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April 1, 2025

क्या हमें पता है आजादी के मायने?

१५ अगस्त की सुबह रोहन स्कूल जाने के लिए बहुत उत्साहित था। सवेरे तैयार होकर स्कूल पंहुचा। प्रिंसीपल सर ने बड़ी शान से तिरंगा फहराया, सबने मिलकर राष्ट्रगीत गाया। आजादी के मतवाले शहीदों को श्रध्दांजली अर्पित की गई और नन्हा रोहन हाथ में तिरंगा लेकर घर लौटा। स्कूल में छुट्टी थी, पापा का दप्तर भी बंद था, सो पिताजी के साथ शाम को सैर पर निकल पडा। रास्ते में उसे जगहजगह वही तिरंगा फेंका हुआ दिखाई दिया। रोहन ने सभी तिरंगो को इकट्ठा किया और बडे जतन से घर लाकर रख दिया। वह कुछ परेशान सा दिखाई दे रहा था। मैंने उससे इसकी वजह पूछी। उसने बदले मे जो सवाल मुझसे किया उसने मुझे बेचेन और निरुत्तर कर दिया। उसने कहा, ‘हम जिस तिरंगे के सामने सबेरे सर झुकाते है, उसी को कूडे में क्यों डाल देते है? हम वर्ष में दिन अपनी आजादी का जशन क्यों मनाते है? यदि हम आजाद है तो आप मुझे अकेले पार्क में क्यू नही जाने देती? दीदी को दोस्तो के साथ बाहर जाने की इजाजत क्यो नहीं मिलती? कभी उन्हें घर लौटने में देर हो जाए तो आप इतनी परेशान क्यों होती है ?

 

क्या रोहन के इन सवालों का सही जवाब आपके पास है ? शाम के वक्त  प्रिया के अपनी दोस्त के घर जाने की इजाजत को नकारने की वजह रोहन नहीं जानता, लेकिन आप और हम जानते हैं। आप और हम जानते हैं कि ७१ वर्ष पहले केवल हमारा देश आजाद हुआ था, लेकिन हम आज भी गुलामी की बेडियाँ तोड नही पाए हैं। पहले हम अंग्रेजों के गुलाम थे, अब हम भ्रष्टाचार, अंधविश्वास, स्वार्थ, व्यभिचार के गुलाम हैं। पहले हमारा देश अंग्रेजो की हुकुमत तले दबा हुआ था, अब हमारे लोकतांत्रिक देश में दबंगों, बाहुबलियों और राजनेताओंकी तानाशाही चलती है। भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हुक्करानों की प्यास बुझती है, जेबें। बड़े बड़े राजनितिक दावों और वादों के बावजूद आज भी देश का किसान आत्महत्या करने को मजबूर है। बेटी बचाओ के नारे के बावजूद निर्भया, आसिफा और उन जैसी कई बेटियाँ भूखे भेडियों का शिकार बनती हैं और मरने के बाद भी इंसाफ की राह तकती हैं। देश के महिला संरक्षण गृहों में आश्रय की तलाश में सरकारी अनुदानों के सहारे रहने वाली नन्हीं मासूम बच्चियाँ उन्ही सराकारी बाबुओंऔर नेताओंकी हवस की बलि चढ जाती है। बालमजदूरी पर कड़े कानून के बावजूद हर दुकान, होटल, दफतर और घरों में नन्हें बच्चे और बच्चियाँ बरतन माँजते और पिटते दिखाई दे जाते हैं। देश का युवा बढती राजनीतिक बिसातों का मोहरा बन चुका है और जातिधर्म, आरक्षण और हिंदूमुस्लिम मुद्दे पर मरने मारने को आमादा है। देश का लोकतंत्र अब भीडतंत्र में बदल चुका है और इंसान की जान अब पशुओंकी जान से भी सस्ती हो गई है। ये हमारे सपनों का भारत नहीं है। ये गाँधी, नेहरु, सुभाषचंद्र बोस के सपनों का भारत नहीं है। ये वो आजादी भी नहीं है जिसके लिए भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव हँसतेहँसते फाँसी पर चढ़ गए थे। ये वो क्रांति भी नहीं है जिसकी चिंगारी सदियों पहले मंगल पांडे ने फूंकी थी। आज हमें अपने अधिकारों पर लड़ना तो आता है, लेकिन अपने कर्तव्यों का ज्ञान नहीं होता। एक साफसुथरी सरकार तो चाहते हैं, पर केवल आरोपोंप्रत्यारोपों के जरिए। हम कीचड़ से बचकर निकलना चाहते हैं, पर उसे साफ करना नहीं चाहते। हम शंघाई जैसी सड़के चाहते हैं, पर खुद कभी किसी गड्ढे कों भरना नहीं चाहते। आरक्षण की बैसाखी अपने बच्चों को पकड़ाकर उन्हें अपने पैरों पर खड़ा होने से हम खुद ही रोक रहे है। जातिधर्म का बीज बोकर अपने बच्चें को एक धर्मनिरपेक्ष देश का सपना दिखाते हैं। हमने देश को अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए खोखला बना दिया है और अगली पीढ़ी से चाँद पर जाने की बात करते हैं। जागिए और देखिए, ये आजादी नहीं है। कुछ हमनें और कुछ सियासतदानों ने मिलकर इस देश की सारी नसें काट दी है। सारा रक्त बह चुका है और देश मृत्युशय्या पर है। अपनी आने वाली पीढ़ियों को हम एक मरणासन्न देश की बागडोर सौपने जा रहे हैं। अपने रक्तरंजित हाथों से तिरंगा लहराकर उसका अपमान मत कीजिए। पहले सोचिए कि आपने देश को क्या दिया, फिर अपने हाथ माँगने के लिए बढ़ाइये। तब तक इस आजादी के जश्न को हाशिये पर डाल दीजिए।

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