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May 27, 2025

माउंट एवरेस्ट पर ‘जिंदा लाशें’ पर्वतारोहियों को दिखाती हैं रास्ता

Mount Everest: पहाड़ जितने खूबसूरत होते हैं उतने ही खतरनाक! जो जांबाज रोज इनका सीना चीरकर उंची खड़ी इनकी चोटियों का घमंड तोड़ते हैं, वक्त आने पर इन पहाड़ों की ताकत के सामने उन्हें भी झुकना पड़ता है। हिमालय को आसमान का हमसाया कहते हैं। इसकी चोटियों में ऐसा सम्मोहन है कि जिसने इनसे दिल लगाया, वो उसी का होकर रह गया। यहां जिंदगी और मौत के बीच बस एक कदम का फासला है। खास परिंदे ही छू पाते हैं एवरेस्ट की ऊंचाई! माउंट एवरेस्ट की ऊंचाई 30 हजार फीट है और जेट एयरक्राफ्ट भी 30 हजार फीट की ऊंचाई पर ही उड़ता है। जबकि लाइट एयरक्राफ्ट तो 10 हजार फीट की ऊंचाई को भी पार नहीं कर पाते। परिंदों में भी बस खुले सिर वाला हंस और कुछ खास प्रजाति के सारस ही एवरेस्ट की इस ऊंचाई को छू पाते है।

भारतीय महिलाएं, जिन्होंने बनाया एवरेस्ट पर रिकॉर्ड

यूं तो पहली बार माउंट एवरेस्ट की सबसे ऊंची चोटी पर पहुंचने का इतिहास एडमंड हिलेरी और तेनजिंग नोर्गे ने 1953 में रचा है। लेकिन भारतीय पर्वतारोहियों ने माउंट एवरेस्ट को फतह करने में अलग-अलग कीर्तिमान स्थापित किए हैं। माउंट एवरेस्ट पर भारतीय झंडा फहराने वाले पहले व्यक्ति कप्तान एमएस कोहली थे। 29 मई 1965 को नौसेना अधिकारी लेफ्टिनेंट कमांडर एमएस कोहली के नेतृत्व में नौ भारतीय पर्वतारोहियों का एक दल एक साथ शिखर पर पहुंचा। इसके बाद कई भारतीय पर्वतारोहियों ने दुनिया के सबसे ऊंचे शिखर को पार किया। लेकिन माउंट एवरेस्ट पर पहुंचने वाली सबसे पहली भारतीय महिला थीं बछेंद्री पाल!
बछेंद्री पाल (1984) – एवरेस्ट शिखर पर पहुंचने वाली प्रथम भारतीय महिला थीं। संतोष यादव (1992, 1993) – एवरेस्ट पर दो बार चढ़ने वाली विश्व की प्रथम महिला होने का खिताब अपने नाम कर चुकी हैं। अरुणिमा सिन्हा (2013) – एवरेस्ट पर चढ़ने वाली पहली महिला दिव्यांग महिला हैं, जिन्होंने एक हादसे में अपना एक पैर गंवाने के बावजूद हौसल नहीं छोड़ा और माउंट एवरेस्ट फतह करने का अपना ख्वाब पूरा किया। अंशु जामसेनपा (2011, 2013, 2017) – एक सीज़न में दो बार शिखर पर चढ़ने वाली पहली महिला और एक महिला द्वारा सबसे तेज दोहरी चढ़ाई का रिकॉर्ड रखती हैं।

मुसाफिरों को रास्ता दिखाती हैं लाशें

दुनिया के बड़े-बड़े बहादुर सूरमा भी माउंट एवरेस्ट पार करते वक्त भगवान को याद करते हैं। इस बुलंदी के रास्ते में कई जगह श्मशान भी हैं। ऐसे श्मशान, जहां लाशें बरसों से आखिरी रस्म पूरी होने का इंतजार कर रही हैं। अब तो ये लाशें नए मुसाफिरों को रास्ता दिखाने लगी हैं। माउंट एवरेस्ट के रास्ते में तकरीबन 200 लाशें ऐसी हैं जिन्हें नए मुसाफिरों को रास्ता दिखाने के लिए छोड़ा गया है। अब तो इन्हें लैंडमार्क कहा जाने लगा है।

200 लाशें बन चुकी हैं लैंडमार्क

माउंट एवरेस्ट के रास्ते में तकरीबन 200 लाशें ऐसी हैं जिन्हें नए मुसाफिरों को रास्ता दिखाने के लिए छोड़ा गया है। अब तो इन्हें लैंडमार्क कहा जाता है। इस रास्ते पर 1924 से लेकर 2024 तक 7,200 पर्वतारोही एवरेस्ट पर जा चुके है। अब तक 340 यात्री मौत की नींद सो चुके हैं। इनमें 161 पश्चिमी देशों से आये पर्वतारोही थे जबकि 87 स्थानीय शेरपा थे। साल 2014 में भी यहां बर्फीले तूफान की चपेट में आने से 16 लोगों की मौत हुई थी। इसके बाद साल 2015 में भी कई बार बर्फीले तूफान आए और अपने पीछे छोड़ गए कई लाशें!

लाशें निकालने का मतलब खुदकुशी

2024 तक मारे गए 340 लोगों में से 200 शव अभी भी वहीं पड़े हैं। यही वजह है लोग कहते हैं कि इस रास्ते में कई श्मशान पड़ते हैं। सबसे पहली बड़ी दुर्घटना 1996 में हुई थी तब 8 लोग मौत के इस आसमान को छूने की आस में रास्ते में ही मौत की नींद सो गए थे। इसके अगले ही सीजन में 15 लोगों ने रास्ते में दम तोड़ा था। यहां की खास बात है कि जिसने यहां दम तोड़ दिया बस फिर यही उसका श्मशान बन गया। क्योंकि यहां से लाशें निकालने की कोशिश करना भी खुदकुशी करने के बराबर है।

हिम्मत छूटी, गई जान

यही नहीं ये वो रास्ता है जहां आप पूरी टीम के साथ चल रहे होते हैं लेकिन जैसे ही आपकी हिम्मत छूटी समझ लीजिए की आप भी छूट गए। इस सफर के मुसाफिर अपने साथियों को एक ही पल में भूल जाते हैं। जिस साथी की सांसे फूलने लगती है दूसरे साथी उसे छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं। 1998 में भी ऐसी ही एक घटना घटी थी। पर्वतारोहियों का एक दल 28 हजार फीट की ऊंचाई को पार कर रहा था जिसमें एक महिला भी शामिल थी। इस दल ने देखा कि कुछ दूरी पर एक शख्स पड़ा है जो मदद के लिए हाथ हिला रहा है। ये दल उस शख्स के पास पहुंचा तो पता चला कि वो एक महिला थी। उस महिला की सांसे फूल रही थीं उसके पास ऑक्सीजन की एक बोतल पड़ी थी जो बिल्कुल खाली थी। इस दल में मौजूद महिला चाहती थी कि उस महिला की जिंदगी बचाई जाए। लेकिन इस ग्रुप के पास एक्सट्रा ऑक्सीजन नहीं थी जिससे उस महिला को ऑक्सीजन दी जा सके। इसलिए इन्होंने तय किया कि अगर अपनी जान को खतरे में नहीं डालना है तो उस महिला को मरने के लिए छोड़कर आगे बढ़ा जाए। तड़पती हुई महिला को छोड़कर दल आगे बढ़ गया लेकिन उस दल में मौजूद महिला इस गुनाह से बैचेन हो गई। बाद में उसने दुनिया के सामने पश्चाताप भी किया। उसने बताया कि मरने वाली महिला मुझसे पूछ रही थी कि तुम मुझे इस हाल में छोड़कर आगे कैसे जा सकती हो। मरने वाली महिला का नाम फ्रांसिस था और वो अपने पति के साथ बिना ऑक्सीजन के ही माउंट एवरेस्ट को फतह करना चाहती थी। लेकिन डेथ जोन में जाकर सांसे अटक गईं तो पति भी साथ छोड़कर आगे बढ़ गया और जिस दल से उसने मदद मांगी वो भी बिना मदद किये ही आगे चला गया। दरअसल ये वो डगर थी जहां अपनी जिंदगी को बचाने के अलावा कोई दूसरा जज्बा दिल में आता ही नहीं है।

26 हजार फीट के बाद शुरू होता है डेथ जोन

माउंट एवरेस्ट के 30 हजार फीट के इस सफर में सबसे खतरनाक रास्ता शुरू होता है 26 हजार फीट की ऊंचाई से आगे! ये जगह फाइनल बेस कैंप से ऊपर है और इसे डेथ जोन कहा जाता है। ये वो इलाका है जहां ऑक्सीजन बिल्कुल नहीं है। यहां सर्दी की वजह से इंसान की हड्डियां अकड़ जाती हैं, जिसके बाद सांसे थमने में ज्यादा वक्त नहीं लगता। हालांकि अब तो दुनिया के सबसे ऊंचे पर्वत पर चढ़ना काफी आसान माना जाता है, क्योंकि मौजूदा दौर में कई तरह के हिफाजती इंतजाम होने लगे हैं। सैटेलाइट फोन्स के जरिये पर्वतारोही बाहरी दुनिया के कॉन्टेक्ट में रहते हैं जिसकी वजह से मुसीबत के वक्त मदद की उम्मीद भी रहती है।

माउंट एवरेस्ट पर ग्रीन बूट है फेमस

1996 में 15 लोगों की मौत हुई थी जबकि 98 लोग ही वापस लौट पाए थे। लेकिन दस साल बाद 2006 में मात्र 11 लोगों की मौत हुई और 400 लोगों ने सफल यात्रा की। बहरहाल अब भले ही आसमान को छूते इस पर्वत के सिर पर चढ़ना पहले से आसान हो गया है लेकिन रास्ते में पड़े ये शव हर वक्त होशियार रहने का इशारा करते रहते हैं। उत्तर पूर्वी टीले पर बरसों से एक शव पड़ा है जिसके पैर में हरे रंग के जूते हैं। अब उस जगह को ग्रीन बूट के नाम से जाना जाता है। ऐसे ही जगह-जगह पड़े शवों को अलग-अलग लैंडमार्क के नाम से जाने जाना लगा है।

एवरेस्ट के डेथ जोन पर क्या होता है इंसानी जिस्म के भीतर

इंसान का शरीर सबसे बेहतर कहां काम करता है, जवाब है- समुद्र तल पर। यहां उसके फेफड़ों और दिमाग के लिए सही मात्रा में ऑक्सीजन मिलता है। लेकिन जितना वह ऊपर जाता है, उसके लिए कठिनाई बढ़ती चली जाती है। पर दुनिया के सबसे ऊंचे पहाड़ माउंट एवरेस्ट (Mount Everest) के डेथ जोन पर इंसान के शरीर के साथ कितना बुरा होता है, क्या सोच सकते हैं आप!
माउंट एवरेस्ट समुद्र तल से 29,029 फीट यानी 8.8 किलोमीटर से ज्यादा ऊंचा है। यानी इतनी ऊंचाई जहां जाने पर आपके शरीर के धागे खुल जाते हैं, नसें सिकुड़ने लगती हैं, सांसें थमने लगती हैं, दिखना बंद हो जाता है, दिमाग सही से काम नहीं करता। इस जगह को डेथ जोन (Death Zone) कहते हैं।

डेथ ज़ोन है माउंट एवरेस्ट का डेथ पॉइंट

डेथ जोन की शुरुआत 8000 मीटर से शुरू होती है। यानी यहां से ऊपर आपको इतना कम ऑक्सीजन मिलता है कि शरीर मरना शुरू कर देता है, हर मिनट खत्म होता है, शरीर की हर कोशिका मर रही होती है। यहां से आपके दिमाग और फेफड़ों को पता चलता है कि ज़िंदा रहने के लिए ऑक्सीजन कितना जरूरी है!  अगले 800 मीटर की चढ़ाई चढ़ते-चढ़ते लोगों की सोचने या फैसले लेने की शक्ति खत्म हो जाती है। दिल का दौरा और ब्रेन स्ट्रोक आने की आशंका कई गुना बढ़ जाती है। माउंट एवरेस्ट पर चढ़ चुके शॉना बर्के ने बताया कि असल में शरीर मरने लगता है। एवरेस्ट पर चढ़ना यानी समय के खिलाफ शरीर की जंग! साल 2019 में एवरेस्ट पर चढ़ते समय 19 लोगों की मौत हुई थी। इनमें से 11 मौतें डेथ जोन में हुई थीं, क्योंकि इन्होंने वहीं पर सबसे ज्यादा समय बिताया। कुछ लोगों ने इसे ज्यादा भीड़ की वजह से होने वाला हादसा बताया, लेकिन ये वजह कुछ लोग नहीं मानते क्योंकि मौसम सही था। फिर भी मौतें डेथ जोन में हुईं।
असल में 22 मई 2019 को एवरेस्ट फतह करने के लिए एकसाथ 250 पर्वतारोही चढ़ गए थे। पीक पर जाकर उतरने के लिए लंबी लाइन लग गई। ये लाइन डेथ जोन में थी। लोगों को लंबा समय डेथ जोन में इंतजार करना पड़ा। 19 में से 11 मौतें इसी डेथ जोन में हुई थीं, क्योंकि ये काफी ज्यादा देर डेथ जोन में रुक गए थे।

एवरेस्ट के डेथ ज़ोन में ऑक्सीजन नहीं

असल में जब समुद्र तल पर होते हैं, तो हवा में 21 फीसदी ऑक्सीजन होता है। लेकिन जब आप 12 हजार फीट के ऊपर जाते हैं, तब आपको हर सांस में 40 फीसदी कम ऑक्सीजन मिलता है। डेथ जोन में पर्वतारोही सिर्फ और सिर्फ एक चौथाई ऑक्सीजन पर जिंदा रहता है। इस बात के साइंटिफिक प्रमाण भी हैं। 8.8 किलोमीटर ऊंचाई पर ऐसे लगता है जैसे आप ट्रेडमिल पर दौड़ रहे हों और सांस लेने के लिए आपको एक स्ट्रॉ दी गई हो। जब शरीर में जरूरी मात्रा से सिर्फ एक चौथाई ऑक्सीजन ही बचेगा तो काफी ज्यादा दिक्कत होगी। यानी आपका दिल हर मिनट 140 बार धड़कता है, यानी दिल का दौरा कभी भी पड़ सकता है।
एवरेस्ट पर चढ़ाई शुरू करने से पहले पर्वतारोहियों को अपने शरीर को एक्लेमेटाइज करना होता है। वो कई दिनों तक थोड़ी-थोड़ी ऊंचाई बढ़ाते हुए आगे बढ़ते हैं, ताकि फेफड़ों और दिमाग को उस ऊंचाई पर मिलने वाली ऑक्सीजन की आदत पड़े। पीक पर जाने से पहले बेस कैंप से तीन ट्रिप ऊपर की ओर लगाते हैं, फिर बेस कैंप में लौटते हैं। इतनी ऊंचाई पर पहुंचने के बाद शरीर में ज्यादा मात्रा में हीमोग्लोबिन बनने लगता है। ताकि ज्यादा से ज्यादा ऑक्सीजन की सप्लाई हो सके। पर ज्यादा हीमोग्लोबिन का बनना यानी खून का गाढ़ा होना। इससे दिल सारे शरीर में खून की सप्लाई ढंग से नहीं कर पाता जिसकी वजह से आपको स्ट्रोक आ सकता है या फेफड़ों में पानी जमा हो सकता है।

एवरेस्ट क्लाइंबर्स को होती है HAPE और HACE से दिक्कत

एवरेस्ट पर आमतौर पर पर्वतारोहियों को एक दिक्कत होती है, इसे हेप (HAPE) यानी हाई एल्टीट्यूड पल्मोनरी एडिमा कहते हैं। इसमें फेफड़ों में पानी भर जाता है, जिसकी जांच सामान्य स्टेथोस्कोप से की जा सकती है। जब सीने पर आला लगाते हैं, अंदर से पानी के उबलने जैसी आवाज आती है। HAPE की वजह से शरीर में सांस की कमी होती है। ऐसी ही एक दिक्कत होती है हेस (HACE), जिसे हाई एल्टीट्यूड सेरेब्रल एडीमा कहते हैं। इसमें ऑक्सीजन की कमी से दिमाग सूजने लगता है, जिसकी वजह से बेचैनी, उलटी आना, सोचने और फैसला लेने में दिक्कत होती है। सामान्य भाषा में हेस को इसे हाइपोक्सिया (Hypoxia) कहते हैं। पर्वतारोहियों को दिखना बंद हो जाता है। वो विचित्र व्यवहार करने लगते हैं, कपड़े फाड़ने लगते हैं, हवा में बातें करने लगते हैं। कई लोगों को तो लगातार खांसी आती है। ऐसे में हर सेकेंड आपके शरीर को बहुत ज्यादा ऑक्सीजन की जरुरत होती है जो कि खतरनाक होता है। हेप और हेस मिलकर भूख कम कर सकते हैं। स्नो ब्लाइंडनेस हो सकती है, यानी दूर-दूर तक आपको सिर्फ बर्फ ही बर्फ दिखाई देगी। अस्थाई तौर पर दिखना बंद भी हो सकता है। आंखों के अंदर ही खून की नलियां फट सकती हैं। पारा इतना कम होता है कि त्वचा तुरंत जम सकती है, उंगलियां कट सकती हैं, बस यहीं से लोग गिरने लगते हैं, मर जाते हैं।
आमतौर पर पर्वतारोही रात को दस बजे एवरेस्ट की चढ़ाई शुरू करते हैं और कैंप चार छोड़ देते हैं। ये 26 हजार फीट की ऊंचाई पर होता है। चढ़ाई का ज़्यादातर हिस्सा रात में ही पूरा हो जाता है। सात घंटे के बाद ये एवरेस्ट के पीक पर होते हैं। थोड़ा रुक कर वापस 12 घंटे में आते हैं। यह काम अंधेरा होने से पहले करना होता है।
माउंट एवरेस्ट पर चढ़ाई करना एक बहुत ही कठिन और खतरनाक कार्य है, लेकिन कई लोग अभी भी इस चुनौती को स्वीकार करते हैं और इसे हासिल करने की कोशिश करते हैं और इतिहास भी बनाते हैं

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