ऑपरेशन के दौरान पेट में छूट गया सर्जिकल कॉटन और धागा, हैदराबाद जिला उपभोक्ता आयोग ने चेन्नई के अस्पताल को लगाई सख़्त फटकार! रोगी महिला को दिया ₹5.2 लाख का मुआवजा!
सर्जरी में लापरवाही पर हैदराबाद की महिला को ₹5.2 लाख मुआवज़ा
हैदराबाद की एक महिला के साथ सर्जरी के दौरान हुई गंभीर चिकित्सकीय लापरवाही के मामले में हैदराबाद जिला उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग–II ने बड़ा और अहम फैसला सुनाया है। आयोग ने चेन्नई स्थित एक निजी अस्पताल और उससे जुड़े डॉक्टरों को घोर चिकित्सा लापरवाही (Gross Medical Negligence) का दोषी मानते हुए पीड़िता को ₹5.2 लाख का मुआवज़ा देने का आदेश दिया है।
क्या है पूरा मामला
पीड़िता टी. आलेख्य (T Alekhya) ने आयोग में शिकायत दर्ज कराई थी कि एक सर्जरी के दौरान डॉक्टरों ने उसके पेट के भीतर सर्जिकल कॉटन और धागा छोड़ दिया, जिसकी वजह से उसे लंबे समय तक तेज़ दर्द, संक्रमण और गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड़ा। शिकायत के अनुसार, ऑपरेशन के बाद भी उसकी तकलीफ़ कम नहीं हुई। जब हालत बिगड़ती चली गई तो उसे दोबारा जांच और उपचार कराना पड़ा, जहां मेडिकल रिपोर्ट्स में यह सामने आया कि पहले किए गए ऑपरेशन में सर्जिकल सामग्री शरीर के अंदर रह गई थी।
आयोग की सख़्त टिप्पणी
मामले की सुनवाई के दौरान आयोग ने मेडिकल दस्तावेज़ों, जांच रिपोर्ट्स और पीड़िता की दलीलों का बारीकी से अध्ययन किया। आयोग ने अपने आदेश में कहा कि, “सर्जरी के बाद रोगी के शरीर में सर्जिकल कॉटन और धागा छोड़ा जाना साफ़ तौर पर लापरवाही और पेशेवर कर्तव्य के गंभीर उल्लंघन को दर्शाता है।” आयोग ने यह भी स्पष्ट किया कि ऐसी चूक को सामान्य भूल नहीं माना जा सकता, क्योंकि इससे मरीज की जान को सीधा खतरा होता है।
आयोग ने दिया मुआवज़े का आदेश
उपभोक्ता आयोग ने अस्पताल और संबंधित डॉक्टरों को संयुक्त रूप से आदेश दिया कि वे पीड़िता को-
• ₹5 लाख मानसिक, शारीरिक पीड़ा और इलाज में हुई परेशानी के लिए,
• ₹20,000 मुकदमे के खर्च के तौर पर, यानि कुल ₹5.2 लाख की राशि निर्धारित समय सीमा में अदा करें।
यह फैसला देशभर के निजी अस्पतालों और डॉक्टरों के लिए एक सख़्त चेतावनी माना जा रहा है। उपभोक्ता आयोग ने यह संकेत दिया है कि इलाज में लापरवाही, चाहे वह कितनी भी “छोटी” क्यों न दिखाई दे, मरीज के जीवन पर बड़ा असर डाल सकती है और इसके लिए जवाबदेही तय की जाएगी।
भारत में चर्चित मेडिकल नेग्लिजेंस के मामले
अनुराधा साहा केस
कोलकाता / दिल्ली- 1998 (फैसला 2013)- अमेरिका में रहने वाली अनुराधा साहा की कोलकाता में इलाज के दौरान गलत दवाओं और लापरवाह उपचार के कारण मृत्यु हो गई। सुप्रीम कोर्ट ने इसे भारत का सबसे बड़ा मेडिकल नेग्लिजेंस केस माना और डॉक्टरों व अस्पताल को ₹11.41 करोड़ का मुआवज़ा देने का आदेश दिया। यह फैसला देश में मरीजों के अधिकारों की दिशा में ऐतिहासिक माना गया।
के.एस. माधवन बनाम निखिल सुपर स्पेशलिटी अस्पताल केस
केरल 2004- सर्जरी के दौरान डॉक्टरों ने मरीज के पेट में सर्जिकल स्पंज छोड़ दिया, जिससे संक्रमण फैल गया और दोबारा ऑपरेशन करना पड़ा। उपभोक्ता आयोग ने अस्पताल को दोषी ठहराते हुए मुआवज़ा देने का आदेश दिया।
प्रफुल्ला कुमार बनाम अपोलो अस्पताल केस
चेन्नई 2007- गलत डायग्नोसिस और देर से इलाज के कारण मरीज की हालत बिगड़ी। आयोग ने कहा कि गलत जांच रिपोर्ट के आधार पर इलाज भी लापरवाही है। अस्पताल पर आर्थिक जुर्माना लगाया गया।
डॉ. एस. कुमार बनाम निखिल अस्पताल केस
नई दिल्ली 2010- मरीज को गलत ब्लड ग्रुप का खून चढ़ा दिया गया, जिससे उसकी मौत हो गई। राष्ट्रीय उपभोक्ता आयोग (NCDRC) ने इसे स्पष्ट मेडिकल नेग्लिजेंस मानते हुए पीड़ित परिवार को मुआवज़ा दिया।
मुंबई फोर्टिस अस्पताल केस में गलत अंग की सर्जरी
मुंबई 2011- एक मरीज का ऑपरेशन गलत अंग पर कर दिया गया। बाद में अस्पताल ने गलती स्वीकार की। यह मामला देशभर में चर्चा का विषय बना और अस्पतालों में सेफ्टी प्रोटोकॉल पर सवाल खड़े हुए।
डॉ. जैकब मैथ्यू बनाम पंजाब राज्य
पंजाब 2005 (सुप्रीम कोर्ट)- डॉक्टर की लापरवाही के चलते आक्सिजन की जरूरत न समझ पाने से मरीज की हुई मौत! यह केस मेडिकल नेग्लिजेंस की कानूनी परिभाषा तय करने वाला ऐतिहासिक मामला है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हर मेडिकल गलती अपराध नहीं होती, लेकिन स्पष्ट लापरवाही पर कार्रवाई ज़रूरी है।
गुड़गांव मैक्स अस्पताल जुड़वां बच्चों की मौत
गुरुग्राम 2017- डेंगू से पीड़ित सात साल की बच्ची की मौत के बाद अस्पताल पर अनावश्यक इलाज और भारी बिल का आरोप लगा। सरकारी जांच में अस्पताल की गंभीर लापरवाही सामने आई।
जयपुर- ऑपरेशन के दौरान काटी गलत नस
जयपुर 2018- घुटने की सर्जरी के दौरान नस कट जाने से मरीज को जीवनभर की परेशानी झेलनी पड़ी। राज्य उपभोक्ता आयोग ने डॉक्टर को दोषी मानते हुए मुआवज़ा दिलाया।
हैदराबाद मामला- मेडिकल लापरवाही पर कड़ा संदेश
भारत में मेडिकल नेग्लिजेंस के मामलों ने यह साफ कर दिया है कि इलाज में लापरवाही सीधे जीवन से जुड़ा अपराध है। अदालतों और उपभोक्ता आयोगों के कड़े फैसलों ने अस्पतालों को यह संदेश दिया है कि मरीज केवल “मरीज” नहीं बल्कि कानूनी उपभोक्ता भी है। हैदराबाद का ताज़ा मामला इसी कड़ी का एक और उदाहरण है, जो बताता है कि अब लापरवाही छुप नहीं सकती। फैसले के बाद पीड़िता को न्याय मिलने की उम्मीद जगी है। यह मामला उन मरीजों के लिए भी मिसाल है, जो मेडिकल लापरवाही के बावजूद चुप रह जाते हैं। यह निर्णय एक बार फिर साबित करता है कि उपभोक्ता कानून के तहत मरीज भी उपभोक्ता हैं, और अगर इलाज में लापरवाही होती है तो अस्पताल और डॉक्टरों को जवाब देना ही होगा।
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