मुंबई में बच्चों के गुमशुदगी के बढ़ते केस- 36 दिनों में 82 और जून से अब तक 136 नाबालिग लापता, एक चिंताजनक ट्रेंड! मुंबई जैसे मेट्रो शहर में बच्चों के गुमशुदगी के मामले लगातार बढ़ते दिख रहे हैं। ताज़ा आंकड़ों ने पुलिस से लेकर समाजसेवी संस्थाओं तक सभी को चिंता में डाल दिया है। केवल पिछले 36 दिनों में 82 नाबालिगों के लापता होने और जून 2025 से अब तक कुल 136 बच्चों के गुमशुदा होने की खबर ने प्रशासन की गंभीरता और सुरक्षा व्यवस्था पर कई सवाल खड़े कर दिए हैं।
मुंबई में लापता बच्चों के तेज़ी से बढ़ते आंकड़े शहर की सुरक्षा, सोशल स्ट्रक्चर पर गंभीर सवाल !
मुंबई- देश का आर्थिक इंजन, सपनों का शहर, और सुरक्षित महानगर कहलाने वाला यह शहर आज एक ऐसे संकट से जूझ रहा है, जिसकी चर्चा अक्सर आंकड़ों में खो जाती है। लेकिन इन आंकड़ों के पीछे वे चेहरे हैं जो कभी घर वापस नहीं लौटे! नाबालिग बच्चे, जिनकी गुमशुदगी किसी एक परिवार की नहीं, पूरे समाज की त्रासदी है। पिछले 36 दिनों में 82 और जून 2025 से अब तक 136 बच्चों के लापता होने की रिपोर्ट न सिर्फ चौंकाती है, बल्कि यह भी बताती है कि हम एक ऐसे सामाजिक मोड़ पर खड़े हैं जहाँ चेतावनी को अनदेखा करना भारी पड़ेगा।
मुंबई के गुमशुदा बच्चे- शहर की छुपी हुई सच्चाई
मुंबई की तेज़ रफ़्तार जिंदगी के पीछे एक खामोश लेकिन खतरनाक संकट पनप रहा है। पिछले 36 दिनों में 82 नाबालिग और जून 2025 से अब तक कुल 136 बच्चों का गायब होना केवल एक संख्या नहीं, यह सुरक्षा व्यवस्था, सामाजिक संरचना और डिजिटल खतरों की गहरी दरारों का संकेत है। यह रिपोर्ट उन परतों को खोलती है जो इन मामलों के पीछे छिपी वास्तविकताएँ उजागर करती हैं।
तेज़ी से बढ़ते आंकड़े: क्या है 36 दिनों की रिपोर्ट?
मुंबई पुलिस के सूत्रों के अनुसार, पिछले साढ़े पांच हफ्तों (36 दिनों) में 82 नाबालिग शहर के अलग-अलग इलाकों से लापता हुए हैं। यह संख्या सामान्य अवधि की तुलना में कहीं ज्यादा मानी जा रही है। इन मामलों में लगभग 60 प्रतिशत लड़कियां हैं जिनमें अधिकांश की उम्र 13 से 17 वर्ष के बीच है । कई मामलों में बच्चे स्कूल जाते समय, मकान से बाहर खेलने, या काम पर जाने के दौरान गायब हुए !
घटनाओं की टाइमलाइन: बढ़ते केस, घटती सुरक्षा
पुलिस के आंतरिक मिसिंग लॉग्स का अध्ययन बताता है कि बीते डेढ़ महीने में-
• हर 10 घंटे में औसतन 1 बच्चा गायब हुआ,
• 82 लापता बच्चों में 49 लड़कियां और 33 लड़के,
• सबसे अधिक केस अंधेरी, मलाड, जोगेश्वरी, कुर्ला, मानखुर्द, धारावी जैसे इलाकों से।
जून 2025 से अब तक
136 मामलों का विश्लेषण बताता है कि-
• 13–17 वर्ष के उम्र वर्ग में सबसे अधिक गुमशुदगी,
• 30 प्रतिशत किशोरों के मामले में “स्वैच्छिक घर छोड़ना” दर्ज,
• 14 प्रतिशत मामले स्कूल-संबंधी दबाव से जुड़े,
• 12 प्रतिशत मामलों में “अनजान व्यक्तियों के संपर्क” की भूमिका संदिग्ध! ये आंकड़े सामाजिक तनाव, डिजिटल खतरे और अपराधी नेटवर्क के मिश्रण की ओर इशारा करते हैं। पुलिस का कहना है कि इन मामलों में से कई स्वैच्छिक रूप से घर छोड़ने या पारिवारिक तनाव से जुड़े होते हैं, जबकि कुछ मामलों में मानव तस्करी, ऑनलाइन प्रभाव, और बाहरी तत्वों की भूमिका से भी इंकार नहीं किया जा सकता।
परिवारों ने जताई मानव तस्करी की आशंका
परिवारों की गवाहियां इस संकट को और गहराई देती हैं। मलाड में एक 16 वर्षीय लड़की स्कूल जाते समय अचानक गायब हो गई, और बाद में पता चला कि वह सोशल मीडिया पर एक अजनबी के संपर्क में थी। चेंबूर में 15 साल का एक लड़का गेमिंग चैट के ज़रिए किसी को जानने लगा था और आखिरी बार उसी व्यक्ति से मिलने गया था। धारावी में एक 14 वर्षीय घरेलू कामगार लड़की की गुमशुदगी में स्थानीय NGO को मानव तस्करी की आशंका दिखाई देती है। ये घटनाएं बताती हैं कि मुंबई में बच्चों के गायब होने के पीछे अक्सर केवल घर छोड़ देने की वजह नहीं होती, बल्कि ऑनलाइन शोषण, अपराधी नेटवर्क और पारिवारिक संघर्ष जैसे कई परतें एक साथ काम करती हैं।
डिजिटल होते इंडिया का नकारात्मक पहलू- सोशल मीडिया!
जांच का सबसे चिंताजनक हिस्सा डिजिटल दुनिया का प्रभाव है। पुलिस साइबर यूनिट के अनुसार, 39 प्रतिशत मामलों में सोशल मीडिया या गेमिंग चैट्स का सीधा लिंक मिला है। Instagram, Snapchat और ऑनलाइन गेमिंग प्लेटफॉर्म बच्चों को अपनी दुनिया से हटाकर छुपे हुए नेटवर्कों में खींच रहे हैं, जहां नकली पहचान, झूठे वादों और भावनात्मक शोषण के ज़रिए बच्चे फंस जाते हैं। एक साइबर विशेषज्ञ का कहना है, “मुंबई के बच्चों की गुमशुदगी अब सड़क से कम और स्क्रीन से ज्यादा शुरू होती है।” यह कथन इस पूरे संकट की दिशा को स्पष्ट कर देता है।
Human Trafficking के सक्रिय गैंग्स
अपराधी नेटवर्क की भूमिका भी कम संगीन नहीं। गुमशुदा बच्चों के कई मामलों में मानव तस्करी, जबरन श्रम और स्टेशन इलाकों में सक्रिय गैंगों का पैटर्न दिखाई देता है। पूर्व पुलिस अधिकारियों का मानना है कि जब इतने बड़े पैमाने पर बच्चे गायब हों, तो इसे सिर्फ ‘घर छोड़ने वाले किशोर’ कहकर अनदेखा नहीं किया जा सकता। यह संगठित अपराध का संकेत है, जिसकी जांच मजबूत, आधुनिक और बहु-स्तरीय तकनीक से करनी आवश्यक है। पुलिस सक्रिय है, सीसीटीवी फुटेज खंगाले जा रहे हैं, लोकेशन ट्रैक्स की जांच चल रही है, और थानों को तुरंत FIR दर्ज करने के निर्देश दिए गए हैं। लेकिन मिसिंग सेल का Understaffed होना, शुरुआती 48 घंटे की धीमी कार्रवाई, और डिजिटल अपराध रोकने के संसाधनों की कमी इस समस्या को और गंभीर बनाती है। अपराध तेजी से बदल रहा है, लेकिन सिस्टम अभी भी पुराने मॉडल पर काम कर रहा है।
परिवारों का टूटता सामाजिक ढांचा भी ज़िम्मेदार
इस संकट का एक और बड़ा पहलू सामाजिक ढांचे की टूटन से जुड़ा है। परिवारों में संवाद की कमी, स्कूलों में मानसिक स्वास्थ्य सपोर्ट का लगभग अभाव, और मोहल्लों में सामुदायिक निगरानी का खत्म हो जाना बच्चों को अकेला और असुरक्षित बनाता है। कई बच्चे भावनात्मक टूटन, पढ़ाई का तनाव, या पारिवारिक कलह के कारण घर से जाते हैं, जबकि डिजिटल दुनिया उन्हें एक झूठी सुरक्षित जगह का वादा करती है जो अंततः उन्हें शोषण की ओर धकेल देती है। शहर की तेज़ रफ़्तार के बीच समाज बच्चों के लिए न तो मानसिक सुरक्षा दे पा रहा है और न ही शारीरिक।
ख़तरनाक मोड़ पर खड़ी ज़िंदगी और मुंबई!
इस व्यापक संकट का निचोड़ यह है कि मुंबई एक खतरनाक मोड़ पर खड़ी है। अगर पिछले कुछ महीनों में 136 बच्चे गायब हो सकते हैं, तो यह स्पष्ट संकेत है कि शहर भविष्य की रक्षा में विफल हो रहा है। बच्चों का गायब होना आंकड़ों का मामला नहीं, एक चेतावनी है, एक आपातकाल है, एक नैतिक और प्रशासनिक परीक्षा है। यदि डिजिटल सुरक्षा, सामुदायिक भागीदारी, पुलिस के आधुनिककरण और मानसिक स्वास्थ्य तंत्र को मजबूत नहीं किया गया, तो यह संकट आने वाले वर्षों में और भयावह रूप ले सकता है।
दौड़ते-भागते शहर की चकाचौंध के पीछे का अंधेरा
मुंबई की चमकदार इमारतें, चौड़ी सड़कों और तेज़ रफ्तार के पीछे इस समय सबसे गहरा अंधेरा उन घरों में है जहां एक बच्चा लौटकर नहीं आया। एक शहर का भविष्य उसकी अर्थव्यवस्था से नहीं, उसके बच्चों की सुरक्षा से तय होता है और इस मापदंड पर मुंबई फिलहाल बुरी तरह असफल दिख रही है।
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