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August 1, 2025

जापान की घटती आबादी के बीच 10 साल में दोगुनी हुई मुस्लिम आबादी के सामने अब आई समस्या

The CSR Journal Magazine
जापान की आबादी घट रही है और देश में मुस्लिमों की आबादी करीब 10 सालों में दोगुनी से अधिक हो गई है। रिपोर्ट के मुताबिक, 2010 में जापान में मुस्लिमों की आबादी करीब 1 लाख 10 हजार थी, लेकिन 2020 में बढ़कर 2 लाख 30 हजार हो गई। इनमें 50 हजार जापानी भी शामिल हैं जो धर्मांतरण के बाद मुस्लिम बने हैं। ये आंकड़े जापान की वसेडा यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर तनाडा हिरोफुमी की ओर से जारी किए गए।

घटती आबादी से परेशान जापान

जापान की आबादी घट रही है और देश में जन्म दर कम हो गई है। भविष्य में जापान में काम करने वाले युवाओं की संख्या घटने का खतरा पैदा हो गया है। इसकी वजह से जापान की सरकार विदेशी वर्कर्स और स्टूडेंट्स को आकर्षित करने की कोशिश कर रही है। जापान वर्तमान में जनसंख्या संकट से जूझ रहा है। जैसा कि हालिया सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि 2023 में देश की जनसंख्या में पांच लाख (531,700) से ज़्यादा की कमी दर्ज की गई है। 2023 में जन्म दर 730,000 के रिकॉर्ड निम्नतम स्तर पर पहुंच गई, जबकि जापान में मृत्यु दर भी 15.8 लाख के रिकॉर्ड उच्च स्तर पर पहुंच गई। आंतरिक मामलों के मंत्रालय के अनुसार, 1 जनवरी तक जापान की कुल जनसंख्या 12.49 करोड़ थी।

क्या कहते हैं आंकड़े

12वां सबसे अधिक आबादी वाला देश जापान, मुख्यतः कम जन्म दर और बदलती जीवनशैली के कारण तेज़ी से बढ़ती उम्रदराज़ आबादी से जूझ रहा है। 2008 में 12.8 करोड़ के शिखर पर पहुंचने के बाद, जनसंख्या में गिरावट शुरू हुई, जो 2022 में 12.5 करोड़ और 2023 में 12.49 करोड़ दर्ज की गई। ईस्ट एशिया फ़ोरम के अनुसार, अगर यही रुझान जारी रहा, तो 2100 तक जापान की जनसंख्या घटकर 6.3 करोड़ रह जाने का अनुमान है।

कम होती युवाशक्ति और बढ़ती बुजुर्ग आबादी

जापान में तेज़ी से घटती आबादी के मुख्य कारण कम जन्म दर और बदलती जीवनशैली व विवाह के प्रति दृष्टिकोण हैं। सर्वेक्षणों से पता चलता है कि युवा जापानी शादी करने या बच्चे पैदा करने के प्रति अनिच्छुक होते जा रहे हैं, क्योंकि वे नौकरी की निराशाजनक संभावनाओं, जीवनयापन की बढ़ती लागत, जो वेतन से भी तेज़ गति से बढ़ती है और लिंग-भेदभाव वाली कॉर्पोरेट संस्कृति से हतोत्साहित हैं, जो केवल महिलाओं और कामकाजी माताओं पर ही बोझ डालती है। इसके अलावा, अब महिलाएं बड़ी संख्या में कार्यबल में शामिल हो रही हैं और समाज ने विविधता को स्वीकार करना शुरू कर दिया है, जिसके परिणामस्वरूप विवाह दर में गिरावट आई है। इसके अलावा, जापान अभी भी एक अत्यधिक पितृसत्तात्मक समाज बना हुआ है, जहां विवाहित महिलाओं से अक्सर देखभाल करने की भूमिका निभाने की अपेक्षा की जाती है, भले ही सरकार पतियों को अधिक शामिल करने के प्रयास करती हो।

जापान में बढ़ रही मुस्लिम आबादी

जापान न केवल मंदिरों और धार्मिक स्थलों का देश है, बल्कि मस्जिदों का भी हिस्सा है। पिछले दो दशकों में मुसलमानों और जापानी नागरिकों तथा धर्मांतरित जापानी लोगों के बीच विवाहों में तेज़ वृद्धि के कारण बढ़ा है, जिसके कारण मस्जिदों की संख्या में सात गुना वृद्धि हुई है। टोक्यो के वासेदा विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के एमेरिटस प्रोफेसर हिरोफुमी तनाडा का अनुमान है कि जापान में अब 200,000 से अधिक मुसलमान रहते हैं।
तनाडा और उनके सहयोगियों द्वारा किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि मार्च 2021 में जापान भर में 113 मस्जिदें थीं, जबकि 1999 में इनकी संख्या केवल 15 थी। यह आंकड़ा सरकारी आंकड़ों, देशवार जनसंख्या में मुसलमानों के प्रतिशत और जापान में इस्लामिक अध्ययन संघ की सदस्यता के अध्ययन पर आधारित है। उनके अध्ययन से पता चला है कि 2020 के अंत तक लगभग 230,000 मुसलमान जापान को अपना घर मानते थे। इस संख्या में जापानी नागरिक तथा वे लोग जिन्होंने विवाह तथा अन्य परिस्थितियों के कारण स्थायी निवासी का दर्जा प्राप्त किया था, उनकी संख्या लगभग 47,000 थी, जो एक दशक पहले के 10,000 से 20,000 के अनुमान से दोगुने से भी अधिक थी। कई लोग शादी के बाद धर्मांतरण के ज़रिए मुसलमान बने हैं, और बढ़ती संख्या में लोग अपनी मर्ज़ी से भी इस धर्म में शामिल हो रहे हैं।

सुविधाओं के साथ बढ़ा संघर्ष भी

जापान में मुस्लिमों की आबादी बढ़ी है तो उनके लिए कुछ सुविधाएं भी बढ़ गई हैं और अन्य चीजों के लिए मांग हो रही है। देश में अब मस्जिदों की संख्या 110 से अधिक हो गई है। बीप्पू मुस्लिम एसोसिएशन के प्रमुख अब्बास खान कहते हैं कि यह बदलाव स्वागत योग्य है। उन्होंने बताया कि 2001 में जब वे पाकिस्तान से एक छात्र के तौर पर जापान आए थे तब यहां सिर्फ 24 मस्जिदें थीं।
एक तरफ मस्जिदों की संख्या बढ़ गई है, लेकिन कई चीजों के लिए मुस्लिमों को अभी भी संघर्ष करना पड़ रहा है। इनमें से एक चुनौती है- कब्रगाह के लिए जगह ढूंढना! जापान की 99 फीसदी आबादी दाह-संस्कार की परंपरा मानती आई है, इस वजह से देश में कब्रगाह की संख्या काफी कम है। अब्बास खान के मुताबिक उन्होंने जापान के हिजी में मुस्लिमों के लिए कब्रगाह बनाए जाने की कोशिश की थी, लेकिन स्थानीय लोगों के विरोध की वजह से काम रोक दिया गया। कब्रगाह का विरोध करने वाले कई लोगों ने डर जताया कि इससे जमीन अशुद्ध हो जाएगी और वहां के लोग सहूलियत के साथ पानी नहीं पी पाएंगे। खान कहते हैं कि अगर उनकी आज मौत हो जाए तो उन्हें नहीं मालूम कि उनको कहां दफनाया जाएगा।

शिंतो-इस्लाम की धार्मिक मान्यताओं के बीच बढ़ रहा टकराव

जापान के लोग बाहरी लोगों के रीति रिवाजों को लेकर बंटे हुए हैं। कुछ लोगों का मानना है कि जापान में रहने वाले नए लोगों की जरूरतों को समझा जाना चाहिए। लेकिन दूसरे गुट के लोग कहते हैं कि जिन्हें भी जापान की नागरिकता मिल रही है, उन्हें जापानी रीति रिवाजों को मानना चाहिए।
इस्लाम और जापानी शिंतो, दो अलग-अलग धार्मिक परंपराएं हैं, जिनके अपने विश्‍वास व प्रथाएं हैं। दोनों धर्म अपने अनुयायियों को मार्गदर्शन और आध्यात्मिक अर्थ उपलब्‍ध कराते हैं। दोनों धर्म अपने मूल और विश्‍वासों में काफी अलग हैं। इस्लाम की उत्पत्ति 7वीं शताब्दी में हुई और यह एक अल्लाह और कुरान की शिक्षाओं में विश्‍वास पर केंद्रित धर्म के रूप में उभरा। दूसरी ओर, शिंतो जापान का धर्म है, जिसकी जड़ें यहां प्राचीन काल से हैं। यह जापानी लोककथाओं, रीति-रिवाजों और जीववादी विश्‍वासों पर विकसित हुआ है। शिंतो का कोई संस्थापक या आधिकारिक शास्त्र नहीं है। इसमें प्रकृति में मौजूद दिव्य आत्माओं या शक्तियों और जीवन के सभी पहलुओं के प्रति श्रद्धा की विशेषता है। शिंतो के पास सिद्धांतों का व्यापक सेट या विश्‍वास प्रणाली नहीं है। शिंतो पवित्रता, कृतज्ञता और प्राकृतिक दुनिया के साथ सद्भाव पर जोर देता है।

दृष्टिकोण में फर्क बन रहा टकराव की वजह

शिंतो का खास पहलू दूसरे धर्मों को गले लगाने का रहा है। शिंतों धर्म में 80 लाख देवताओं को स्‍वीकार किया गया है। एक सहस्राब्दी से अधिक समय से तक शिंतो और बौद्ध धर्म आपस में जुड़े हुए हैं। मंदिरों में जाने वाले जापानी शिंतो कामी और बौद्ध देवताओं दोनों के प्रति श्रद्धा प्रकट करते हैं। हालांकि, यह सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व इस्‍लाम के नजरिये से संभव नहीं है। शिंतो में बहुदेववाद की अवधारणा इस्लाम की एकेश्‍वरवादी प्रकृति के साथ मेल नहीं खाती है। इस्लामी शिक्षाएं किसी भी अन्य संस्थाओं की पूजा पर सख्ती से रोक लगाती हैं। आस्थाओं का यह संभावित टकराव और अलग-अलग धर्मशास्त्रीय दृष्टिकोण शिंतो और इस्लाम के बीच संघर्ष पैदा कर रहा है।
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