हर साल 10 नवंबर को विश्व सार्वजनिक परिवहन दिवस (Public Transport Day) मनाया जाता है ताकि लोगों को साझा परिवहन (Public Mobility) के महत्व, पर्यावरणीय लाभ और टिकाऊ विकास के प्रति जागरूक किया जा सके। लेकिन क्या आप जानते हैं कि सार्वजनिक परिवहन का विचार नया नहीं है? मानव सभ्यता की पहली सार्वजनिक परिवहन साधन नावें (Boats) थीं, जिन्होंने न केवल व्यापार और संस्कृति का मार्ग खोला, बल्कि मानव समाज को जोड़ने का पहला सेतु भी बनाया। देखते हैं कि कैसे नावों से शुरू होकर मानव का परिवहन सफर बैलगाड़ी, रेल, बस, और मेट्रो तक पहुंचा और क्यों आज भी सार्वजनिक परिवहन ही सभ्यता की सबसे बड़ी पहचान है।
नावें: सभ्यता की पहली सवारी
मानव ने जब नदी किनारे बसना शुरू किया, तभी यात्रा और परिवहन की आवश्यकता महसूस हुई। लगभग 10,000 वर्ष पहले, जब लोग शिकारी से किसान बनने की ओर बढ़ रहे थे, तब नदी और झीलें उनके जीवन का केंद्र थीं। इन्हीं जलमार्गों पर उन्होंने लकड़ी के तनों और पेड़ों की छाल से नावें बनाईं, ताकि वे एक स्थान से दूसरे स्थान जा सकें, मछलियां पकड़ सकें और व्यापार कर सकें। कभी जब मनुष्य ने नदी के किनारे लकड़ी के तनों से पहली नाव बनाई थी, तभी से उसने एक महान विचार जन्म दिया- साझा यात्रा (Collective Travel) का! वह नाव सिर्फ एक साधन नहीं थी, बल्कि सभ्यता का आरंभिक प्रतीक थी, जहां मनुष्य ने पहली बार यह समझा कि “यात्रा का अर्थ केवल मंज़िल तक पहुंचना नहीं, बल्कि दूसरों को साथ लेकर चलना भी है।” आज जब दुनिया “विश्व सार्वजनिक परिवहन दिवस” मना रही है, तो यह स्मरण करना आवश्यक है कि हमारी आधुनिक बसें, रेलगाड़ियां, मेट्रो और एयरलाइंस सभी उसी नाव की अगली पीढ़ी हैं।
8000 ईसा पूर्व की है सबसे पहली नाव
पुरातात्विक साक्ष्य बताते हैं कि सबसे पुरानी नाव “Pesse Canoe” नीदरलैंड में मिली थी, जो करीब 8,000 ईसा पूर्व की है, यानी आज से लगभग 10,000 साल पुरानी। यह नाव एक ही लकड़ी के तने (पाइन के पेड़) को खोखला करके बनाई गई थी। इसकी लंबाई लगभग 3 मीटर और चौड़ाई 60 सेंटीमीटर थी। यह एक व्यक्ति के बैठने लायक थी और चप्पू से चलाई जाती थी। यह नाव आज भी ड्रेंथे म्यूज़ियम (Drents Museum) में सुरक्षित रखी गई है और इसे मानव सभ्यता का पहला परिवहन यंत्र माना जाता है। यह मानव की पहली सामूहिक सवारी थी, एक नाव, जिसमें एक से अधिक व्यक्ति सवार होकर नदी पार कर सकते थे।नावों ने लोगों को पहली बार यह एहसास कराया कि यात्रा अकेले नहीं, मिलकर भी की जा सकती है। यही विचार आगे चलकर “सार्वजनिक परिवहन” की नींव बना।
नाव बनाने की प्रारंभिक तकनीकें
प्रारंभ में नावें केवल लकड़ी के तनों से बनती थीं, लेकिन धीरे-धीरे मनुष्य ने तकनीक में सुधार किया-
1. लकड़ी को जलाकर अंदर से खोखला किया जाता था – जिससे वह हल्की और तैरने योग्य बने।
2. पशु की खाल और पेड़ों की छाल का इस्तेमाल – कुछ जनजातियों ने लकड़ी के फ्रेम पर जानवरों की खाल लपेटकर नाव बनाई।
3. बांस और घास से बनी नावें – भारत, चीन और मिस्र जैसे क्षेत्रों में बांस और सरकंडे से हल्की नावें तैयार की जाती थीं।
सभ्यताओं में नावों का विकास
मिस्र की सभ्यता (Egyptian Civilization)- मिस्रवासी नील नदी के किनारे बसे थे। उन्होंने पपीरस (Papyrus Reeds) से नावें बनाईं। बाद में लकड़ी और पाल (Sail) लगाकर नावों को दिशा देने का तरीका विकसित किया। यह दुनिया की पहली पाल वाली नावें (Sailing Boats) थीं। लगभग 3,000 ईसा पूर्व, मनुष्य ने नावों में पाल लगाना सीखा। इससे हवा की दिशा के अनुसार नाव बिना चप्पू के चलने लगी। फिर आई “पतवार” जिससे नाव की दिशा नियंत्रित की जा सके। इस आविष्कार ने नाव को “जहाज़” (Ship) में बदल दिया। यही तकनीक बाद में समुद्री यात्रा और खोज-अभियानों (Voyages) की जननी बनी।
नदियों ने जोड़ा समाज, नावों ने बनाया सभ्यता का पुल
सिंधु घाटी सभ्यता, मिस्र की नील सभ्यता, और मेसोपोटामिया, तीनों सभ्यताएं नदियों के किनारे विकसित हुईं। इन सभ्यताओं में नावें न केवल व्यापार का माध्यम थीं, बल्कि संस्कृति और संवाद की वाहक भी। मिस्र के लोग नील नदी पर नावों से अनाज, पत्थर, और लोगों को ले जाते थे। सिंधु घाटी में “लोथल बंदरगाह” (वर्तमान गुजरात) नाव आधारित व्यापार का सबसे पुराना प्रमाण है। वहीं मेसोपोटामिया में यूफ्रेटीज़ और टिगरिस नदियों पर लकड़ी की नावें मालवाहक परिवहन करती थीं। इन नावों ने ही पहली बार मनुष्यों को दूरस्थ क्षेत्रों से जोड़ा, और इस जुड़ाव ने सभ्यता की गति को जन्म दिया।
पहला सार्वजनिक परिवहन नेटवर्क- जलमार्ग
आधुनिक शब्दों में कहें तो उन दिनों नावें ही “बस” या “रेल” थीं। लोग नदियों के किनारे रहते, और नावें उन्हें बाजार, मठ, या दूसरे गावों तक पहुंचाती। मिस्र में राजा के आदेश से नील नदी पर नावों की “राजकीय सेवाएं” चलाई जाती थीं। ये पहला सरकारी परिवहन नेटवर्क माना जा सकता है। भारत में गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र, नर्मदा और गोदावरी जैसी नदियां हज़ारों सालों से परिवहन का माध्यम रही हैं। भारत में नावें न केवल परिवहन बल्कि संस्कृति और आध्यात्मिक जीवन का हिस्सा रही हैं। वाराणसी, प्रयागराज, ढाका और केरल में आज भी पारंपरिक नावें चलती हैं। केरल की चंदनवल्ली नाव दौड़ (Vallamkali) नाव संस्कृति का जीवित उदाहरण है। पूर्वोत्तर भारत के ब्रह्मपुत्र किनारे मछुआरों की नावें आज भी हज़ारों साल पुरानी तकनीक से बनती हैं।
नावों ने बदल दिया मानव जीवन
नाव के आविष्कार से मानव को मिला-
1. व्यापार का मार्ग — नदियों के किनारे बसे नगर समृद्ध हुए।
2. संवाद और संस्कृति का प्रसार — लोग दूर-दराज़ के समाजों से जुड़े।
3. यात्रा की स्वतंत्रता — अब मनुष्य सीमाओं से परे जाने लगा।
4. सभ्यता का विस्तार — जहां नाव पहुंची, वहीं शहर और सभ्यताएं उभरीं।
जमीन पर आया परिवहन- बैलगाड़ी और रथों का युग
जब कृषि और व्यापार बढ़ा, तो मनुष्य ने स्थलीय मार्गों की तलाश की। पहला सार्वजनिक जमीनी परिवहन बैलगाड़ी थी, जिसमें गांव के लोग मिलकर यात्रा करते थे। भारत में बैलगाड़ी को “ग्राम यात्रा वाहन” कहा गया, जो साझा परिवहन की सबसे सरल इकाई थी। मेसोपोटामिया में लगभग 3,000 ईसा पूर्व में पहिये का आविष्कार हुआ, जिसने परिवहन की दिशा बदल दी। इसके बाद मिस्र और भारत में रथों और रथयात्राओं का चलन शुरू हुआ, जो धार्मिक और सामाजिक समारोहों में सार्वजनिक यात्रा का प्रतीक बने।
औद्योगिक क्रांति और सार्वजनिक परिवहन का पुनर्जन्म
18वीं सदी में जब भाप इंजन का आविष्कार हुआ, तब परिवहन ने नया रूप लिया। 1825 में इंग्लैंड में चली स्टॉकटन-डार्लिंगटन रेलवे दुनिया की पहली सार्वजनिक ट्रेन थी। इसके बाद ट्रेनें भारत, यूरोप और अमेरिका तक फैल गईं। भारत में 1853 में मुंबई से ठाणे तक चली पहली ट्रेन ने इतिहास रचा। उसमें सिर्फ ब्रिटिश अफसर नहीं, आम भारतीय नागरिक भी सवार हुए, और यही वह पल था जब भारत ने सार्वजनिक परिवहन का नया अध्याय शुरू किया।
बस, ट्राम और मेट्रो- शहरों की धड़कन
ट्रेन के बाद शहरों में बस और ट्राम ने जनजीवन को गति दी। 1828 में फ्रांस में पहली घोड़ा-चालित बस चली। भारत में 1926 में मुंबई में मोटर बस सेवा शुरू हुई। आज बसें हर वर्ग के लिए सबसे सुलभ परिवहन साधन हैं। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई और लखनऊ जैसे शहरों में मेट्रो रेल ने आधुनिक भारत की सार्वजनिक यात्रा को नया रूप दिया है।
साइकिल से लेकर ई-स्कूटर तक – सार्वजनिक परिवहन का नया दौर
21वीं सदी में सार्वजनिक परिवहन सिर्फ बस और रेल तक सीमित नहीं रहा। अब दुनिया भर में साइकिल शेयरिंग, ई-स्कूटर, और साझा कैब सेवाएं (Uber, Ola, Rapido) एक नई परिवहन संस्कृति बना रही हैं। ये पर्यावरण-मित्र और कम-खर्चीले विकल्प हैं, जो शहरों के कार्बन उत्सर्जन को घटा रहे हैं। एक निजी वाहन की तुलना में सार्वजनिक परिवहन तीन गुना कम ऊर्जा खर्च करता है, चार गुना कम कार्बन उत्सर्जन करता है और सड़क जाम को 40 प्रतिशत तक घटाता है। विश्व बैंक की रिपोर्ट (2024) के अनुसार, अगर एशिया के बड़े शहरों में लोग निजी वाहनों की बजाय सार्वजनिक परिवहन को अपनाएं तो अगले 20 वर्षों में 70 लाख टन कार्बन उत्सर्जन घटाया जा सकता है।
भारत में सार्वजनिक परिवहन की वर्तमान स्थिति
भारत में रोज़ाना करीब 7 करोड़ लोग बसों से यात्रा करते हैं। रेलवे प्रतिदिन दो करोड़ यात्रियों को अपने गंतव्य तक पहुंचाता है। दिल्ली मेट्रो अकेले में 60 लाख से अधिक यात्रियों को रोज़ाना सफ़र कराती है। सरकार अब “नेशनल अर्बन ट्रांसपोर्ट मिशन” के तहत सभी बड़े शहरों में इलेक्ट्रिक बसें, स्मार्ट कार्ड और इंटीग्रेटेड टिकटिंग सिस्टम लागू कर रही है।2025 तक भारत का लक्ष्य है कि सार्वजनिक परिवहन की हिस्सेदारी 50 फ़ीसदी तक बढ़ाई जाए।
जल परिवहन की वापसी- नावों का आधुनिक अवतार
दिलचस्प बात यह है कि जिस नाव से सार्वजनिक परिवहन की शुरुआत हुई थी, वही अब आधुनिक रूप में फिर लौट रही है। भारत सरकार “राष्ट्रीय जलमार्ग योजना (National Waterways Project)” के तहत गंगा, ब्रह्मपुत्र और गोदावरी नदियों को फिर से व्यापार और यात्रियों के मार्ग के रूप में विकसित कर रही है। वाराणसी से हल्दिया तक चलने वाली Inland WaterWay 1 आधुनिक नाव परिवहन का उत्कृष्ट उदाहरण है, जहां अब यात्री नावों में सफर करते हैं, जो कार्बन मुक्त और ऊर्जा-सक्षम हैं।
मानव सभ्यता और सार्वजनिक परिवहन का दार्शनिक रिश्ता
सार्वजनिक परिवहन केवल यात्रा का माध्यम नहीं! यह साझा अस्तित्व का प्रतीक है। नाव हो या ट्रेन, बस हो या मेट्रो, जब हम एक साथ यात्रा करते हैं, तो हम साझा जिम्मेदारी और साझा संस्कृति का हिस्सा बनते हैं। साझा परिवहन सिखाता है कि, “सभ्यता तब आगे बढ़ती है, जब इंसान अपने सफर में दूसरों को जगह देता है।” दुनिया अब नेट-ज़ीरो उत्सर्जन परिवहन की ओर बढ़ रही है। इलेक्ट्रिक बसें, हाइड्रोजन ट्रेनें और सोलर फेरी नावें आने वाले समय की सच्ची झलक हैं। भारत ने 2047 तक “शून्य कार्बन परिवहन मिशन” का लक्ष्य रखा है। इसमें हर सार्वजनिक वाहन को पर्यावरण-अनुकूल ऊर्जा स्रोतों में बदलने की योजना है।
नाव से मेट्रो तक, यात्रा का सार एक ही है
मानव सभ्यता का पहला सार्वजनिक परिवहन नाव थी, और आज मेट्रो, बस, ट्रेन और एयरलाइंस उसी यात्रा की आधुनिक व्याख्या हैं। नाव ने हमें सिखाया था कि, “यात्रा तभी सार्थक है, जब वह सभी के लिए हो।” आज जब हम पर्यावरण, ऊर्जा और ट्रैफिक की चुनौतियों से जूझ रहे हैं, तो हमें फिर उसी नाव की ओर लौटना होगा जहां यात्रा साझी थी, सरल थी, और स्थायी थी। आज भी वही सवाल – “साथ चलना है या अकेले?”
21वीं सदी के महानगरों में, जहां हर व्यक्ति अपने वाहन में बंद है, जहां सड़कों पर भीड़ है पर साथ चलने का भाव नहीं, वहीं सार्वजनिक परिवहन हमें याद दिलाता है कि साझा यात्रा ही सभ्यता की असली पहचान है।
सार्वजनिक परिवहन- समानता का पाठ
हर बस, हर ट्रेन, हर मेट्रो कोच मानवता की चलती-फिरती पाठशाला है, जहां अमीर-गरीब, महिला-पुरुष, बूढ़ा-बच्चा सब एक समान सीट पर बैठते हैं। यहां कोई भेदभाव नहीं, बस मंज़िल साझा है। पर्यावरण और संवेदना का संगम सार्वजनिक परिवहन केवल ऊर्जा-बचत का साधन नहीं, बल्कि यह संवेदना की अर्थव्यवस्था है। जब एक बस 50 लोगों को एक साथ ले जाती है, तो वह न केवल ईंधन बचाती है, बल्कि समाज को जोड़ने की एक “मानवीय डोर” भी बुनती है। प्रकृति ने भी हमें यही सिखाया है, नदी अकेले नहीं बहती, वह अपने साथ हर बूंद को लेकर चलती है। आज जब पृथ्वी ग्लोबल वार्मिंग, प्रदूषण और ऊर्जा संकट से जूझ रही है, तो हमें फिर उसी नाव के दर्शन को समझना होगा। वही नाव जिसने पहली बार सिखाया था कि, “यात्रा सामूहिक हो तो मंज़िल स्थायी बनती है।”
एक सफ़र, एक दिशा, एक सवारी
नाव से मेट्रो तक, यात्रा का सार एक ही है, साझा ज़िम्मेदारी, साझा सुख, और साझा सफर। सार्वजनिक परिवहन इस युग का केवल तंत्र नहीं, यह मानव सभ्यता की आत्मा है। अगर नाव मानव सभ्यता की पहली सांस थी, तो मेट्रो उसका आधुनिक हृदय है। दोनों में एक समानता है- साथ चलना ! और शायद यही संदेश आज सबसे अधिक प्रासंगिक है कि प्रगति अकेले की नहीं होती, वह तब होती है जब समाज एक नाव में सवार होकर एक दिशा में आगे बढ़े।
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