सुप्रीम कोर्ट द्वारा अरावली पर्वतमाला की परिभाषा तय करने के लिए केंद्र सरकार के प्रस्ताव को मंजूरी दिए जाने के बाद देश में एक नया पर्यावरणीय विवाद खड़ा हो गया है। कोर्ट ने 100 मीटर से अधिक ऊंची पहाड़ियों को ही अरावली पर्वतमाला का हिस्सा मानने पर सहमति जताई है। इस फैसले का सीधा असर दिल्ली, राजस्थान, हरियाणा और गुजरात जैसे राज्यों पर पड़ेगा, जहां अरावली क्षेत्र फैला हुआ है।
इस निर्णय के बाद जहां सरकार इसे खनन और निर्माण गतिविधियों को नियंत्रित करने की दिशा में एक अहम कदम बता रही है, वहीं पर्यावरणविद और सामाजिक संगठन इसे अरावली के संरक्षण के लिए खतरनाक मान रहे हैं। उनका कहना है कि केवल ऊंचाई के आधार पर अरावली को परिभाषित करना इसके पारिस्थितिक महत्व को नजरअंदाज करता है।
केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने 100 मीटर की सुरक्षा सीमा को लेकर उठ रहे सवालों पर स्थिति स्पष्ट की है। उन्होंने कहा कि यह दूरी पहाड़ी के निचले आधार से मानी जाएगी और इस दायरे में किसी भी तरह की खुदाई या गतिविधि की अनुमति नहीं होगी। यह व्यवस्था सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुरूप की जा रही है ताकि खनन को लेकर स्पष्ट और सख्त नियम लागू किए जा सकें।
सरकार का कहना है कि अरावली को लेकर कानूनी प्रक्रिया नई नहीं है और वर्ष 1985 से इस विषय पर याचिकाएं चल रही हैं। सुप्रीम कोर्ट ने चारों संबंधित राज्यों को अरावली की एक समान और वैज्ञानिक परिभाषा तय करने के निर्देश दिए हैं, ताकि नियमों की अलग-अलग व्याख्या से होने वाले उल्लंघन को रोका जा सके।
हालांकि, पर्यावरण विशेषज्ञों का मानना है कि अरावली पर्वतमाला का महत्व उसकी ऊंचाई से कहीं अधिक है।
यह पर्वतमाला भूजल पुनर्भरण, जलवायु संतुलन और प्रदूषण नियंत्रण में अहम भूमिका निभाती है। अरावली की पथरीली संरचना बारिश के पानी को जमीन के भीतर पहुंचाकर जलभंडारों को भरती है, जिससे दिल्ली, गुरुग्राम, फरीदाबाद, अलवर और राजस्थान के कई इलाकों को पानी मिलता है।


