पाकिस्तान की लाहौर यूनिवर्सिटी ऑफ मैनेजमेंट साइंसेज़ (LUMS) में बंटवारे के बाद पहली बार शुरू हुआ संस्कृत पाठ्यक्रम, शिक्षा और सांस्कृतिक संवाद की नई पहल के रूप में देखा जा रहा कदम!
बंटवारे में बंटी संस्कृत फिर लौटी लाहौर!
भारत-पाकिस्तान विभाजन के करीब आठ दशक बाद इतिहास में पहली बार पाकिस्तान के किसी प्रमुख शैक्षणिक संस्थान में संस्कृत भाषा औपचारिक रूप से कक्षा में लौटी है। लाहौर यूनिवर्सिटी ऑफ मैनेजमेंट साइंसेज़ (LUMS) ने शैक्षणिक सत्र के लिए संस्कृत का एक चार-क्रेडिट अकादमिक कोर्स शुरू किया है। यह पहल न केवल पाकिस्तान की उच्च शिक्षा व्यवस्था में एक दुर्लभ उदाहरण है, बल्कि उपमहाद्वीप की साझा सांस्कृतिक और बौद्धिक विरासत को समझने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम भी मानी जा रही है।
LUMS की ऐतिहासिक पहल
LUMS का यह संस्कृत कोर्स वैकल्पिक (Elective) विषय के रूप में पेश किया गया है, जिसे मानविकी और सामाजिक विज्ञान के छात्रों के लिए डिज़ाइन किया गया है। कोर्स का उद्देश्य केवल भाषा सिखाना नहीं, बल्कि छात्रों को संस्कृत साहित्य, दर्शन, प्राचीन ग्रंथों और दक्षिण एशिया के बौद्धिक इतिहास से परिचित कराना है। विश्वविद्यालय प्रशासन का मानना है कि संस्कृत को समझे बिना भारतीय उपमहाद्वीप की ऐतिहासिक सोच, दर्शन और सामाजिक संरचनाओं को पूरी तरह समझ पाना संभव नहीं है।
डॉ. शाहिद राशीद की भूमिका
इस पहल के पीछे सबसे अहम भूमिका रही है डॉ. शाहिद राशीद, जो फॉर्मन क्रिश्चियन कॉलेज, लाहौर में समाजशास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर हैं। डॉ. राशीद ने वर्षों तक संस्कृत भाषा और उसके सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभावों पर अध्ययन किया है। उन्होंने न केवल संस्कृत सीखी, बल्कि इसके ग्रंथों को आधुनिक समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से समझने की कोशिश भी की। डॉ. राशीद का मानना है कि संस्कृत को केवल धार्मिक या किसी एक समुदाय से जोड़कर देखना एक सीमित दृष्टि है। उनके अनुसार, “संस्कृत दक्षिण एशिया की साझा बौद्धिक धरोहर है। यह भाषा बौद्ध, जैन, हिंदू और यहां तक कि प्रारंभिक इस्लामी विद्वानों के विमर्श में भी किसी न किसी रूप में मौजूद रही है।” उनके प्रयासों और अकादमिक प्रस्ताव के बाद ही LUMS ने इस कोर्स को स्वीकृति दी।
पाकिस्तान में संस्कृत का इतिहास
विभाजन से पहले, आज के पाकिस्तान के क्षेत्रों में संस्कृत अध्ययन पूरी तरह असामान्य नहीं था। लाहौर, पेशावर और तक्षशिला जैसे क्षेत्र प्राचीन काल में शिक्षा और दर्शन के बड़े केंद्र रहे हैं। तक्षशिला विश्वविद्यालय में संस्कृत और उससे जुड़ी भाषाओं का अध्ययन होता था। हालांकि 1947 के बाद धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक कारणों से संस्कृत को शिक्षा प्रणाली से लगभग पूरी तरह हटा दिया गया। ऐसे में LUMS की यह पहल एक ऐतिहासिक वापसी के रूप में देखी जा रही है।
छात्रों और अकादमिक जगत की प्रतिक्रिया
LUMS में इस कोर्स को लेकर छात्रों के बीच उत्सुकता देखी जा रही है। कई छात्र इसे दक्षिण एशियाई इतिहास, भाषाविज्ञान और दर्शन को समझने का अनूठा अवसर मान रहे हैं। वहीं पाकिस्तान के अकादमिक हलकों में इसे बौद्धिक खुलेपन और शैक्षणिक साहस का प्रतीक कहा जा रहा है। कुछ आलोचनात्मक स्वर भी सामने आए हैं, जो इसे अनावश्यक या संवेदनशील मानते हैं, लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन का कहना है कि यह पहल पूरी तरह अकादमिक है और इसका उद्देश्य ज्ञान का विस्तार करना है, न कि किसी वैचारिक एजेंडे को बढ़ावा देना।
सांस्कृतिक संवाद की नई राह
विशेषज्ञों का मानना है कि संस्कृत का यह पुनर्प्रवेश भारत और पाकिस्तान के बीच सांस्कृतिक संवाद के नए रास्ते खोल सकता है। भाषा और ज्ञान पर आधारित ऐसे प्रयास राजनीतिक तनावों से अलग एक मानवीय और बौद्धिक पुल का काम कर सकते हैं।
इतिहास और संस्कृति की साझा विरासत
LUMS द्वारा संस्कृत का चार-क्रेडिट कोर्स शुरू किया जाना केवल एक अकादमिक निर्णय नहीं, बल्कि इतिहास, संस्कृति और साझा विरासत की ओर लौटने का प्रतीक है। डॉ. शाहिद राशीद जैसे विद्वानों के प्रयासों से यह स्पष्ट होता है कि ज्ञान की कोई सीमा नहीं होती और भाषाएं किसी एक देश या धर्म की बपौती नहीं होतीं। पाकिस्तान की कक्षा में संस्कृत की यह वापसी, आने वाले समय में दक्षिण एशिया की शैक्षणिक और सांस्कृतिक सोच को नई दिशा दे सकती है।
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