इस इलेक्शन रिपोर्ट में जानें क्यों खस्ताहाल है भारत की शिक्षा व्यवस्था और क्या है उपाय
देश में Education Infrastructure की कमी, जर्जर स्कूल, बदहाल Education System, 70 फीसदी छात्र बारहवीं के आगे नहीं पढ़ पाना ये तमाम मुद्दे है, लेकिन ये चुनावी मुद्दा नहीं है। लोकतंत्र में नागरिकों के मूलभूत अधिकारों में रोटी, कपड़ा और मकान के बाद शिक्षा और स्वास्थ्य को रखा जाता है। लेकिन लोकतंत्र के महान पर्व लोकसभा चुनाव 2024 में यह मूलभूत मुद्दे कहीं गायब हैं। Loksabha Election 2024 में The CSR Journal ने अपने ख़ास सीरीज लोकसभा इलेक्शन रिपोर्ट कार्ड (Loksabha Election Report Card) के जरिये एक कोशिश कर रहा है कि आम चुनाव से पहले इन मुद्दों और उनके वास्तविक स्थिति से लोगों को परिचित कराया जाए। किसानों की स्थिति, स्वास्थ्य, के बाद दी सीएसआर जर्नल की इस विशेष सीरिज इलेक्शन रिपोर्ट कार्ड में आज मुद्दा शिक्षा है।
चुनावों में शिक्षा का मुद्दा नदारद
देश को आजाद हुए 77 साल हो गए। साइकिल से शुरू हुआ सफर आज चंद्रमा तक पहुंच गया है। शिक्षा का बजट लाखों से करोड़ों में पहुंच गया, लेकिन जमीन पर तस्वीर नही बदली। आज भी कुछ सरकारी स्कूल के हाल वैसे ही है, जैसे आजादी से पहले हुआ करता था। उत्तर प्रदेश हो या राजस्थान, मध्य प्रदेश हो या गुजरात, कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक स्कूलों की दशा बहुत दयनीय है। हमारे देश के भविष्य कहे जाने वाले हमारे छोटे-छोटे बच्चों को हम शिक्षा की बुनियादी सुविधाओं से महरूम रखते है। आलम ये है कि कहीं बच्चे खुले आसमान के नीचे जमीन पर बैठ कर शिक्षा हासिल कर रहे हैं तो कहीं जर्जर इमारतों में जहां कभी भी वो इमारत गिर सकती है। इनके स्कूलों में ना पीने के पानी की व्यवस्था है और न ही शौचालय की। हमारे देश के भविष्य ये बच्चे इन हालातों में मजबूर है शिक्षा का ज्ञान पाने के लिए।
शिक्षा व्यवस्था को लेकर क्या है बीजेपी के वादे
भारतीय जनता पार्टी (Bhartiya Janta Party) ने अपने मेनिफेस्टो (BJP Manifesto) में शिक्षा को लेकर कई वादे किए हैं, लेकिन इन वादों पर खरा कैसे उतरा जाए इसकी बहुत ज्यादा विस्तृत जानकारी बीजेपी ने अपने मेनिफेस्टो में नहीं दिया है। सबके लिए शिक्षा पर जोर देते हुए बीजेपी ने प्राथमिक (Primary Schools in India) और माध्यमिक शिक्षा (Secondary Education in India) और उच्च शिक्षा के साथ-साथ कौशल विकास यानी कि स्किल डेवलपमेंट (Skill Development in India) की बात अपने मेनिफेस्टो में कही है। सबके लिए शिक्षा पर जोर देते हुए भाजपा ने लिखा है कि शिक्षा व्यवस्था को आधुनिक तकनीक और ज्ञान के साथ-साथ समंवित करते हुए हैं हमारा प्रयास है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था वैश्विक, वैज्ञानिक, परिणाम आधारित, ज्ञान आधारित, सुलभ, समावेशी और आसानी से समझ में आने वाली हो ताकि ताकि विद्यार्थी इस शिक्षा व्यवस्था को ज्यादा से ज्यादा लाभ ले सके। लेकिन ये भी जगजाहिर है कि हमारे देश का एजुकेशन सिस्टम कैसा है।
भारी भरकम राशि खर्च करने के बावजूद सरकारी स्कूलों की दशा नहीं बदली
देश भर के ग्रामीण स्कूल में छात्रों की पढ़ने की क्षमता में जबरदस्त गिरावट देखी जा रही है। राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न कक्षाओं के बच्चों में बुनियादी गणित की समझ के स्तर में 2018 के मुकाबले जबरदस्त गिरावट आई है। केंद्र की Narendra Modi Government लाख दावे कर ले लेकिन दुखद है कि नई तकनीक के विकास, ज्ञान के नए क्षेत्रों और संचालन के नए-नए तरीकों के बावजूद अनेक बच्चे मूलभूत साक्षरता और संख्यात्मक कौशल को सही ढंग से सीखे बिना ही जबरन आठवीं कक्षा तक पहुंच जा रहे हैं। इससे भी ज्यादा चिंताजनक है कि देश से भर के ग्रामीण स्कूलों में कक्षा तीन से छात्रों की पढ़ने की क्षमता में जबरदस्ती गिरावट देखी है। केवल 20 फीसदी छात्र कक्षा 2 की पुस्तक तक पढ़ सकते है।
स्कूल टीचर लेते है मोटी सैलरी लेकिन पढ़ाते नहीं
राष्ट्रीय स्तर पर भारी भरकम खर्च करने की बावजूद अगर सरकारी स्कूलों की दशा नहीं बदलता है तो स्वभावी है कि इसका ठीकरा राज्य सरकार और प्रशासन के सिर पर फोड़ा जाता है। पगार (Salary of School Teacher) के मामले में सबसे अच्छी हालत सरकारी शिक्षकों की है मगर पढ़ाई के मामले में यह निजी स्कूलों के कम पगार वाले शिक्षकों के मुकाबले से फिसड्डी ही रहते हैं। इस बात को समझना होगा कि तमाम कोशिशें के बावजूद आखिर क्यों सरकारी स्कूल केवल अति साधारण तबके तथा गांव के ही होकर रह गए हैं? क्या वजह है कि थोड़े भी सक्षम और संपन्न परिवार अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ाना चाहते। अगर उन्हें पढ़ना भी चाहते हैं तो उनकी शिक्षा महज औपचारिक से ज्यादा कुछ नहीं रहती। सरकारी स्कूल भवनों की मरम्मत, रंग रोशन की व्यवस्था बेहद लचर होती है। बड़ी तादाद में ऐसे स्कूल की तस्वीर सामने आती है जो खंडहर बन चुकी हैं, यहां तक कि वह असामाजिक तत्व का ठिकाना बन जाते हैं। अभी काफी प्रयास की जरूरत है ताकि बच्चों के सीखने की प्रवृत्ति को सुधारा जाए और इसे इस तरह आकर्षक बनाया जाए कि बच्चे स्वयं उसके प्रति आकर्षित हो शिक्षा के प्रति आकर्षित हो। हालांकि सर्व शिक्षा अभियान और अन्य सरकारी प्रयासों के तहत स्कूलों को बेहतर बनाने के लिए काफी कुछ किया जा रहा है, लेकिन यह प्रयास पर्याप्त नहीं है।
भारत में लगभग डेढ़ लाख स्कूलों में महज एक ही टीचर
मौजूदा स्कूली व्यवस्थाओं पर गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है क्या और कैसे सुधार होने चाहिए यह भी एक खुली किताब ही है। ज्यादातर सरकारी स्कूलों में क्लासरूम, साफ पानी, शौचालय, लाइब्रेरी, खेल के मैदान जैसे बुनियादी सुविधाओं तक का अभाव है। प्राथमिक स्कूल जाने वाले देश में ऐसे सरकारी स्कूलों की भरमार है जहां प्रशिक्षित और योग्य शिक्षक नहीं है। भारत में लगभग डेढ़ लाख स्कूल ऐसे हैं जहां केवल एक ही टीचर है ऐसे में गुणवत्ता तथा सरकारी उपायों को लागू करने के बारे में सोचने तक कठिन है दूसरी ओर राजनीतिक दल अफसर बाबू के सांठगांठ और सरकारी शिक्षकों गांव के बजाय शहरों में पलायन की जुगाड़ में रहते हैं, जो कि ये सब चिंता का विषय है।
स्कूल ड्रॉप आउट को मजबूर बच्चे, लड़कियों की तदाद ज्यादा
देश के कई राज्यों में पढ़ाई बीच में छोड़ने वाले बच्चों की संख्या में भारी इजाफा हो रहा है। यह न सिर्फ School Management पर सवाल उठाता है बल्कि सरकार की लचर शिक्षा नीति (Education Policy) को भी कटघरे में लाकर खड़ा कर देता है। दरअसल समग्र शिक्षा कार्यक्रम के दौरान शिक्षा मंत्रालय (Ministry of Education) के तहत परियोजना मंजूरी बोर्ड यानी पीएबी की साल 2023-24 की रिपोर्ट में लिखे गए दस्तावेजों में से ये जानकारी शामिल है। दस्तावेजों के अनुसार ड्रॉप आउट (School Drop Out) करने वालों की राष्ट्रीय दर 12.6 प्रतिशत है, जो पिछले बार की गण से ज़्यादा है। इसमें भी सात राज्य प्रमुख हैं, जैसे बिहार, आंध्र प्रदेश, असम, गुजरात, कर्नाटक, मेघालय, पंजाब में ड्रॉपआउट करने वालों की संख्या ज्यादा है। लड़कियों के स्कूल छोड़ने का भी मात्रा ज्यादा है। संयुक्त राष्ट्र बाल कोष के पिछले साल के एक सर्वेक्षण में लड़कियों के बीच में स्कूल छोड़ने के कारणों में कहा गया था कि 33 प्रतिशत लड़कियों की पढ़ाई घरेलू काम करने के कारण छूट गई। इसके अनुसार, कई जगहों पर ये भी पाया गया कि बच्चों ने स्कूल छोड़ने के बाद परिजनों के साथ मजदूरी या लोगों के घरों में सफाई करने का काम शुरू कर दिया।
देशभर के एक चौथाई से कम स्कूलों में इंटरनेट
केंद्र सरकार ने 2023-24 के बजट में शिक्षा क्षेत्र के लिए 1.13 लाख करोड़ रुपये आवंटित किए, जिससे स्कूलों और उच्च शिक्षा पर अनुमानित खर्च 2022-23 की तुलना में 8.3 फीसदी बढ़ गया है। इसके अलावा देशभर में एक ओर जहां डिजिटल इंडिया की बात हो रही है वहीं लाखों स्कूल अभी तक इंटरनेट कनेक्टिविटी से दूर हैं। शिक्षा को डिजिटाइज करने पर जोर देने के बावजूद भारत में चार में से एक से भी कम स्कूलों में इंटरनेट की सुविधा है। देश के 90 फीसदी सरकारी स्कूलों में बच्चों को ट्रेनिंग देने के लिए कम्प्यूटर नहीं हैं इतना ही नहीं, डिजिटल इंडिया बनाने की मुहिम में इंटरनेट भी सबसे बड़ा रोड़ा है क्योंकि देश के 66 फीसदी स्कूल इंटरनेट की पहुंच से दूर हैं। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इस साल के केंद्रीय बजट में राष्ट्रीय डिजिटल लाइब्रेरी कार्यक्रम और पिछले साल राष्ट्रीय डिजिटल विश्वविद्यालय कार्यक्रम की घोषणा की थी ताकि लर्निंग आउटकम में सुधार किया जा सके और महामारी से संबंधित लर्निंग की भरपाई की जा सके। लेकिन 29 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में, आधे से भी कम स्कूलों में इंटरनेट की सुविधा है, जो इस तरह के डिजिटल कार्यक्रमों के सामने सबसे बड़ी चुनौती है।
कई स्कूल बंद किए जा चुके हैं
केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय के मुताबिक वर्ष 2021-22 में बीते वर्ष के मुकाबले देश में स्कूलों की संख्या में कमी आई है। वर्ष 2021-22 की बात करें तो इस दौरान देश भर में 14.89 लाख स्कूल रहे, जबकि वर्ष 2020-21 में स्कूलों की संख्या 15.09 लाख थी। यानी 2020-21 के मुकाबले लगभग 20 हजार स्कूल कम हैं। केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने इस बारे में जानकारी देते हुए बताया कि स्कूलों की संख्या में यह कमी मुख्यत इसलिए हुई, क्योंकि निजी स्कूल तथा अन्य प्रबंधन वाले कई स्कूल बंद हो गये। शिक्षा मंत्रालय के मुताबिक वहीं स्कूलों में कमी आने का एक कारण यह भी है कि विभिन्न राज्यों द्वारा स्कूलों के समूह क्लस्टर बना दिये गए हैं। 14.77 लाख में से 13.98 स्कूलों में गर्ल्स टॉयलेट हैं। वहीं, करीब 79 हजार ऐसे स्कूल हैं जहां लड़कियों के लिए टॉयलेट की व्यवस्था नहीं है।
लड़कियों की शिक्षा की हालत चिंताजनक
देश में 61 लाख ऐसे बच्चे हैं जो शिक्षा से वंचित हैं। खासतौर पर लड़कियों की शिक्षा की स्थिति चिंताजनक है। (Education for Girl Child) भारत में लडकियों की शिक्षा और स्वास्थ्य पर जोर देना ज्यादा जरूरी है क्योंकि 22 लाख से भी ज्यादा लड़कियों की शादी कम उम्र में कर दी जाती है। ऐसे में उनका स्कूल छूटना स्वाभाविक है। उनके अनुसार, शिक्षा सहित लड़कियों के अन्य मुद्दों पर भी समाज को जागरूक करना होगा। खासतौर पर ग्रामीण समाज को। यूनिसेफ की गुडविल एंबेसडर एवं फिल्म अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा का कहना है कि जब तक लोग लड़के और लड़की में भेदभाव खत्म नहीं करेंगे तब तक इस स्थिति में बदलाव नहीं आएगा।
सर्व शिक्षा अभियान से हो रहा है फायदा
शिक्षा को लेकर सरकार के प्रयासों में भले कमी रही हो लेकिन सरकारी अभियानों से शिक्षा की स्थिति में सुधार आया है। खासतौर पर सर्व शिक्षा अभियान के माध्यम से स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या बढ़ी है। शिक्षा के अधिकार का कानून लागू करने के बाद प्राथमिक शिक्षा के लिए होने वाले नामांकनों में वृद्धि दर्ज की गयी है। इसके अलावा स्कूल नहीं जाने वाले बच्चों की संख्या में भी लगातार गिरावट आ रही है। वर्ष 2009 में 6 से 13 वर्ष की उम्र के स्कूल नहीं जाने वाले बच्चों की संख्या लगभग 80 लाख थी जबकि पांच साल बाद यानी 2014 में यह संख्या घट कर 60 लाख रह गई है। वैसे 2014 में 3 से 6 वर्ष की उम्र के बीच के 7.4 करोड़ बच्चों में से लगभग 2 करोड़ बच्चे किसी तरह की प्री-स्कूल शिक्षा नहीं ग्रहण कर रहे थे।
सरकारी स्कूलों में सुविधाओं की कमी के चलते लोग प्राइवेट स्कूलों की तरफ रुख करने लगे हैं
सरकारी स्कूलों में सुविधाओं की कमी के चलते लोग प्राइवेट स्कूलों की तरफ रुख करने लगे हैं। शिक्षकों की कमी झेलते हजारों स्कूलों के पास शौचालय तो क्या क्लास रूम तक नहीं है। एक अनुमान के मुताबिक देश में अभी भी करीब 1,800 स्कूल किसी पेड़ के नीचे या टेंटों में लग रहे हैं। देश के कुछ राज्यों में ही सरकारी स्कूलों की स्थिति ठीक ठाक है। अधिकांश राज्यों में सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता रसातल में जा रही है। खासतौर पर आदिवासी अंचलों में गरीब बच्चे खाना और छात्रवृत्ति के लिए स्कूलों में दाखिला ले लेते हैं। यानी छात्रों को पढ़ने में और स्कूल प्रशासन को उन्हें पढ़ाने में कोई दिलचस्पी नहीं है। ऐसे ही छात्र भोजन और रोजगार की दूसरी व्यवस्था होते ही स्कूल को अलविदा कह देते हैं। इन तमाम कारणों की वजह से Parents अपने बच्चों को सरकारी स्कूल के बजाय Private School में भेज रहे हैं।
सीएसआर की पहल से बढ़ रहा है शिक्षा का स्तर
सबसे पहले आपको बता दें कि भारत में विश्व के सर्वाधिक युवा बसते हैं। यहां लगभग एक तिहाई व्यक्तियों की उम्र 15 से 29 वर्ष के बीच है। विश्व में सर्वाधिक युवा देश के रूप में भारत ने रिकॉर्ड कायम किया है। भारत ने सर्व शिक्षा अभियान कार्यक्रम और राइट टू एजुकेशन जैसे कानून को लागू करके शिक्षा तक सबकी पहुंच सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण प्रगति की है। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों के लगभग सभी बच्चों की पहुंच प्राथमिक स्कूलों तक हो चुकी है जो कि उनके घरों के एक किलोमीटर के दायरे में हैं। 2009 में जहां स्कूली सुविधा से वंचित बच्चों की संख्या आठ मिलियन थी, वहीं 2014 में उसकी संख्या गिरकर छह मिलियन हो गई है।
शिक्षा की चुनौतियों से लड़ता कॉरपोरेट्स और सीएसआर
इन उपलब्धियों के बावजूद अनेक चुनौतियां कायम हैं। और इन्हीं चुनौतियों से हर दिन दो चार होता है देश का कॉरपोरेट्स और सीएसआर। शिक्षा की उपलब्धता की चुनौती के बाद अब उत्तम शिक्षण और समानता को सुनिश्चित करने की जरूरत है। भारत में लगभग एक तिहाई बच्चे प्राथमिक शिक्षा पूरी होने से पहले ही स्कूल छोड़ देते हैं। जो बच्चे स्कूल नहीं जाते, उनमें से अधिकतर पिछड़े लोग, गरीब, कमजोर और सीमांत तबकों के बच्चे होते हैं। इस बात के प्रमाण भी मिले हैं कि बच्चे अपेक्षित स्तर तक नहीं सीख पाते। ऐसे में देश के कॉरपोरेट्स अपने कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी फंड के माध्यम से शिक्षा के स्तर और शिक्षा के बढ़ावे के लिए बीड़ा उठाया है। देश भर में कॉरपोरेट्स अपने CSR की मदद से ऐसे जगहों पर शिक्षा पहुंचा रहें है जहां शिक्षा की पहुंच से अबतक बच्चे दूर थी। शिक्षा पर बनी पॉलिसी और कानून तो अपना-अपना काम कर ही रही है लेकिन मॉडल और तकनीकी शिक्षा के इंफ्रास्ट्रक्चर में सरकार कमजोर नजर आती है और कॉरपोरेट्स ताकतवर।
सीएसआर की मदद से शिक्षा पर इतना हो रहा है खर्च (CSR in Education)
यहां ये बताना बहुत महत्वपूर्ण है कि देश भर में अगर Corporate Social Responsibility के तहत विकास कार्य हो रहे है तो CSR फण्ड का सबसे ज्यादा इस्तेमाल शिक्षा यानी Education पर हो रहा है। मिनिस्ट्री ऑफ़ कॉरपोरेट अफेयर्स के आकड़ों की माने तो एजुकेशन पर साल 2019-20 में 7,030 करोड़ रुपये खर्च किये गए है। वहीं साल 2018-19 की बात करें तो 6,071 करोड़ खर्च किया गया है। साल 2017-18 में ये आकड़ा 5,756 करोड़ का रहा। साल 2016-17 में 4,504 करोड़ था और साल 2015-16 में 4,057 करोड़ था। इन आकड़ों से आप अंदाजा लगा सकतें है कि कॉरपोरेट्स द्वारा शिक्षा को कितनी तरजीह दी जा रही है।
ये है कुछ कॉरपोरेट्स जो शिक्षा के क्षेत्र में कर रहे है काम
शिक्षा के स्तर को बढ़ाने के लिए ऑनलाइन लर्निंग, कंप्यूटर, इ क्लासेस, अच्छा इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए ये कॉरपोरेट्स निरंतर काम कर रहे है। बात करें इन कंपनियों की तो सबसे ऊपर है रिलायंस इंडस्ट्रीज। रिलायंस फाउंडेशन एजुकेशन एंड स्पोर्ट्स फॉर ऑल 14 गैर सरकारी संगठनों के साथ साझेदारी करके और जमीनी स्तर पर काम करके वंचित बच्चों की शिक्षा का समर्थन करता है। ये एनजीओ बच्चों के बीच खेल, साक्षरता और जीवन कौशल को प्रोत्साहित करने का काम करते हैं। इस पहल के तहत, प्रौद्योगिकी से जुड़ी एक डिजिटल लर्निंग वैन, मुंबई और ठाणे जिलों के 10 सरकारी स्कूलों के 4,000 से अधिक बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान कर रही है। इन पहलों का कुल मिलाकर 0.2 मिलियन बच्चों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा है।
एनटीपीसी भी शिक्षा पर बहुत खर्च करता है। कल के उज्ज्वल युवाओं को शिक्षित करना एक कर्तव्य है जिसका एनटीपीसी बहुत ध्यान रखताहै। एनटीपीसी उत्कर्ष छात्रवृत्ति माध्यमिक विद्यालय से इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज स्तर तक हर साल 7,300 छात्रों को दी जाती है। विप्रो अपने वार्षिक सीएसआर बजट का एक बड़ा हिस्सा शिक्षा और कौशल पहल के साथ-साथ छात्रवृत्ति और अनुदान के लिए खर्च करता है। इंफोसिस देश में शिक्षा के स्तर में सुधार लाने में अग्रणी रही है। प्राथमिक विद्यालयों में स्कूल छोड़ने की दर बहुत अधिक है क्योंकि निम्न आय वाले परिवारों के बच्चों को अपना पेट भरने के लिए कमाने की आवश्यकता होती है। ऐसे में इंफोसिस उनके लिए भी काम करती है। महानदी कोलफील्ड्स लिमिटेड ये एक सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी है जो सीएसआर के जरिये शिक्षा के लिए काम करती है। यह विभिन्न पिछड़े जिलों में गर्ल चाइल्ड का समर्थन करके सरकार के बेटी बचाओ बेटी पढाओ के प्रोजेक्ट को समर्थन करता है
स्किल एजुकेशन से देश के ग्रामीण युवाओं को मिलेगा बेहतर रोजगार
भारत आज बेरोजगारी के संकट का सामना कर रहा है, और वर्तमान में कई युवाओं के पास अच्छी नौकरियां नहीं हैं। गरीबी, सुविधाओं की कमी, अशिक्षा और बेरोजगारी जैसी कई वजह हैं जिनके चलते ग्रामीण क्षेत्र काफी प्रभावित हो रहे हैं। देश को बेरोजगारी से निपटने के लिए एक योग्य व कुशल कार्यबल की आवश्यकता है। भारत में इस समस्या से निपटने के लिए ज़रूरत है कौशल विकास की और कौशल-आधारित शिक्षा की जिसकी मदद से युवा बेरोजगारी से मुकाबला कर सकते हैं। (Education and Skill Development) भारत की अधिकतम आबादी आज भी ग्रामीण इलाकों में रहती है। 2011 के सेंसस के अनुसार, भारत की कुल जनसंख्या का 72.18 % हिस्सा ग्रामीण आबादी का है जिसमें 74 करोड़ से भी ज़्यादा लोग शामिल हैं। योजना आयोग के 12वें प्लान की रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत की श्रम शक्ति 2011 में 478 मिलियन से बढ़कर 2017 में 502 मिलियन हो गई, इन में 85% से अधिक लोगों ने केवल माध्यमिक स्तर तक शिक्षा प्राप्त की थी, इनमें से 55% से अधिक लोग प्राथमिक स्तर तक शिक्षित थे और केवल 2% को ही व्यावसायिक प्रशिक्षण प्राप्त था।
बेहतर रोजगार के लिए स्किल ट्रेनिंग जरूरी
हाल ही में विश्व युवा कौशल दिवस पर संयुक्त राष्ट्र के 2030 के सतत विकास के एजेंडे में शिक्षा व प्रशिक्षण को खास महत्व दिया गया है। ऐसी कई यूनिवर्सिटीज़ हैं जिनमें बीए, बी कॉम, बी टेक जैसे समान्य कोर्सेज ऑफर किए जाते हैं लेकिन उनमें पढ़ने वाले सिर्फ 20 से 25 फीसदी छात्रों को ही रोजगार मिल पाता है। वहीं दूसरी ओर, कौशल आधारित शिक्षा छात्रों को मशीन और फंक्शन सीखने में मदद करती है जो उन्हें व्यावहारिक रूप से सीखने का अवसर देती है। आज B.Voc व M.Voc जैसी स्किल-आधारित डिग्रियों की ज़रूरत है क्योंकि इससे प्रत्येक ग्रेजुएट को सामान्य शिक्षा के साथ स्किल का मजबूत ज्ञान और उनके द्वारा चुने गए स्किल के छेत्र में बेहतर अनुभव भी मिलेगा। भारत को अभी भी औद्योगिक रूप से अधिक विकसित होने की आवश्यकता है, और इसे समृद्ध बनाने के लिए प्रशिक्षित व्यक्तियों की कमी है। भारत को ऐसे कर्मचारियों की आवश्यकता है जिनके पास उद्योगों में काम करने का ज्ञान और व्यावहारिक अनुभव हो। कौशल आधारित शिक्षा छात्रों को औद्योगिक रूप से अधिक कुशल बनने और उनके व्यावहारिक कौशल को बढ़ाने में मदद करेगी। ग्रामीण युवाओं को अक्सर पेशेवरों के रूप में काम करने के लिए उपयुक्त शिक्षा और प्रशिक्षण नहीं मिल पाता है, और वे अक्सर कम वेतन के साथ छोटे काम करते हैं। इसके अलावा, नौकरी के अवसरों की कमी भी इन युवाओं को प्रभावित करती है।
निष्कर्ष
भारत में शिक्षा की परंपरा आदि अनादि काल से चली आ रही है। गुरुकुल परंपरा के साथ ही निरंतर भारत में शिक्षा में बदलाव हुए। शिक्षा के बदलते दौर में बच्चे भी अपने आप को उनमें ढाले हैं। आज़ादी के बाद भारत की एजुकेशन सिस्टम ने कई उतार चढाव देखे है। लेकिन पिछले दो दशकों में सरकार द्वारा संचालित स्कूलों और उनकी पॉलिसियों में कुछ ऐसी नहीं हुई कि एजुकेशन सिस्टम में बदलाव आ गया। ये सकारात्मक बदलाव रातोरात नहीं आएगा। सरकार, शिक्षक और खुद बच्चें से सभी लोग मिलकर शिक्षा के इस सिस्टम को बदल सकते है। आज का ऐसा दौर है जहाँ प्रैक्टिकल ज्ञान बहुत जरुरी हो गया है। ऐसे में किताबी ज्ञान के साथ साथ स्किल डेवलपमेंट, नैतिकता का ज्ञान पर भी सरकार को सोचना होगा और इसमें कोई थोड़ कदम उठाने होंगे।
Education in India