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December 30, 2025

गुज़ारा भत्ता या Alimony- हक़ नहीं, ज़रूरत पर आधारित न्याय !

The CSR Journal Magazine

 

भारत में तलाक़ या पति–पत्नी के अलग रहने की स्थिति में महिला को मिलने वाला गुज़ारा भत्ता (Alimony) अब अपने आप मिलने वाली चीज़ नहीं मानी जाती। अगर महिला पढ़ी-लिखी है, नौकरी करती है और अपनी ज़रूरतें खुद पूरी कर सकती है, तो अदालतें उसे Alimony या गुज़ारा भत्ता देने से मना कर सकती हैं। 2025 में आए कई अहम अदालती फैसलों से यह साफ हो गया है कि भरण-पोषण का मकसद महिला को अमीर बनाना या पति के बराबर पैसा दिलाना नहीं, बल्कि उसे गरीबी और मजबूरी से बचाना है।

गुज़ारा भत्ता- हक़ नहीं, ज़रूरत का सवाल

भारत में Alimony यानी भरण-पोषण को लेकर अदालतों का रुख़ अब पहले से ज़्यादा साफ़ और व्यावहारिक होता दिख रहा है। 2025 में आए कई अहम फैसलों ने यह संदेश दे दिया है कि अगर कोई महिला पढ़ी-लिखी है, नौकरी करती है और खुद अपने खर्च चला सकती है, तो उसे अपने आप Alimony मिलना ज़रूरी नहीं है। यह बदलाव किसी के अधिकार छीनने का नहीं, बल्कि न्याय को सही जगह पर पहुंचाने का प्रयास है।

गुज़ारा भत्ता क्यों बनाया गया था?

Alimony का मकसद कभी यह नहीं था कि तलाक़ के बाद भी एक पक्ष दूसरे पर पूरी तरह निर्भर बना रहे। इसका असली उद्देश्य था महिला को गरीबी से बचाना, उसे बेघर या असहाय होने से रोकना, सम्मान के साथ जीवन जीने में मदद करना। यानी यह एक सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था है, न कि जीवन भर का आर्थिक सहारा।

बदलता समाज, बदलती सोच

आज का भारत वह नहीं रहा, जहां महिलाएं केवल घर तक सीमित थीं। आज महिलाएं ऊंची शिक्षा ले रही हैं, अच्छी नौकरियों में हैं, प्रशासन, पुलिस, कॉरपोरेट और न्यायपालिका तक में अहम भूमिकाएं निभा रही हैं। ऐसे में अदालतों का यह कहना कि आत्मनिर्भर महिला को अनिवार्य रूप से गुज़ारा भत्ता नहीं दिया जा सकता, समाज की बदली हुई सच्चाई को स्वीकार करना है।

दिल्ली हाईकोर्ट का संदेश

दिल्ली हाईकोर्ट का हालिया फैसला, जिसमें एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी महिला को Alimony भरण-पोषण देने से मना किया गया, बहुत साफ़ संदेश देता है। अदालत ने कहा कि, “गुज़ारा भत्ता का उद्देश्य सक्षम पत्नी को पति के बराबर पैसा दिलाना नहीं है।” यह टिप्पणी केवल एक मामले तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरे समाज के लिए एक दिशा दिखाती है।

क्या यह महिलाओं के खिलाफ है?

नहीं। यह सोच गलत है कि ऐसे फैसले महिलाओं के अधिकारों को कमजोर करते हैं। असल में जो महिलाएं सच में आर्थिक मुश्किल में हैं, उन्हें आज भी पूरा संरक्षण मिलेगा। जिन्होंने परिवार के लिए करियर छोड़ा, उन्हें राहत मिलेगी। जिन पर बच्चों की जिम्मेदारी है, उनकी मदद होगी। अदालतें अब ज़रूरत और मजबूरी को आधार बना रही हैं, न कि केवल वैवाहिक स्थिति को।
भारत में गुज़ारा भत्ता किन कानूनों के तहत मिलता है?

1. धारा 144 BNSS (पहले धारा 125 CrPC)

यह कानून सभी धर्मों पर लागू होता है। इसमें देखा जाता है:
  • क्या पत्नी खुद कमा सकती है या नहीं?
  • क्या पति के पास देने की क्षमता है?
  • क्या पत्नी को सच में मदद की ज़रूरत है?
  • अगर महिला खुद कमा रही है और आराम से जीवन जी सकती है, तो अदालत भत्ता देने से मना कर सकती है।

2. हिंदू विवाह अधिनियम, 1955

  • धारा 24 – केस चलने के दौरान खर्च,
  • धारा 25 – तलाक़ के बाद स्थायी गुज़ारा भत्ता।
  • यहां भी अदालत महिला की कमाई, पढ़ाई और जीवन-शैली देखती है।

3. घरेलू हिंसा कानून, 2005

अगर महिला के साथ घरेलू हिंसा हुई हो, तो उसे:
  • गुज़ारा भत्ता,
  • रहने की जगह,
  • मुआवज़ा मिल सकता है, लेकिन यहां भी पहले महिला की कमाई को देखा जाता है।

न्याय का सही संतुलन

अगर हर कमाने वाली महिला को भी बिना ज़रूरत गुज़ारा भत्ता मिलने लगे, तो:
  • कानून का दुरुपयोग बढ़ेगा,
  • असली ज़रूरतमंद पीछे रह जाएंगे,
  • विवाह एक तरह की आर्थिक सुरक्षा योजना बन जाएगा।
न्याय का मतलब बराबरी नहीं, बल्कि न्यायोचित संतुलन है।

आत्मनिर्भरता का सम्मान ज़रूरी

आज की महिला केवल सहारे की मांग करने वाली नहीं, बल्कि समाज को सहारा देने वाली भी है। ऐसे में कानून का यह मानना कि आत्मनिर्भर महिला खुद फैसले लेने में सक्षम है, अपने आप में एक सकारात्मक संकेत है। गुज़ारा भत्ता कोई स्थायी अधिकार नहीं, बल्कि एक ज़रूरत-आधारित सहायता है। 2025 के फैसलों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि-
  • सहायता उसी को मिले, जिसे सच में ज़रूरत हो,
  • सक्षम व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनने का सम्मान मिले। यही संतुलन न्याय की असली पहचान है।
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