8 नवंबर के दिन वसई-पूर्व के श्री हनुमंत विद्यामंदिर हाई स्कूल में एक 13 वर्षीय छात्रा के लेट आने के कारण 100 उठक-बैठक करवाने के बाद मौत की खबर ने पूरे इलाके में गहरा सदमा और भारी रोष उत्पन्न कर दिया। बच्ची की मौत से न केवल अभिभावक बल्कि सामाजिक संगठनों और शिक्षा अधिकारियों में भी गहरा तनाव देखा गया।
13 वर्षीय छात्रा से 100 उठक-बैठक, बिगड़ी तबीयत और चली गई जान
वसई पूर्व स्थित श्री हनुमंत विद्यामंदिर हाई स्कूल में कक्षा 6 की 13 वर्षीय छात्रा काजल गौड़ की मौत ने पूरे राज्य को झकझोर कर रख दिया। स्कूल देर से पहुंचने पर दी गई कठोर शारीरिक सज़ा ही इस मासूम की मौत का कारण बनी। इस घटना ने केवल एक छात्रा की मौत नहीं, बल्कि उस मानसिकता पर सवाल उठाया जहां अनुशासन के नाम पर बच्चों की सेहत और जीवन से खिलवाड़ किया जाता है।
लेट आने की सज़ा बनी मौत का सबब
घटना के दिन यानि 8 नवंबर के दिन काजल गौड़ कुछ मिनट देर से स्कूल पहुंची थी। इसी बात से नाराज़ होकर एक शिक्षिका ने उसे सज़ा के तौर पर स्कूल परिसर में 100 उठक-बैठक करने को कहा। छात्रा से यह शारीरिक अभ्यास स्कूल बैग सहित करवाया गया। उठक बैठक के दौरान उसकी हालत बिगड़ती चली गई, लेकिन किसी ने समय रहते इसे गंभीरता से नहीं लिया। स्कूल से घर लौटने के बाद काजल को तेज़ दर्द, सांस लेने में तकलीफ और अत्यधिक कमजोरी महसूस होने लगी। उसकी हालत शाम तक बिगड़ गई और परिवार ने उसे पास के स्थानीय अस्पताल में दाखिल कराया। बाद में स्वास्थ्य बिगड़ने पर उसे मुंबई के JJ अस्पताल में स्थानांतरित किया गया, जहां लगभग एक सप्ताह बाद 14 नवंबर को उनकी मृत्यु हो गई।
पोस्टमार्टम के बाद परिवार का छलका दर्द
पोस्टमॉर्टम में बताया गया कि काजल शरीर में पहले से कमज़ोरी और स्वास्थ्य समस्याओं (जैसे एनीमिया/अस्थमा जैसी स्थिति) के कारण इस कष्टकर शारीरिक कसरत को सहन नहीं कर पाईं। स्वास्थ्य अधिकारियों का कहना है कि अत्यधिक शारीरिक श्रम से आंतरिक चोट और पल्मोनरी जटिलताओं के कारण उनकी मृत्यु हुई। परिजनों का कहना है कि उनकी बेटी को किसी तरह की जानलेवा सज़ा देना अमानवीय था। परिवार ने आरोप लगाया कि स्कूल प्रशासन ने घटना को छिपाने की कोशिश की और समय पर मेडिकल सहायता नहीं दी गई। एक होनहार बच्ची, जो रोज़ की तरह स्कूल पढ़ने गई थी, वह कभी लौटकर नहीं आई।
राज्य सरकार ने की स्कूल की मान्यता रद्द !
Waliv पुलिस ने काजल को सज़ा देने वाली शिक्षिका ममता यादव के ख़िलाफ़ निगल हत्या (Culpable Homicide Not Amounting To Murder) के आरोप में FIR दर्ज की और बाद में उन्हें गिरफ़्तार किया। अभिभा वकों ने स्कूल और शिक्षक के ख़िलाफ़ पुलिस में लिखित शिकायत दर्ज कराई, जिसमें इसे क्रूर शारीरिक सज़ा बताया गया। छात्रा की मौत के एक महीने बाद 14 दिसम्बर को राज्य सरकार ने इस घटना को गंभीर मानते हुए श्री हनुमंत विद्यामंदिर स्कूल की मान्यता रद्द कर दी है। स्कूल को 2026-27 शैक्षणिक वर्ष के लिए नामांकन की अनुमति नहीं दी जाएगी। जांच में यह भी पाया गया कि स्कूल कई अनधिकृत कक्षाओं (कक्षा 9 व 10) चला रहा था तथा अनिवार्य सुरक्षा और शिक्षक प्रमाणपत्रों की अनुपालना नहीं की गई थी। इसके अलावा तीन शिक्षा अधिकारियों को भी सस्पेंड किया गया है, क्योंकि उन्होंने स्कूल के गैर-कानूनी संचालन और सुरक्षा मानकों की अनुपालना पर कोई कार्रवाई नहीं की।
कानून और नियमों की खुली अवहेलना- पहले भी हुए हादसे
देश में बच्चों को शारीरिक दंड देना कानूनन प्रतिबंधित है। इसके बावजूद स्कूलों में आज भी उठक-बैठक, मुर्गा बनाना, धूप में खड़ा करना जैसी सजाएं आम बात बनी हुई हैं। यह घटना दिखाती है कि नियम काग़ज़ों तक सीमित हैं और ज़मीनी स्तर पर उनका पालन नहीं हो रहा। यह पहली बार नहीं है जब अनुशासन के नाम पर किसी बच्चे की जान गई हो! कुछ वर्ष पहले एक सरकारी स्कूल में छात्र से लगातार दौड़ लगवाई गई, जिससे वह बेहोश होकर गिर पड़ा और बाद में उसकी मौत हो गई। एक अन्य मामले में शिक्षक द्वारा थप्पड़ मारे जाने से छात्र को गंभीर चोट आई और लंबे इलाज के बाद भी वह बच नहीं सका। कई राज्यों में ऐसे उदाहरण सामने आए हैं जहां बच्चों को घंटों धूप में खड़ा रखा गया, जिससे उनकी तबीयत बिगड़ी और अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। इन घटनाओं के बाद हर बार जांच, बयान और आश्वासन दिए गए, लेकिन हालात जस के तस बने रहे।
भय के माहौल में शिक्षा संभव ?
स्कूलों का उद्देश्य बच्चों को सुरक्षित वातावरण में शिक्षा देना होता है, न कि उन्हें डर और हिंसा के साए में रखना। जब शिक्षक दंड के ज़रिये अनुशासन लागू करते हैं, तो शिक्षा का मूल उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है। ऐसे मामलों में सबसे अधिक नुकसान बच्चों के मानसिक और शारीरिक विकास को होता है। इस घटना ने शिक्षा विभाग, स्कूल प्रबंधन और निगरानी तंत्र की कार्यप्रणाली पर भी गंभीर सवाल खड़े किए हैं। यदि समय रहते स्कूलों की नियमित जांच होती और नियमों का सख़्ती से पालन कराया जाता, तो शायद यह मासूम जान बच सकती थी।
एक मौत, कई सवाल
यह केवल एक स्कूल या एक शिक्षक की गलती नहीं, बल्कि पूरे समाज के लिए चेतावनी है। जब तक अभिभावक, शिक्षक और प्रशासन मिलकर बच्चों के अधिकारों और सुरक्षा को प्राथमिकता नहीं देंगे, तब तक ऐसे हादसे दोहराते रहेंगे। काजल गौड़ की मौत शिक्षा व्यवस्था पर लगा वह काला धब्बा है, जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। यह घटना मांग करती है कि शारीरिक दंड पर केवल प्रतिबंध ही नहीं, बल्कि उसका सख़्ती से पालन भी हो। वरना अनुशासन के नाम पर मासूम ज़िंदगियां यूं ही कुचली जाती रहेंगी।
अनुशासन नहीं, अपराध- स्कूलों में शारीरिक दंड और कानून की अनदेखी
वसई के स्कूल में 13 वर्षीय छात्रा की मौत कोई आकस्मिक दुर्घटना नहीं, बल्कि कानून, संवेदनशीलता और ज़िम्मेदारी की सामूहिक विफलता है। अनुशासन के नाम पर एक नाबालिग को दी गई अमानवीय शारीरिक सज़ा ने यह साफ कर दिया है कि हमारे शिक्षा संस्थानों में कानून का डर अब भी कितना कमज़ोर है। यह सवाल अब केवल नैतिक नहीं रहा, यह कानूनी जवाबदेही का विषय बन चुका है। भारतीय कानून बच्चों के साथ किसी भी प्रकार की शारीरिक या मानसिक प्रताड़ना को स्पष्ट रूप से अपराध मानता है। शिक्षा का अधिकार कानून बच्चों को भय-मुक्त और सुरक्षित वातावरण देने की गारंटी देता है। इसके बावजूद स्कूलों में उठक-बैठक, मुर्गा बनाना और सार्वजनिक अपमान जैसी सजाएं आज भी “हल्का अनुशासन” समझी जाती हैं। कानून की दृष्टि में यह कॉरपोरल पनिशमेंट है, और यह सीधे तौर पर दंडनीय अपराध की श्रेणी में आता है।
लापरवाही से हत्या तक: अपराध की गंभीरता
इस मामले में सवाल यह नहीं कि शिक्षक का इरादा हत्या का था या नहीं। कानून यह देखता है कि क्या आरोपी को अपने कृत्य के संभावित परिणामों का अंदाज़ा होना चाहिए था। एक नाबालिग से 100 उठक-बैठक करवाना, वह भी स्कूल बैग सहित, स्पष्ट रूप से जानलेवा जोखिम को दर्शाता है। यही कारण है कि यह मामला साधारण लापरवाही नहीं, बल्कि गंभीर आपराधिक लापरवाही और गैर-इरादतन हत्या की श्रेणी में आता है।
स्कूल प्रबंधन की सामूहिक जिम्मेदारी
कानून केवल शिक्षक तक सीमित नहीं होता। स्कूल प्रबंधन, प्रधानाचार्य और संचालन समिति भी इस घटना के लिए समान रूप से ज़िम्मेदार हैं। यदि स्कूल में ऐसी सजाएं दी जा रही थीं, तो यह संस्थागत विफलता का संकेत है। कानून के अनुसार, यदि किसी संस्था की नीतियां या लापरवाही किसी बच्चे की मौत का कारण बनती हैं, तो संस्था पर भी आपराधिक दायित्व बनता है।
प्रशासनिक चूक: निगरानी तंत्र की असफलता
शिक्षा विभाग की भूमिका केवल परिपत्र जारी करने तक सीमित नहीं हो सकती। स्कूलों की नियमित जांच, शिकायतों की सुनवाई और नियमों का सख़्त पालन सुनिश्चित करना प्रशासन की कानूनी ज़िम्मेदारी है। यदि निरीक्षण सही समय पर होता, तो यह घटना रोकी जा सकती थी। कानून यह भी मानता है कि कर्तव्य में लापरवाही अपने-आप में दंडनीय है। भारतीय संविधान बच्चों को जीवन, सम्मान और सुरक्षा का अधिकार देता है। स्कूल कोई जेल नहीं, जहां डर से अनुशासन कायम किया जाए। जब शिक्षा संस्थान बच्चों के मूल अधिकारों का उल्लंघन करते हैं, तो वे स्वयं अपराधी बन जाते हैं। यह घटना याद दिलाती है कि अनुशासन का अर्थ नियंत्रण नहीं, बल्कि समझ और मार्गदर्शन होना चाहिए।
न्याय केवल सज़ा नहीं, सबक भी !
इस मामले में दोषियों को सज़ा देना पर्याप्त नहीं होगा। ज़रूरत इस बात की है कि यह फैसला एक नज़ीर बने, ताकि भविष्य में कोई भी शिक्षक या स्कूल कानून को हल्के में लेने का साहस न करे। जब तक कड़े फैसले नहीं होंगे, तब तक ऐसे मामलों में “गलती हो गई” कहकर जान बचाने की प्रवृत्ति जारी रहेगी। कानून तभी प्रभावी होता है जब समाज उसे लागू करने में भागीदार बने। अभिभावकों को चुप नहीं रहना चाहिए, बच्चों को बोलने का हक़ मिलना चाहिए और स्कूलों को यह समझना होगा कि अनुशासन का मतलब हिंसा नहीं होता।
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