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December 22, 2025

Supreme Court का अरावली फैसला: उत्तर भारत का “Death Warrant” बन सकता है?

The CSR Journal Magazine
नवंबर 20, 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने अरावली पर्वतमाला की नई परिभाषा को मंजूरी दे दी। अब केवल वही पहाड़ “अरावली” माने जाएंगे, जो आसपास की भूमि से 100 मीटर या उससे अधिक ऊंचे हों। इससे अरावली के लगभग 90% हिस्से को कानूनी सुरक्षा से वंचित किया जा रहा है। पर्यावरणविद इसे उत्तर भारत के फेफड़े और जीवनरेखा का “डेथ वारंट” बता रहे हैं।

अरावली: सिर्फ पहाड़ नहीं, जीवनरेखा

अरावली पर्वतमाला 650 किलोमीटर लंबी और करीब 2 अरब साल पुरानी है। यह थार रेगिस्तान को फैलने से रोकती है, चंबल, साबरमती और लूणी जैसी नदियों के लिए जल स्रोत का काम करती है और दिल्ली-NCR के लिए ग्रीन बेल्ट का काम करती है। इसके छोटे पहाड़ भी वर्षा जल को रोकने, भूजल रिचार्ज करने और जैव विविधता बनाए रखने में अहम हैं।

100 मीटर की सीमा क्यों खतरनाक?

फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक, 12,081 पहाड़ियों में से केवल 1,048 ही नई परिभाषा पर खरी उतरती हैं। यानी 90% अरावली अब खनन और रियल एस्टेट के लिए खुल सकती हैं। GIS मैपिंग में पहले ही 3,000 से अधिक जगहों पर खनन के नुकसान दिख चुके हैं। विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि निचली पहाड़ियों पर खनन शुरू होने से भूजल स्तर गिर सकता है और मानव–वन्यजीव संघर्ष बढ़ सकता है।

पर्यावरणीय और स्वास्थ्य संकट

अरावली की चोटियों और जंगलों का नुकसान सीधे पानी, हवा और जीवन को प्रभावित करेगा। हरियाणा और राजस्थान में अवैध खनन ने भूजल स्तर को 1,500–2,000 फीट तक गिरा दिया है। उड़ती धूल से सिलिकोसिस और अन्य फेफड़ों की बीमारियां बढ़ रही हैं। बच्चों और किसानों की सेहत पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है।

ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व

अरावली सिर्फ पर्यावरणीय नहीं, बल्कि ऐतिहासिक किलेबंदी भी रही है। चित्तौड़गढ़, कुम्भलगढ़ जैसे दुर्ग और घने जंगलों ने आक्रमणकारियों से रक्षा में मदद की। महाराणा प्रताप जैसे वीरों ने इन्हीं रास्तों और पहाड़ियों में शरण ली।

राजनीतिक और सामाजिक प्रतिक्रिया

फैसले के बाद सोशल मीडिया पर #SaveAravalli और #SaveAravallisSaveAQI ट्रेंड कर रहे हैं। ग्रामीण समुदायों ने प्रतीकात्मक उपवास किया और विपक्षी दलों ने केंद्र पर खनन लॉबी को फायदा पहुंचाने का आरोप लगाया। कई विशेषज्ञ सुप्रीम कोर्ट से फैसले पर पुनर्विचार की मांग कर रहे हैं।
पर्यावरण कार्यकर्ता और विशेषज्ञ कहते हैं कि अरावली को 100 मीटर के पैमाने से नहीं मापा जा सकता। इसे पूरी तरह से क्रिटिकल इकोलॉजिकल ज़ोन घोषित करना होगा। सवाल अब सिर्फ कानून का नहीं है, बल्कि यह तय करेगा कि उत्तर भारत हरा-भरा रहेगा या रेगिस्तान में बदल जाएगा।

अरावली बचाई जा सकती है या इतिहास में दर्ज होगी “डेथ वारंट” के रूप में?

अरावली की सुरक्षा उत्तर भारत के जल, हवा और जीवन के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। सुप्रीम कोर्ट का हालिया फैसला केवल एक तकनीकी मुद्दा नहीं है, बल्कि क्षेत्र के पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों पर सीधे असर डाल सकता है। विशेषज्ञों का कहना है कि अगर अरावली की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं हुई, तो आने वाली पीढ़ियों के लिए जल संकट, वायु प्रदूषण और अन्य पारिस्थितिक समस्याएं बढ़ सकती हैं। छोटे पहाड़ों की अनदेखी से बड़े पर्यावरणीय नुकसान और मानव जीवन पर भी असर पड़ सकता है। इस फैसले का पालन यह तय करेगा कि अरावली क्षेत्र सुरक्षित रहेगा या पर्यावरणीय संकट की ओर बढ़ेगा।
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