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October 2, 2025

काशी में 258 वर्षों बाद भी मां दुर्गा की प्रतिमा का नहीं हुआ विसर्जन

The CSR Journal Magazine
धर्म, शिक्षा, चिकित्सा और अध्यात्म की नगरी काशी के नाम एक से बढ़कर एक उपलब्धियां जुड़ी हुई हैं। इन दिनों शारदीय नवरात्र की पावन बेला चल रही है। बनारस में नवरात्र को बहुत ही खास अंदाज में मनाए जाने के लिए जाना जाता है। शहर में मदनपुरा के पुरातन दुर्गाबाड़ी स्थान की बड़ी महत्ता है और कई कहानियां जुड़ी हुई हैं। यहां 258 साल पुरानी मिट्टी की बनी मां दुर्गा की प्रतिमा को देख कर कम आश्चर्य नहीं होता है। यहां की देवी प्रतिमा को बनाने वाले कलाकार की कारीगरी कहिए या चमत्कार। सन 1767 के आसपास स्थापित इस प्रतिमा का आज तक विसर्जन नहीं किया जा सका है। मदनपुरा के पुरातन दुर्गाबाड़ी में प्रति वर्ष पारंपरिक अंदाज में पूजा लगातार होती आ रही है। इस पुरातन प्रतिमा का नवरात्र पर विशेष पूजन भी किया जाता है।

मुखर्जी परिवार ने 1767 में स्थापित की मां की प्रतिमा

1767 में नवरात्रि पर बंगाल के एक मुखर्जी परिवार ने वाराणसी में मां दुर्गा की एक ऐसी प्रतिमा स्थापित की, जो आज तक विसर्जित नहीं की जा सकी। मूर्ति में आज न तो कोई खरोंच है और न ही रखरखाव का कोई खर्चा। मां दुर्गा की इच्छानुसार 258 साल से केवल चना और गुड़ का भोग लगाया जा रहा है। दरअसल, बंगाल के हुगली से बनारस आए प्रसन्न मुखर्जी नाम के एक दुर्गाभक्त ने मदनपुरा के गुरुणेश्वर महादेव मंदिर के पास यह प्रतिमा नवरात्रि के पहले दिन स्थापित की।

मां दुर्गा ने जताई काशीवास की इच्छा

मुखर्जी परिवार के वंशज पं. हेमंत मुखर्जी बताते हैं कि नवमी पर भक्त प्रसन्न के सपने में मां दुर्गा आईं और बोलीं कि मुझे काशीवास करना है। गंगा में मत बहाना। बस चना और गुड़ पर मेरा गुजारा हो जाएगा। मगर, दशमी की सुबह मूर्ति विसर्जन पर प्रतिमा उठाने की तैयारी होने लगी। 4 लोगों से मूर्ति नहीं हिली तो धीरे-धीरे 60 से अधिक लोग और पहलवान बुलाए गए, लेकिन मां को टस-से-मस तक नहीं कर सके।
इसके बाद भक्त मुखर्जी को रात में देखा गया सपना याद आया। उसने तत्काल मना किया कि मां का विसर्जन नहीं होगा। तब से आज तक मिट्टी और पुआल की बनी यह प्रतिमा काशी की विरासत के रूप में जानी जाती है। दुर्गापूजा में मंदिर खोला जाता है और रोजाना 6 हजार श्रद्धालु दर्शन करते हैं। पंडित हेमंत मुखर्जी के अनुसार रंग-रोगन के अलावा मूर्ति के रख-रखाव पर कोई खर्च नहीं होता। इसके अलावा उन्हीं के बगल में काले पत्थर से बनी 11वीं शताब्दी की भगवान विष्णु की भी मूर्ति स्थापित है।

पूरे साल होती है पूजा

मुखर्जी परिवार से जुड़े एक सदस्य के अनुसार 1767 से अब तक हर दिन हमारे परिवार के लोग श्रद्धाभाव से देवी को जो भी होता है, भोग स्वरूप अर्पण करते हैं और पूरे साल उनकी पूजा करते हैं। नवरात्रि के नौ दिनों में यहां कलश स्थापना भी होती है और विशेष पूजन भी किया जाता है। यह देवी का चमत्कार ही है की उनकी यह साधारण सी प्रतिमा आज भी सुतक्षित है। मां दुर्गा के इस शक्तिपीठ पर नवरात्रि में भक्त आते है और मां का आशीर्वाद लेते है।

248 साल से हो रही मां की महापाया पालकी में विदाई

6 साल बाद 1773 में बनारस के बंगाली ड्योढ़ी में दुर्गापूजा को भव्य रूप से मनाया जाने लगा। बंगाल से आए राजा राजेंद्र मित्र के निर्देश पर देवी को चांदी के सिंहासन पर विराजमान किया गया जो कि 18वीं सदी के कुशल कारीगरों द्वारा बनाया गया था। इसमें स्थापित होने वाली मूर्ति पर हर दुर्गापूजा पर सोने का पत्तर चढ़ाया जाता था। वहीं यहां से मां दुर्गा की विदाई महापाया पालकी में होती है। परंपरा यह भी है कि बनारस में सबसे पहले बंगाली ड्योढ़ी की प्रतिमा विसर्जित होती है।

बंगाली ड्योढ़ी परिवार ने काशी में शुरू की दुर्गा पूजा

काशी में दुर्गापूजा की शुरुआत कब हुई, इसके बारे में कोई सटीक जानकारी नहीं है। लेकिन बनारस में पहली बार 18वीं सदी के तीन या चार दशक में सन 1730 से 1740 के बीच में बंगाल के कुछ अमीर परिवारों का गृहस्थ के रूप में काशी आना शुरू हुआ। इसमें सबसे पहले चौखम्भा मुहल्ले के बंगाली ड्योढ़ी के मित्र परिवार के लोग आये। उन्होंने ही दुर्गापूजा की आधारशिला रखते हुआ प्रतिमा स्थापित कर पूजा व पंडाल की शुरुआत की। समय के गुजरने के साथ ही डेढ़ दशक के अंदर ही कई दर्जन संपन्न बंगीय परिवार काशी की पवित्र धरती पर आए। इसमें प्रमुखता से केदारघाट इलाके के दीवान इन्द्रनारायण बापुली का परिवार रहा। इसी शहर के गरुणेश्वर मुहल्ला (मदनपुरा) में सन 1767 के आसपास मुखर्जी परिवार के सदस्यों को भी काशी आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। यहां पर पहले से ही बंगलावासियों की बहुलता थी। इन्हीं में हुगली जिले के मदन मुखर्जी का परिवार रहा। इसी परिवार नें बंगला संस्कृति की प्रतीक मां दुर्गा की प्रतिमा स्थापित कर पूजा आरंभ किया।

दुर्गाबाड़ी में स्थित मां दुर्गा की प्रतिमा

बनारस में व्यापक तौर पर दुर्गापूजा की शुरुआत हो गई। यहीं पर गरुणेश्वर महादेव मंदिर के बगल में पुरातन दुर्गाबाड़ी स्थित है, जहां पर मिट्टी की बनी मां दुर्गा की प्रतिमा विद्यमान है। सन 1767 के आसपास स्थापित इस प्रतिमा का आज तक विसर्जन नहीं किया गया है। पुरातन दुर्गाबाड़ी में यह पूजा बरसों से लगातार होती चली आ रही है। तब से लेकर आज तक प्रतिमा अपने मौलिक रूप में बरकरार है।

मिट्टी व पुआल की आलौकिक प्रतिमा

कच्ची मिट्टी व पुआल की बनी मां दुर्गा की प्रतिमा का इतने सालों तक इसी तरह रहना भी वैज्ञानिकता से कम नहीं है। सन 1973 के आसपास दुर्गाबाड़ी और प्रतिमा का जीर्णोद्धार कराया गया था। प्रतिमा का शस्त्र हर साल बदला जाता है। इस प्रतिमा की अलौकिक छटा देखकर कोई नहीं कह सकता है कि यह इतनी प्राचीन भी हो सकती है। मां के विर्सजन के दिन प्रतिमा को हटाया नहीं जा सका। उस दिन के बाद से आम दिनों में गुड़ और चने से पूजा होती है। पुराने नियमों में कोई बदलाव नहीं है। षष्टी, सप्तमी, अष्टमी और नवमी को देवी दुर्गा की विशेष पूजा होती है।
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