बांके बिहारी मंदिर उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले में वृंदावन धाम में रमण रेती पर स्थित प्राचीन और प्रसिद्ध धार्मिक स्थलों में से एक माना जाता है। मंदिर में भगवान कृष्ण के एक स्वरूप, बांके बिहारी, की मूर्ति स्थापित है।ब्रजभूमि के प्रमुख धार्मिक स्थलों में यह मंदिर विशेष महत्व रखता है, क्योंकि यह मथुरा-वृंदावन की उन पवित्र जगहों के पास स्थित है, जो भगवान कृष्ण की लीलाओं और उनके बचपन से जुड़ी हुई हैं।
वृंदावन की गलियों में बसे इस मंदिर को न केवल उत्तर प्रदेश बल्कि पूरे भारत में एक महत्वपूर्ण धार्मिक और सांस्कृतिक केंद्र माना जाता है।भगवान कृष्ण को समर्पित यह मंदिर अपनी अनोखी परंपराओं, चमत्कारिक मान्यताओं और दिव्य वातावरण के कारण दुनियाभर के भक्तों को आकर्षित करता है। ऐसा विश्वास है कि जो भक्त बांके बिहारी के दर्शन करता है वह उन्हीं का हो जाता है.हर आरती के समय घंटा, शंख और भजन की ध्वनि से वातावरण भक्तिमय बन जाता है।
क्यों कहा जाता है कृष्ण को बांके बिहारी?
‘बांके’ शब्द का अर्थ है—तीन स्थानों से झुकी हुई मुद्रा (त्रिभंग), और ‘बिहारी’ का अर्थ है—आनंद लेने वाला या जीवन के श्रेष्ठ उपभोग को जानने वाला।श्रीकृष्ण बांसुरी बजाते समय अपने दाहिने घुटने को बाएं पर मोड़कर, हाथ को तिरछा रखकर और सिर को हल्का झुकाकर खड़े होते थे। यही त्रिभंग मुद्रा उन्हें “बांके बिहारी” बनाती है।
मंदिर की स्थापना और इतिहास
बांके बिहारी जी की मूर्ति की स्थापना 1562 ई. में हुई थी। भक्त और संत स्वामी हरिदास जी ने निधिवन में भक्ति गीत गाते हुए राधा-कृष्ण की युगल जोड़ी को अपने सामने प्रकट होते देखा।भक्तों के आग्रह पर राधा-कृष्ण का रूप बांके बिहारी के रूप में प्रकट हुआ।स्वामी हरिदास जी, प्रसिद्ध संगीतज्ञ तानसेन के गुरु थे और उनका संबंध निंबार्क पंथ से था।वर्तमान मंदिर का निर्माण 1860 ई. में हुआ, जो राजस्थानी स्थापत्य कला का सुंदर उदाहरण है।
बिहारी जी की मूर्ति
मूर्ति काले रंग की है और त्रिभंग मुद्रा में स्थित है।मूर्ति की आंखों में लंबे समय तक सीधे देखने से बचने की परंपरा है, क्योंकि माना जाता है कि भक्त अपना आपा खो सकते हैं। इसलिए मंदिर में परदे के पीछे से झलक दर्शन की परंपरा है।भक्तों की भीड़ इतनी होती है कि मूर्ति तक पहुंचना कभी-कभी कठिन होता है, लेकिन भक्त इसे अपनी भक्ति की परीक्षा मानते हैं।यहां कभी भी खाली समय नहीं होता हमेशा भक्तों की भीड़ और भजन-कीर्तन चलता रहता है।
मंदिर से जुड़े रहस्य और मान्यताएं
मूर्ति को निधिवन से लाया गया था, जहां अब भी रात में रहस्यमयी घटनाएं घटती बताई जाती हैं।कहा जाता है कि मंदिर में रखे शीशे अपने आप टूट जाते हैं, जो मूर्ति की दिव्यता और ऊर्जा का संकेत है।मूर्ति में दो प्राण विराजमान माने जाते हैं—श्रीकृष्ण और राधा, और शीशा टूटने की घटनाएं इस शक्तिशाली आध्यात्मिक ऊर्जा को दर्शाती हैं।
कुछ भक्त मानते हैं कि सीसा टूटना भगवान बांके बिहारी की लीला का संकेत है।कहा जाता है कि भक्तों की भक्ति और उनके आस्था का परिक्षण इस तरह की घटनाओं से होता है।कुछ मान्यताओं में कहा जाता है कि जब भक्त अत्यधिक दुख या संकट में होते हैं, तब भगवान अपनी कृपा दिखाने के लिए सीसा “टूटने” जैसी घटना कर देते हैं, जिससे भक्तों की आस्था बढ़ती है।
विशेष पर्व और आयोजन
प्रकटोत्सव: मार्गशीर्ष मास की पंचमी तिथि को बड़े उत्सव के साथ बांके बिहारी जी का प्रकटोत्सव मनाया जाता है।
अक्षय तृतीया: केवल इसी दिन भगवान के चरणों के दर्शन होते हैं।
अन्य पर्व: जन्माष्टमी, होली, झूलन उत्सव मंदिर में अत्यंत धूमधाम से मनाए जाते हैं।
भोग का महत्व
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भोग में आम तौर पर खीर, पूड़ी, लड्डू, फल और मिठाइयां चढ़ाई जाती हैं।
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इसे भगवान के प्रति भक्ति और प्रेम के रूप में अर्पित किया जाता है।
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भोग के बाद भक्तों को प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता है।
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प्रसाद खाने से माना जाता है कि शुभ फल, सुख और समृद्धि मिलती है
विशेष बातें
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मंदिर में केवल सादा और शुद्ध भोग ही स्वीकार किया जाता है।
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भक्तों को मूर्ति के बहुत पास जाने की अनुमति नहीं होती, इसलिए भोग मुख्य रूप से मंदिर के पंडाल में रखा जाता है।