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हड़ताल पर हैं अन्नदाता।

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धरती का सीना फाड़, अपनी मेहनत से, अपने पसीने से, किसान मिट्टी को सींच कर लहलहाती फसल उगाता है। उसी मिट्टी से किसान सोना उगाता है लेकिन किसान को मिलता क्या है? किसान कहने को तो देश का अन्नदाता है पर आज के दौर में किसान जनता का पेट तो भरता है लेकिन खुद भूखा रह जाता है। लंबे अरसे से किसान बदहाली की जिंदगी जीने को मजबूर है। कभी मौसम की मार तो कभी सरकार की नीतियों की वजह से किसान की कमर ही टूटती ही जा रही है। आज़ादी के बाद देश में कई क्रांतियों ने दशा और दिशा दोनों ही बदल दी पर किसान की हालात जस के तस है। तकनीक फर्श से अर्श तक पहुँच गई लेकिन किसान आज भी बैलों के सहारे हल जोतता है। सिंचाई के लिए पानी की बूंदों को तरसता है। इन्ही विषम परिस्तिथियों को बदलने के लिए अब किसान जागरूक हो रहे है। अपने हक़ की लड़ाई लड़ रहे है। शायद यही कारण है कि किसान खेतों से निकलकर सरकार से आरपार की लड़ाई लड़ने के लिए रस्ते पर उतर आया है। ये  पहली बार नहीं है कि किसान आंदोलन कर रहे हो। सरकारें किसान संगठनों में फूट डालकर, बाहुबल का इस्तेमाल कर, सिर्फ आश्वासन देकर आंदोलन को कुचल देती है। एक बार फिर से किसान गुस्से में है, एक बार फिर से किसानों का आंदोलन शुरू है। देश के सात राज्यों में किसानों ने आंदोलन के साथ बंद का आह्वान किया है। इसमें 100 से ज्यादा किसान संगठन शामिल हैं, महाराष्ट्र के किसानों ने एक बार फिर पांच जून से सड़कों पर उतरने का ऐलान किया है, किसानों का यह 10 दिवसीय आंदोलन उनके उत्पादों के न्यूनतम समर्थन मूल्य और स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों समेत कई अन्य मुद्दों को लेकर किया गया है।

कर्जमाफी और कृषि उत्पादों की सही कीमत की मांग को लेकर किसानों का आंदोलन मंगलवार पांचवे दिन भी जारी है। 1 जून से शुरू हुए इस आंदोलन के कारण बाजार में सब्जियों की कीमतों में तेजी देखने को मिली है जबकि आंदोलन के दौरान किसानों ने दूध और सब्जियां सड़कों पर फेंककर अपना विरोध भी जताया है। वहीं आंदोलन तीसरे दिन उग्र हो गया था जब यूपी, पंजाब, उत्तराखंड और हरियाणा में जगह-जगह किसानों ने दूध की नदियां सड़कों पर बहा दीं और जाम भी लगाया था। पिछले साल जब किसान आंदोलन हुआ था तो किसान प्रतिरोध को चर्चा में लाने का यह अच्छा तरीका साबित हुआ था, सो जहां-तहां इसको इस बार भी आजमाया गया है। आंदोलन के कई दिन बीतने के बाद भी सरकार के कानों तले जू रेंग ही नहीं रहा। उटपटांग बयान ने किसानों और जनता में रोष जरूर पैदा किया है। मध्य प्रदेश के कृषि मंत्री ने आंदोलन शुरू होने से पहले ही अपने राज्य के किसानों को सुखी-संपन्न और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की नीतियों से संतुष्ट बताया है, जबकि हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने किसानों को बेकार की बातों पर ध्यान न देने की सलाह दी है। हद तो तब हो गई जब केंद्रीय कृषि मंत्री राधामोहन सिंह ने शनिवार को कहा कि देश में चल रहा किसानों का आंदोलन मीडिया का ध्यान आकर्षित करने के लिए है।

सरकारें जानती हैं कि एक बार बारिश गिरनी शुरू हुई, फिर किसान सारा आंदोलन भूलकर धान की खेती में जुट जाएंगे और विरोध का अगला मौका आने तक 2019 का आम चुनाव पार हो चुका होगा। भारत को किसानों का देश बताने और खेती के पेशे को महिमामंडित करने के बावजूद सरकारें ऐसे ही टालू तरीकों से किसानों के असंतोष से निपटती रही हैं, लेकिन इस बार किसानों की मांगें स्पष्ट हैं और केंद्र सरकार का रुख अस्पष्ट। कृषि उपजों की कीमत उन पर आई कुल लागत की डेढ़ गुनी करने की बात खुद बीजेपी ने अपने केंद्रीय चुनावी घोषणापत्र में कह रखी है। एक निश्चित अवधि में किसानों की आमदनी दोगुनी करने का आश्वासन भी खुद प्रधानमंत्री ने दिया हुआ है। महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में बीजेपी की सरकारों ने किसानों की कर्जमाफी भी की ही है। सरकार उनकी मांगें तुरंत पूरी भले न करे, लेकिन उनसे बात करके सिर्फ आश्वासन देकर मामले को टरकाना या मंदसौर की तरह सीधे टकराव में जाना देश के लिए कई आर्थिक समस्याओं के बीच एक और संकट का दरवाजा खोलने जैसा होगा। इस हड़ताल से नुकसान उलटे किसान का ही हो रहा है। एक तो किसान के फसल का सही दाम नहीं ऊपर से विरोध में सब्जियां, फल दूध सड़कों पर बह रही है, यानि चारो तरफ से किसान ही पिस रहा है। बहरहाल इन सब के बीच सवाल हमेशा से यही है कि आखिरकार किसान खुद भूखे पेट कब तक देश के लिए अन्नदाता बने रहेंगे।