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क्यों बंद हो रहे हैं बजट प्राइवेट स्कूल ?

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दुनिया के 37 फ़ीसदी अनपढ़ लोग भारत में रहते हैं, 58 फ़ीसदी बच्चे अपनी प्राइमरी स्कूल में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं, जबकि 90 फ़ीसदी बच्चे किसी तरह की तालीम पूरी नहीं कर पाते. ये है हमारे आज के भारत की तस्वीर जिसपर हम अपने आनेवेल कल की बुनियाद रख रहे हैं. मगर आंकड़े और भी हैं जो आपको हैरान कर देंगे. नीसा यानि नैशनल इंडिपेंडेंट स्कूल अलायंस देश भर के 20 राज्यों में करीब 3600 कम फीस वाले बजट स्कूलों की एक संस्था है. नीसा के दावों के मुताबिक भारत में ऐसे बजट प्राइवेट स्कूलों में 95 लाख से ज़्यादा छात्र पढ़ते हैं.  लेकिन शिक्षा का अधिकार कानून (Right to Education) लागू होने के बाद से इन बजट स्कूलों पर जैसे आफ़त आ ही गई है.  मीडिया रिपोर्ट्स का हवाला देकर नीसा कहती है कि पिछले कुछ बरसों में 17 राज्यों के करीब 3000 बजट स्कूल बंद हुए हैं, जबकि करीब 5900 बजट स्कूली बंद होने की कगार पर हैं.  हालांकि अपने नीजी सर्वे में नीसा ये दावा करती है कि देशभर में कुल 4331 बजट स्कूल बंद हुए हैं.  जबकि करीब 15083 स्कूल और बंद होने को हैं जिससे करीब 35 लाख ग़रीब छात्र प्रभावित होंगे.

सन्न करने वाले आंकड़े 

 

ये आंकड़े सन्न करनेवाले हैं, जहां देश में सरकारी स्कूलों की स्थिती और मौजूदगी लगातार ख़राब होती जा रही है, ग़रीब परिवार के बच्चों के लिए कम फ़ीस में अंग्रेजी की शिक्षा देनेवाले ये बजट स्कूल बड़ी राहत बनकर उभरे हैं. ये वो स्कूल हैं जो छोटी बस्तियों में या उनके आस-पास नीजी लोगों द्वारा चलाए जा रहे हैं, मगर RTE कानून के कई मानकों – जैसे – [creativ_pullleft colour=”red” colour_custom=”” text=”स्कूल की न्यूनतम ज़मीन , क्लासरूम का न्यूनतम साइज़, पानी एवं टॉयलेट के स्टैंडर्ड, लाइब्रेरी में किताबों की न्यूनतम संख्या और टीचरों की न्यूनतम सैलरी – को पूरा कर पाने में ये बजट स्कूल अक्षम हैं”]  

तीजतन कायदों के मुताबिक इनका लाइसेंस रद्द किया जा रहा है. हालांकि इन बजट स्कूलों की सुविधाओं पर तो सवाल उठाया जा सकता है, मगर सरकारी स्कूलों के मुकाबले इनके नतीजे बेहतर दिखाई दिए हैं. 

टीचरजी नहीं आते स्कूल

संसद में पिछले साल रखी गई एक रिपोर्ट देश के सरकारी स्कूलों में टीचरों  की ग़ैरमौजूदी की भयानक स्थिति को दर्शाती है. देश के तमाम सरकारी स्कूलों में करीब 20 फ़सीदी टीचर अपनी क्लास से ग़ायब रहते हैं. जी हां – छात्र नहीं बल्कि शिक्षक  स्कूल नहीं जा रहे, ज़ाहिर है इनमें – बिहार, उत्तरप्रदेश, छ्त्तीसगढ़, मध्यप्रदेश  और यहां की प्रधानमंत्री मोदी का गृहराज्य गुजरात भी शामिल है – जहां टीचरों की औसत ग़ैरमौजूदगी 30 फ़ीसदी तक जा पहुंची है.  आश्चर्य नहीं है कि भारत में करीब 40 करोड़ लोग बुनियादी शिक्षा पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. 

कार्पोरेट सामाजिक दायित्व से क्या बदलेगी सूरत 

धन्य हो सीएसआर, यानि कार्पोरेट सामाजिक दायित्व का – जिसके आने के बाद से कार्पोरेट इंडिया का ध्यान शिक्षा क्षेत्र पर सुनियोजित हो रहा है. छिटपुट दान-धर्म करने की बजाए , सीएसआर अधिनियम के पालन के लिए कंपनियां अब पेशेवर तरीके से सामाजिक भलाई के काम को अंजाम देने में लग रही हैं. वहीं सैकड़ों छोटे-बड़े एनजीओ भी अब खुद को काबिल बनाने में लग चुके हैं. मुंबई की झुग्गीयों में ग़रीब और बेसहारा बच्चों की शिक्षा के लिए टचिंग लाइव्स नाम की संस्था चलानेवाली मोनिका मकवानी कहती हैं- 

आज हमारे ज़्यादातर दाता नीजी दोस्त और आम लोग है, लेकिन कंपनियों का पैसा आने से ग़ैरसरकारी संस्थाओं के कामकाम में तेज़ी के साथ पारदर्शिता, जवाबदेही और कुछ नए पेशेवर तौर-तरीके भी आएंगे. मेरे हिसाब से कंपनियों को सीएसआर , सोशिअल रिसपांसिबिलिटी से ज्यादा सर्विसिंग रिसपांसिबिलिटी की तहर देखना चाहिए” “]

शिक्षा को आंदोलन की शक्ल देना

दिल्ली स्थित, सेंटर फॉर सिविल सोसाटी देशभर में फैले अपने वालिंटिअर्स के सहारे और सरकार से लगातार बातचीत कर के बजट प्राइवेट स्कूलों को बचाने का काम कर रही है. स्कूल चॉइस कैंपेन के तहत सीसीएस – रिसर्च के ज़रिए सही आंकड़े जुटाना और पायलट प्रोजेक्ट्स के ज़रिए मॉडल्स तैयार करना और ऐडवोकेसी के ज़रिए  देश में शिक्षा की नीतियां सही दिशा में ले जाने जैसे काम में जुटी है.  शिक्षा के अधिकार के कानून से पैदा होने वाली अड़चनों को दूर कर, सरकारी स्कूल – नीजी स्कूल के साथ साथ कम फ़ीस वाले बजट प्राइवेट स्कूलों को बढ़ावा देने के काम में – सीसीएस और उसकी सहयोगी नीसा को पिडीलाइट जैसी कंपनियां भी अपना सहयोग दे रही हैं. उम्मीद है शिक्षा मंत्रालय प्राइवेट बजट स्कूलों की ज़रूरतों को समझेगा और कानून में बदलाव कर इन्हें बचाएगा. वहीं कार्पोरेट इंडिया भी अपने सीएसआर फंड का एक हिस्सा इन बजट प्राइवेट स्कूलों की स्थिति को सुधारने पर भी लगा सकता है. 

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