भारत की सुरक्षा व्यवस्था में कांस्टेबल कमलेश कुमारी का नाम केवल एक वीरांगना का नहीं, बल्कि कर्तव्यनिष्ठा के उस चरम आदर्श का प्रतीक है, जिसे हर सुरक्षा कर्मी अनुसरण करना चाहे। संसद हमले के दौरान उनकी सतर्कता, त्वरित निर्णय और अदम्य साहस ने यह साबित किया कि खतरे के सामने टिकने के लिए रुतबा या पद नहीं, बल्कि हिम्मत और जिम्मेदारी की भावना सबसे बड़ा हथियार होती है।
अशोक चक्र हकदार पहली महिला वीरांगना कमलेश कुमारी : साहस, कर्तव्य और बलिदान की विस्तृत जीवन-गाथा
भारतीय सुरक्षा बलों के इतिहास में कुछ नाम ऐसे दर्ज होते हैं जिनकी वीरता केवल घटनाओं में नहीं, बल्कि राष्ट्र की आत्मा में बस जाती है। केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल की कांस्टेबल कमलेश कुमारी ऐसा ही एक नाम हैं, एक ऐसी वीरांगना जिनके साहस ने देश की संसद को बचाया, जिनके संकल्प ने कर्तव्य को सर्वोच्च स्थान दिया, और जिनकी शहादत ने उन्हें भारत की पहली महिला अशोक चक्र विजेता के रूप में अमर बना दिया। उनका जीवन, उनका संघर्ष, और वह निर्णायक क्षण, जब उन्होंने बिना किसी हिचकिचाहट के आतंकियों के सामने सीना तान दिया, भारतीय इतिहास में सदैव स्मरणीय रहेंगे।
राजस्थान की वीर भूमि में जन्मी वीरांगना
राजस्थान के एक साधारण किसान परिवार में जन्मी कमलेश कुमारी बचपन से ही आत्मविश्वास और जिज्ञासा से भरी हुई थीं। उनका पालन-पोषण एक ऐसे वातावरण में हुआ जहां मेहनत को सफलता का पहला कदम माना जाता था। कठिनाइयों के बीच पली-बढ़ी कमलेश ने कभी हार मानना नहीं सीखा। वह पढ़ाई में जितनी सक्रिय थीं, उतनी ही खेलकूद और शारीरिक गतिविधियों में भी आगे रहती थीं। परिवार वालों को अक्सर यह कहते सुना जाता था कि “यह लड़की अपने जीवन में कुछ असाधारण करेगी,” और यह भविष्यवाणी सच साबित हुई! परंतु किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि यह असाधारणता राष्ट्र की सुरक्षा में अपने सर्वोच्च बलिदान के रूप में सामने आएगी।
देशभक्ति के जज़्बे और मेहनत से पाई CRPF की वर्दी
युवा अवस्था में ही कमलेश कुमारी के भीतर देश सेवा का जज़्बा और मजबूत हो गया। इसी भावना के साथ उन्होंने CRPF में भर्ती की तैयारी शुरू की। शारीरिक परीक्षण से लेकर लिखित परीक्षा तक हर चरण में उन्होंने अपनी लगन और अनुशासन से सभी को प्रभावित किया। नौकरी लगने के बाद उनका जीवन बदल गया। वर्दी पहनने का गर्व उनकी आंखों में साफ झलकता था। उनके लिए यह नौकरी केवल आय का साधन नहीं थी, बल्कि राष्ट्र के प्रति एक पवित्र जिम्मेदारी थी। CRPF में उनकी तैनाती जहां भी होती, वह अपनी मेहनत, ईमानदारी और त्वरित प्रतिक्रिया क्षमता के कारण अलग पहचान बना लेतीं। सहकर्मी बताते हैं कि वह बेहद शांत, स्थिर और सजग स्वभाव की थीं। उन्हें छोटी-छोटी गतिविधियों में भी खतरे का पूर्वाभास हो जाता था, जो किसी सुरक्षा कर्मी की सबसे महत्वपूर्ण क्षमताओं में से एक है। अपनी दोनों बेटियों की परवरिश के लिए वह जितनी समर्पित थीं, उतना ही समर्पण वह ड्यूटी के लिए दिखाती थीं। घर और सेवा का संतुलन वह इतनी निपुणता से निभाती थीं कि कोई भी देखकर प्रेरित हुए बिना नहीं रह सकता था।
13 दिसंबर 2001- भारतीय संसद के इतिहास का अविस्मरणीय दिन
13 दिसंबर 2001 की सुबह संसद में सामान्य दिन की तरह गतिविधियां चल रही थीं। देश का लोकतांत्रिक केंद्र अपने पूर्ण गौरव में सक्रिय था। उस दिन कमलेश कुमारी संसद भवन के गेट नंबर 11 पर तैनात थीं। यह एक साधारण ड्यूटी नजर आती थी, परंतु कुछ ही मिनटों में यह स्थान भारतीय लोकशाही की रक्षा का रणक्षेत्र बनने वाला था। करीब 11 बजकर 40 मिनट पर एक सफेद रंग की अस्पष्ट पहचान वाली एंबेसडर कार तेज गति से गेट की ओर बढ़ी। उसके व्यवहार में कुछ ऐसा था जिसने कमलेश का ध्यान तुरंत खींच लिया। वह न तो सामान्य वाहन की तरह रुकने के संकेत दे रही थी और न ही ड्राइवर किसी तरह का परिचय पत्र दिखाने के लिए तैयार था।
गोलियों से छलनी शरीर ने भी हार नहीं मानी
एक क्षण में उन्होंने स्थिति की गंभीरता समझ ली। यदि यह वाहन सीधे परिसर में प्रवेश कर जाता, तो अकल्पनीय तबाही हो सकती थी। बिना समय गंवाए कमलेश कुमारी ने दौड़कर गेट बंद करने का प्रयास किया। यह निर्णय सहज नहीं था, उनके सामने अनजान खतरा था, वाहन की गति तेज थी, और भीतर बैठे लोग किसी भी क्षण जानलेवा प्रतिक्रिया कर सकते थे। परंतु कर्तव्यनिष्ठा ने भय को पीछे धकेल दिया। जैसे ही उन्होंने गेट बंद करने की कोशिश की, आतंकियों ने उन पर अंधाधुंध गोलियां बरसा दीं। परंतु घायल होने के बावजूद उन्होंने पीछे हटना मंजूर नहीं किया। उनकी यह कोशिश सफल रही। गेट पूरी तरह से बंद नहीं हुआ, पर इतना अवश्य हुआ कि वाहन सीधे भीतर नहीं घुस पाया।
कमलेश कुमारी का बलिदान बना लोकतंत्र की ढाल
कमलेश कुमारी की इस तत्परता ने कुछ ही सेकंड में स्थिति का रूप बदल दिया। आतंकियों को वाहन से बाहर उतरना पड़ा और इससे अन्य सुरक्षा बलों को तैयारी का समय मिल गया। यह कुछ क्षण वही थे जिन्होंने संसद की सुरक्षा को बचा लिया, और जो बाद में उनके सर्वोच्च बलिदान का प्रमाण बने। गोलियों की बौछार के बीच कमलेश कुमारी गिर पड़ीं, लेकिन तब तक वह अपना कर्तव्य निभा चुकी थीं। उनका यह बलिदान केवल एक वीरता की घटना नहीं, बल्कि वह ढाल था जिसने भारत के लोकतंत्र को एक बड़े हमले से बचाया। कुछ ही घंटों में देश शोक में डूब गया। खबरें फैलते ही हर आंख नम थी, हर मन श्रद्धा से भर गया।
अशोक चक्र से सम्मानित पहली महिला वीरांगना
कमलेश कुमारी के शौर्य को देखते हुए उन्हें मरणोपरांत अशोक चक्र से सम्मानित किया गया। यह सम्मान न केवल उनके व्यक्तिगत साहस का प्रतीक है, बल्कि उन सभी महिलाओं को समर्पित है जो देश की रक्षा में कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी हैं। इस पुरस्कार का पहला महिला विजेता होना उनकी उपलब्धि को और भी ऐतिहासिक बनाता है। वह उस समय का चेहरा बनीं जब भारतीय समाज यह सीख रहा था कि सुरक्षा और वीरता केवल पुरुषों का क्षेत्र नहीं है, महिलाएं भी उतनी ही सक्षम, निडर और समर्पित हैं।
13 दिसंबर 2001- आतंकवाद की चरम सीमा
13 दिसंबर 2001 भारत के लोकतांत्रिक इतिहास का सबसे काला दिन माना जाता है। देश की संसद, जहां राष्ट्र की नीतियां बनती हैं, को निशाना बनाकर आतंकियों ने न केवल सुरक्षा व्यवस्था को चुनौती दी, बल्कि भारत की संप्रभुता पर सीधा हमला किया। यह हमला कुछ ही मिनटों में इतना भयानक रूप ले गया कि पूरा परिसर गोलियों और धमाकों से दहल उठा। लेकिन सुरक्षा बलों की त्वरित प्रतिक्रिया और जवानों की बहादुरी ने आतंकियों को संसद भवन के भीतर प्रवेश नहीं करने दिया, जिससे संभावित राष्ट्रीय त्रासदी टल गई। इस घटना ने स्पष्ट कर दिया कि लोकतांत्रिक संस्थानों पर खतरा कितना गंभीर हो सकता है और सुरक्षा को लेकर एक क्षण की चूक भी कितनी महंगी पड़ सकती है। हमले ने देश को झकझोरा, लेकिन साथ ही यह भी दिखाया कि संकट की घड़ी में हमारे सुरक्षाकर्मी किस तरह अपने प्राणों की आहुति देकर लोकतंत्र की रक्षा करते हैं। यह हमला केवल एक सुरक्षा घटना नहीं, बल्कि आतंकवाद के खिलाफ भारत की दृढ़ता का निर्णायक मोड़ भी बन गया।
शहादत बनी प्रेरणा
आज संसद के गेट नंबर 11 से गुजरते हुए कई अधिकारी और कर्मचारी अनायास ही रुककर उस वीरांगना के बारे में सोचते हैं जिसने उसी स्थान पर अपने प्राण न्यौछावर कर दिए थे। उनकी स्मृति में वहां एक विशेष तख्ती स्थापित की गई है। उनकी बेटियां, उनका परिवार और उनके साथी आज भी गर्व से उनका नाम लेते हैं। उनकी शहादत से प्रेरित होकर अनेक युवतियां सुरक्षा बलों में भर्ती होती हैं, और उनका नाम आज भी प्रशिक्षण केंद्रों में नए जवानों को प्रेरणा के रूप में सुनाया जाता है।
कमलेश कुमारी की शहादत- कर्तव्य का सर्वोच्च मानदंड
कमलेश कुमारी की शहादत याद दिलाती है कि देश की रक्षा करने वाली हर महिला उतनी ही सक्षम, दृढ़ और बलिदानी है जितना कि कोई पुरुष सहकर्मी। अशोक चक्र से सम्मानित होना केवल उनका व्यक्तिगत गौरव नहीं, बल्कि उस बदलते भारत का प्रमाण है जहां महिलाओं की भूमिका सुरक्षा और रक्षा के हर स्तर पर बढ़ रही है। आज जब सुरक्षा चुनौतियां अधिक सूक्ष्म और जटिल होती जा रही हैं, कमलेश कुमारी का उदाहरण यह बताता है कि एक सजग प्रहरी की एक निर्णायक कार्रवाई पूरे राष्ट्र की दिशा बदल सकती है। हमारा दायित्व है कि हम उनकी स्मृति को केवल श्रद्धांजलि तक सीमित न रखें, बल्कि सुरक्षा ढांचे को मजबूत बनाने और हर जवान को आवश्यक प्रशिक्षण, सशक्तिकरण और सम्मान प्रदान करने के लिए सदैव प्रतिबद्ध रहें।
कर्म और कर्तव्य की पराकाष्ठा- शहीद कांस्टेबल कमलेश कुमारी
कमलेश कुमारी का जीवन केवल एक शहीद की कहानी नहीं, बल्कि वह संदेश है कि देशभक्ति शब्दों से नहीं, कर्म और त्याग से परिभाषित होती है। उन्होंने साबित किया कि कर्तव्य की राह कठिन हो सकती है, लेकिन उसका उद्देश्य महान होता है। कमलेश कुमारी केवल इतिहास की एक घटना नहीं- वह भारत की अदम्य आत्मा का जीवंत प्रतीक हैं। उनका बलिदान भारत की सुरक्षा व्यवस्था के इतिहास में सदैव स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा।
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