हाल ही में जारी हुई रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत के 10–19 वर्ष के लगभग हर पांचवे किशोर को डिप्रेशन, चिंता या बौद्धिक अक्षमता जैसी मानसिक स्वास्थ्य-समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। विशेष रूप से राजधानी दिल्ली के आंकड़े चिंताजनक हैं। अध्ययन में शहरी किशोरों में डिप्रेशन की दर 24.2 प्रतिशत से 39.3 प्रतिशत के बीच पाई गई है, और चिंता की दर लगभग 50.6 प्रतिशत तक।
Depression से जूझ रही युवा पीढ़ी, आंकड़ों ने चौंकाया
देश में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर जारी एक नयी रिपोर्ट ने हड़कंप मचा दिया है। रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर पांचवां किशोर या युवा, किसी न किसी स्तर के डिप्रेशन, एंग्जायटी या अन्य मानसिक विकार से जूझ रहा है। राजधानी दिल्ली के आंकड़े तो और भी अधिक चिंताजनक हैं, जहां शहरी किशोरों में डिप्रेशन की दर 24 से 39 प्रतिशत और चिंता की दर 50 प्रतिशत से अधिक पाई गई है।देशभर के लगभग 25 करोड़ किशोरों में से करीब 5 करोड़ बच्चे मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से प्रभावित हैं। दिल्ली-एनसीआर में हुए सर्वेक्षण में यह स्थिति सबसे गंभीर बताई गई है। वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 21 प्रतिशत किशोरों में डिप्रेशन और 20 प्रतिशत में एंग्जायटी के लक्षण पाए गए।
ग्रामीण क्षेत्रों में शहरों के मुक़ाबले कम समस्या
एक अध्ययन में Mysuru (कर्नाटक) के शहरी क्षेत्र में किशोरों में हल्के डिप्रेशन की दर 12.6 प्रतिशत, मध्यम 9.7 प्रतिशत और गंभीर 1.9 प्रतिशत पाई गई थी। वहीं ग्रामीण क्षेत्र में हल्के 6.9 प्रतिशत, मध्यम 22.5 प्रतिशत और गंभीर 5.9 प्रतिशत तथा अत्यधिक गंभीर 1.0 प्रतिशत पाई गई। उत्तर-भारत के ग्रामीण समुदाय में किए गए एक अध्ययन में किशोरों में डिप्रेशन का प्रमाण 3.9 प्रतिशत (95 प्रतिशत CI: 2.5-5.9) पाया गया। समग्र रूप से स्कूल-जाने वाले किशोरों पर एक मेटा-विश्लेषण में पाया गया कि उनकी डिप्रेशन की दर लगभग 53 प्रतिशत (95 प्रतिशत CI: 41-65 प्रतिशत) है। एक अन्य समीक्षा में भारत के युवाओं (13-17 वर्ष) में मानसिक विकारों का प्रतिशत लगभग 7.3 फ़ीसदी पाया गया।
विशेषज्ञों ने बताए प्रमुख कारण
मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि कोविड-19 के बाद ऑनलाइन कक्षाओं, बढ़े हुए स्क्रीन-टाइम और सामाजिक अलगाव से किशोरों में तनाव एवं चिंता बढ़ी है। शहरी जीवन की तीव्र-प्रतिस्पर्धा, प्रदूषण, शोर, और परिवारों में कम समय देने जैसी प्रवृत्तियां भी किशोरों को प्रभावित कर रही हैं। स्कूल-स्तर पर मानसिक स्वास्थ्य संबंधी परामर्श सेवाओं का अभाव, जागरूकता की कमी और सामाजिक-संस्कृति में इस प्रकार की समस्याओं पर खुलकर बात न होना भी एक बड़ी बाधा है। परिवारों में संवाद की कमी, शिक्षा-दबाव, प्रदूषण, और आर्थिक अस्थिरता जैसी परिस्थितियां इस समस्या को और बढ़ा रही हैं। विशेषज्ञों के अनुसार, “आज के बच्चे मानसिक रूप से पहले से कहीं अधिक दबाव में हैं, लेकिन सहायता-प्रणालियां अभी भी बहुत कमजोर हैं।”
क्या इसके दुष्परिणाम हो सकते हैं?
किशोरों का संज्ञानात्मक, भावनात्मक और सामाजिक विकास बाधित हो सकता है। शिक्षा-प्रगति प्रभावित हो सकती है। अगर समय पर इलाज/सहायता नहीं मिले, तो आत्महत्या और आत्मक्षति की आशंका बढ़ सकती है। भविष्य में युवाओं की कार्य-क्षमता और मानसिक क्षमता पर प्रभाव पड़ सकता है, जो सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए खतरा बन सकता है।
शिक्षा और करियर पर असर
मानसिक अस्वस्थता का सबसे बड़ा प्रभाव शिक्षा और कार्य क्षमता पर पड़ता है। जो युवा निरंतर चिंता या डिप्रेशन में रहते हैं, वे न केवल पढ़ाई या नौकरी में पिछड़ते हैं, बल्कि आत्मविश्वास और ध्यान केंद्रित करने की क्षमता भी खो देते हैं। इससे शिक्षा व्यवस्था में गिरावट और कार्यस्थलों पर उत्पादकता में कमी आती है।
देश की अर्थव्यवस्था पर प्रभाव
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, मानसिक रोगों के कारण हर साल भारत को अरबों डॉलर का आर्थिक नुकसान होता है। अगर बड़ी संख्या में युवा अवसाद और तनाव से ग्रस्त रहेंगे, तो वे कामकाजी क्षमता खो देंगे, जिससे देश की उत्पादन शक्ति और नवाचार दोनों प्रभावित होंगे। मानसिक तनाव न केवल व्यक्ति को, बल्कि पूरे समाज को प्रभावित करता है। ऐसे युवाओं में असंतोष, आक्रोश, नशे की प्रवृत्ति और आत्महत्या के मामले बढ़ सकते हैं। यह सामाजिक असंतुलन और असुरक्षा का कारण बन सकता है।



 
