोजन को फिर से शादी का मुख्य हिस्सा बनाने की तैयारी है। स्थानीय भोजन- मंडुआ, झंगोरा, पहाड़ी दालें अब फिर से शादी के मुख्य व्यंजन बनेंगे। ढोल-दमाऊं जैसे पारंपरिक वाद्य, जो आधुनिक डीजे के शोर में खोते जा रहे थे, अब फिर से बारात और घोल के गीतों में सुनाई देंगे।ग्रामीणों का कहना है, “हमने सोचा किअगर हमारी ही पीढ़ी अपनी परंपराएं छोड़ देगी, तो आने वाली पीढ़ियों तक क्या पहुंचेगा? शादी को आधुनिकपार्टी बनने देने के बजाय हमने उसे अपनी संस्कृ ति से जोड़ने का फैसला किया।”
देशभर में उठ रही समान आवाज़ें
चकराता की यह पहल भले ही पहाड़ों से निकली हो, पर यह कोई अलग-थलग घटना नहीं है। देश के कई हिस्सों में ऐसी ही चिंताएं और प्रयास सामने आए हैं। राजस्थान के कई गावों में पंचायतों ने शादी में दहेज और भारी भोज पर निगरानी बढ़ाई है। यहां कुछ इलाकों में यह नियम तक लागू है कि शादी में मेहमानों की संख्या 100 से अधिक नहीं होगी। उद्देश्य वही- दबाव कम करना और प्रतिस्पर्धा को खत्म करना।
महाराष्ट्र के आदिवासी क्षेत्रों में समाजों ने महंगे उपहारों पर रोक लगाई है। यहां उपहार केवल एक प्रतीकात्मक वस्तु तक सीमित होते हैं। सामाजिक संगठनों का कहना है कि पहले उपहार देना “इज्ज़त” से जोड़ा जाता था, अब यह अनावश्यक बोझ बन चुका था।
दक्षिण भारत के कई शहरों में सामूहिक विवाह बड़े पैमाने पर लोकप्रिय हो रहे हैं। एक ही मंच पर कई जोड़ों का विवाह होने से खर्च सीमित होता है और समाज में बराबरी की भावना को बल मिलता है। कई नगर निगम ऐसे आयोजनों को प्रोत्साहन भी दे रहे हैं।
उत्तर भारत में भी नियम लागू किए गए हैं। पंजाब और हरियाणा के कई गावों में देर रात तक बजने वाले डीजे पर रोक है। गावों ने यह माना कि शादी का शोर सिर्फ खर्च नहीं बढ़ाता, बल्कि बुजुर्गों, बच्चों और आसपास के समुदाय के लिए असुविधा भी पैदा करता है।
क्यों बदली लोगों की सोच?
क्षेत्रीय अवलोकन बताते हैं कि शादी-समारोहों में दिखावे की संस्कृति अब न केवल शहरों बल्कि गावों तक फैल चुकी है। सोशल मीडिया ने भी इस प्रवृत्ति को तेज किया है। हर परिवार चाहता है कि उसकी शादी “सबसे खास” दिखे। पर परिणाम यह हुआ कि सीमित आय वाले परिवारों पर दबाव बढ़ गया।चकराता के एक युवक ने बताया, “पहाड़ में आय के साधन क्या हैं? खेती, मजदूरी या छोटे का म। उस पर लाखों का खर्च कर शादी करना ठीक नहीं था। हमने तय किया कि हम खुद ही इस दौड़ से बाहर निकलेंगे।” यह बदलाव दर्शाता है कि समाज के भीतर से सादगी की मांग उठ रही है- एक ऐसी मांग, जो फिलहाल किसी सरकारी नीति से नहीं, बल्कि समुदायों की अपनी समझ से जन्मी है।
क्या यह नया सामाजिक मॉडल बन सकता है?
यह सवाल अब समाजशास्त्रियों और योजनाकारों के सामने भी है। यदि चकराता जैसे गांव इन नियमों का पालन लगातार कर पाए, और यदि इन्हें लागू करने के पीछे किसी तरह की ज़बरदस्ती नहीं बल्कि सामुदायिक सहमति बनी रहे, तो यह मॉडल अन्य क्षेत्रों के लिए भी प्रेरक बन सकता है। शादी केवल दो व्यक्तियों और परिवारों का मिलन है। पर दिखावे की दौड़ ने इसे आर्थिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक दबाव का केंद्र बना दिया है। चकराता की पहल इसी असंतुलन को चुनौती देती है। यह पहल केवल नियम लागू करने तक सीमित नहीं है, बल्कि अपने भीतर सांस्कृतिक पुनर्जीवन की इच्छा भी रखती है। ग्रामीणों का मानना है कि जब शादी अपनी जड़ों से जुड़ती है, तो वह अधिक आत्मीय और स्वाभाविक महसूस होती है
यदि यह बदलाव स्थायी रहा, तो यह सिर्फ पहाड़ी इलाकों की नहीं, बल्कि पूरे देश की शादी संस्कृति को नई दिशा दे सकता है, जहां खर्च प्रतिष्ठा नहीं, बल्कि सादगी प्रतिष्ठा बने, जहां समारोह का मूल्य उसकी भव्यता से नहीं, बल्कि उसकी आत्मीयता से तय हो।
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