Thecsrjournal App Store
Thecsrjournal Google Play Store
July 25, 2025

कोसी नदी कहलाती है बिहार का ‘शोक’, बिहार की बाढ़ का नेपाल कनेक्शन 

The CSR Journal Magazine
Kosi River Bihar: कोसी नदी एक बार फिर बिहार में अपना रौद्र रूप दिखा रही है। बिहार के लोगों के लिए कोसी नदी कभी वरदान, तो दूसरे ही पल अभिशाप साबित होती है। आख़िर क्यों कहलाती है कोसी ‘बिहार का शोक’!

कोसी- बिहार का शोक

बिहार के जिन इलाकों से कोसी नदी गुजरती हैं, वहां  की फसलें लहलहाती रहती हैं, क्योंकि जमीन खूब उपजाऊ है। तभी तो इसे मिथिला की लाइफ लाइन भी कहा जाता है। यह नदी शांत रहकर जितना लोगों को खुशहाल कर देती है, विनाशकारी बनकर उतना ही दर्द भी देती है। इस समय भी बिहार में कोसी, गंडक, बागमती नदी कहर बरपा रही है।
कोसी नदी का महत्व हिंदू धर्म के पुराणों और वेदों में भी बताया गया है। फणीश्वरनाथ रेणु जैसे कई बड़े लेखकों ने इस पर लिखा है। वहीं, कोसी नदी को ‘बिहार का शोक’ नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि जब यह अपने रौद्र रूप में आती है तो सब तबाह कर छोड़ती है। इसमें आने वाली बाढ़ से बिहार के लाखों लोगों को बेघर होना पड़ता है। नेपाल की 7 नदियां कोसी में मिलती है, जो बिहार में हर साल भारी बाढ़ लाकर तबाही मचाती है।

बाढ़ से बेहाल बिहार

बिहार आपदा विभाग के अनुसार यह भारत का सर्वाधिक बाढ़ ग्रस्त राज्य है, जहां कुल आबादी के 76 प्रतिशत लोग बाढ़-आवर्ति क्षेत्रों में निवास करते हैं। राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 73 प्रतिशत (करीब 68,800 वर्ग किमी) हिस्सा बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में आता है। प्रदेश से होकर बहने वाली सभी नदियों में उफान आ गया है। गंगा नदी के जलस्तर में लगातार बढ़ोतरी हो रही है जिसके चलते दर्जनों जिलों में गांव का मुख्य रास्ता पूरी तरह बंद हो गया है और लोग गांव छोड़कर ऊंचे इलाकों की ओर पलायन करने लगे हैं।
बिहार में इस बार तबाही ने कुछ जल्दी दस्तक दी है। गंगा के बढ़ते जलस्तर ने न सिर्फ खेतों में खड़ी फसलों को निगल लिया है, बल्कि किनारे बसे कई गांवों की खुशहाली भी छिन रही है। गंगा नदी के जलस्तर में वृद्धि होने से पटना, भोजपुर, भागलपुर सहित कई क्षेत्रों में फसलें बर्बाद हो गयी है। भागलपुर, कहलगांव और अजगैवीनाथ धाम में गंगा और नवगछिया में गंगा और कोसी दोनों नदियां उफान पर हैं। गंगा के कटान से गांव उजड़ने लगे है और लोग पलायन को मजबूर हो रहे है।

गंगा नदी में समाहित होता जा रहा गांव का एक-एक घर

भोजपुर के शाहपुर प्रखंड के जवइनिया गांव में जहां कभी खुशहाली बसती थी, आज वहां सिर्फ गंगा नदी से होने वाले कटाव से लोगों का डूबता आशियाना और खामोशी है। जवइनिया गांव के एक एक घर गंगा में समाहित होते जा रहे है। लोग इन दिनों गांव छोड़कर दूसरे स्थानों पर जाने को मजबूर हैं। उधर, पटना के दियारा क्षेत्र में सब्जी की फसलें पानी में समा गई हैं। गंगा नदी का कटाव अब गांव के बीचोबीच पहुंच गया है। गांव में जाने वाली मुख्य सड़क भी कटाव की भेंट चढ़ चुकी है जिसके कारण गांव में वाहनों का प्रवेश भी अब बंद हो चुका है। गंगा के कटाव के कारण दर्जन भर से अधिक घर एक-एक कर गंगा में विलीन हो गए हैं। कटाव के रौद्र रूप को देखते हुए गांव के सौ से अधिक परिवार यह मान चुके हैं कि उनके घरबार और मकान बचने वाले नहीं हैं।
साल 1953 में तत्कालीन पीएम जवाहर लाल नेहरू ने कोसी परियोजना का शिलान्यास किया था और कहा था कि अगले 15 साल में बिहार में बाढ़ पर नियंत्रण पा लिया जाएगा। हालांकि, आज भी बिहार में बाढ़ की स्थिति वही है।

उत्तर बिहार बाढ़ वाला जोन

उत्तरी बिहार में कुल आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा बाढ़ संभावित क्षेत्र में निवास करता है। बिहार राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के अनुसार, उत्तरी बिहार के कुल क्षेत्रफल का 73.63 प्रतिशत बाढ़ संभावित है। कुल 38 में से 28 जिलों में हर साल मानसून के सीजन में बाढ़ आती है जिनमें 15 जिले गंभीर रूप से प्रभावित होते हैं।
भारत के अलावा पड़ोसी देश नेपाल भी बाढ़ से बदहाल है। दरअसल बिहार की बाढ़ में सबसे बड़ा योगदान कोसी नदी का है। कोसी नदी नेपाल में हिमालय से निकलती है। इसके बाद यह नदी नेपाल के बहुत बड़े हिस्से में बहती हुई बिहार से भारत में प्रवेश करती है। नेपाल के हिस्से में कोसी में पानी बढ़ने पर पहाड़ी देश भारत की ओर पानी छोड़ देता है।

जानिए बिहार में बाढ़ का नेपाल कनेक्शन

बिहार में कोसी नदी में सात और सहायक नदियां मिलकर इसमें पानी के स्तर को कई गुना बढ़ा देती हैं। इसी वजह से राज्य में हर साल बाढ़ की वजह से भीषण तबाही मचती है। इसके अलावा नेपाल से उद्गम वाली कमला बलान, बागमती, गंडक, बूढ़ी गंडक समेत कई और नदियां बिहार में आती हैं। बिहार के कई जिले नेपाल से सटे हुए हैं। इनमें सीतामढ़ी, सुपौल, अररिया, पूर्वी चंपारण, पश्चिमी चंपारण, मधुबनी और किशनगंज शामिल हैं।
चूंकि पहाड़ी देश होने की वजह से नेपाल भारतीय राज्यों से अधिक ऊंचाई पर स्थित है। इसकी वजह से यह सारा पानी भारत की ओर आकर तबाही मचाता है। जानकारों की मानें तो इस पानी को रोकने के लिए नेपाल में कोसी नदी पर डैम बनना चाहिए। इसको लेकर भारत नेपाल से कई बार मांग कर चुका है, लेकिन नेपाल सरकार की तरफ से सकारात्मक उत्तर न मिलने की वजह से यह नहीं हो सका है। नेपाल सरकार कोसी नदी पर बनने वाले इस डैम को लेकर पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों को लेकर चिंतित है।

फरक्का बैराज बांध भी बाढ़ का एक कारण

हर साल मानसून के बाद बिहार में आने वाली बाढ़ का दूसरा सबसे बड़ा कारण गंगा नदी पर बने फरक्का बैराज को भी माना जाता है। इस बांध पर गंगा और उसकी अन्य सहायक नदियों के साथ बहकर आई गाद इकट्ठा हो जाती है। इसकी वजह से इलाके में बाढ़ का रौद्र रूप देखने को मिलता है। प्रत्येक साल नदी के साथ गाद और सिल्ट से नदी का तल ऊंचा होते जा रहा है और बाहर की जमीन नीचे है। सुरक्षा बांध बनाकर, पुल की कम चौड़ाई और उसके लिए गाइड बांध बनाकर तटबंध की चौड़ाई को कम की गई है। इसके कारण बाढ़ की स्थिति तटबंध के बीच पहले से भी अधिक भयावह हो गई है। आज भी तटबंध के बीच के गांवों के भूगोल बदलते रहते हैं। कोसी के आसपास के इलाकों के लोग 10 से 20 बार तक नई-नई जगहों पर घर बनाने को मजबूर हुए हैं। कुछ गांव तो दूसरे की जमीनों पर भी बसते हैं, फिर साल दो साल में उजड़ जाते हैं।

अब तक आठ बार टूट चुका कोसी तटबंध

कोसी तटबंध अब तक आठ बार टूट चुका है। पिछली बार 2008 में नेपाल के कुसहा में बांध टूटा था। इससे पहले 1991 में भी नेपाल के जोगनिया में, 1987 में गण्डौल में, 1984 सहरसा जिले के नवहट्‌टा में, 1981 में बहुआरा में, 1971 में भटनियां में, 1968 में जमालपुर में और 1963 में डलवां में तटबंध टूटा था।

9 साल में बनकर तैयार हुआ बैराज

कोसी नदी पहले 200 किमी में धारा परिवर्तित करते हुए घूम-घूम कर बहती रहती थी। आजादी के बाद 1955 में सरकार ने इस नदी को तटबंधों में बांधने की शुरुआत की। नेपाल के भीम नगर में बैराज और दोनों किनारे तटबंध बने और नहर निकाली गई। पूरब में बीरपुर से कोपरिया तक लगभग 125 किमी और पश्चिम में भारदह से घोषेपुर तक लगभग 126 किमी का तटबंध 1963-64 में बनकर तैयार हो गया। इन तटबंधों के बीच की चौड़ाई कहीं 20 किमी तो कहीं-कहीं कुछ कम हो गई। तटबंध बनने के साथ ही इसके अंदर बसे लोगों की समस्याएं शुरू हुई। इन दोनों तटबंधों के बीच रहने वाले लोगों को हर साल बाढ़, कटाव और विस्थापन झेलने की नियति बन गयी।

बाढ़ के बाद के हालात होते हैं और ख़राब

कोसी में आई बाढ़ के बाद जब पानी निकल जाता है तो खेतों में जमा बालू देख किसानों के चेहरे ऐसे मुरझाते हैं, जैसे किसी ने छुईमुई की पत्तियों को छू दिया हो। हो भी क्यों नहीं, दिखने में प्राकृतिक आपदा लगने वाली बाढ़, सरकारों के प्रति नाराजगी में बदल जाती है। सवाल खड़ा होता है कि आखिर इस कोसी बैराज और बांध से किस-किस को फायदा पहुंचा, पहुंच रहा है और पहुंचता रहेगा! अगस्त 2008 को भारत की सीमा से 8 किमी नेपाल के कुसहा में जब तटबंध टूटा था तो सुपौल, अररिया, पूर्णिया, मधेपुरा और सहरसा जिलों के 50 लाख लोग प्रभावित हुए थे।

कोसी से हो रहे बिहार के नुकसान के आंकड़े हैं चिंताजनक

बिहार सरकार, World Bank, GFDRR की रिपोर्ट की मानें, तो अकेले बिहार में 412 पंचायतों के 993 गांव इसकी चपेट में आए। इस त्रासदी में 2,36,632 घर ध्वस्त हुए, 1100 पुल और क्लवर्ट टूटे। 1800 किमी रोड क्षतिग्रस्त हुए। 38000 एकड़ धान, 15500 एकड़ मक्के और 6950 एकड़ की अन्य फसलें बर्बाद हुई। 10,000 दुधारू पशु, 3000 अन्य पशु व 2500 छोटे जानवरों की मौत हुई। 362 लोगों की जान गई और 3500 लोग लापता दर्ज किए गए। यह तो सरकारी आंकड़े हैं, असल क्षति इन आकड़ों से कई गुना ज्यादा था।

बाढ़ और बांध की मरम्मत के नाम पर लूट

कोसी के कोप के 90 के दशक से साक्षी सहरसा के नवीन निशांत कहते हैं कि बांध बनाने का उद्देश्य कोसी की धाराओं को नियंत्रित करना था। लेकिन यह साल दर साल कमाई का जरिया बन गया। वे कहते हैं कि कोसी नदी में हर साल 6 इंच से लेकर एक फीट तक सिल्ट के रूप में रेत की परत चढ़ती जा रही है। पिछले 60 सालों में 15 से 20 फीट तक सिल्ट नदी में जमा हो गया है। सरकार ने कभी भी सिल्ट निकालने का काम नहीं किया। कारगर उपाय तो यह होता कि सिल्ट निकालकर नदी की गहराई बढ़ाई जाती, लेकिन, सरकार तटबंध को ऊंचा करते जा रही है।
अब स्थिति यह हो गई है कि बांध के बाहर सटे हुए पक्के मकान बांध से नीचे होते जा रहे हैं। अब कहीं बांध टूटा, तो तबाही पहले से ज्यादा मचेगी। नवीन कहते हैं कि सभी लोग जानते हैं कि तटबंध के अंदर हर साल बाढ़ का आना तय है। फिर भी बांध के अंदर ज्यादा सड़कें पास कराई जाती है। फिर, बाढ़ में उन सड़कों को कागज पर बना और बहा दिया जाता है और इसके नाम पर करोड़ों रुपए की बंदरबांट कर ली जाती है। जबकि इन इलाकों का विकास मास्टरप्लान बनाकर किया जाना चाहिए। तटबंध के अंदर बसे 308 गांव के लोग राजनेताओं और राजनीतिक पार्टियों के लिए वोट बैंक बने हुए हैं।

Long or Short, get news the way you like. No ads. No redirections.
Download Newspin and Stay Alert, The CSR Journal Mobile app, for fast,
crisp, clean updates!

App Store – https://apps.apple.com/in/app/newspin/id6746449540

Google Play Store –
https://play.google.com/store/apps/details?id=com.inventifweb.newspin&pcampaignid=web_share

Latest News

Popular Videos