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मजदूर दिवस – मेहनत का नाम है मजदूर

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किसी ने खूब कहा है कि, मैं मजदूर हूँ, मजबूर नहीं, अपने पसीनें की खाता हूँ, और मिट्टी को सोना बनाता हूँ। मजदूर – वो कहीं भी बैठ जाते हैं, कहीं भी खा लेते हैं और कहीं भी खुले आसमान के नीचे चादर डालकर सो लेते हैं, कोई भी आकर उन्हें डांट जाता है, उन्हें बार-बार यकीन दिलाता है कि तुम सिर्फ मशीन की तरह काम करने के लिए पैदा हुए हो, तुम्हारे पास तुम्हारा अपना कहने के लिए कुछ भी नहीं है, यही हर मजदूर की कहानी है। लेकिन आज के परिवेश में मजदूरों की अलग ही व्यथा हो गयी है, तस्वीरें विचलित कर रही है, तस्वीरें डराती है, तस्वीरें आपने कई देखी होगी, मुंबई के बांद्रा की, दिल्ली की, सूरत की, हर जगह मजदूर मजबूर दिखाई दे रहा है। कोरोना के इस संकट काल में जहां जिंदगी को बचाने की जुगत में हर कोई है वहीं इन मजदूरों का किसी को कोई परवाह नहीं है। इन्हें इनकी हाल पर छोड़ दिया जाता है और फिर दिखता है सूरत, बांद्रा और दिल्ली जैसी भयावह तस्वीर।

कोरोना के संकट काल में आज विश्व मना रहा है मजदूर दिवस

कोरोना काल के इस संकट की घडी में मजदूर दिवस की भी विशेष महत्वता हो जाती है, इस संकट में सबसे ज्यादा मजदूरों की बात हुई, सरकारें खूब चिंतित हुई, मीडिया में खूब सुर्खियां बनी, लोगों ने मदद के हाथ आगे कर खूब वाहवाही लूटी, लेकिन महीना से भी ज्यादा दिन बीत जाता है अभी तक मजदूरों की परिस्तिथि में कोई बदलाव नहीं आया। आज 1 मई है, अंतरराष्ट्रीय श्रमिक दिवस, (Labour Day) यानि मजदूर दिवस, शायद यही एक मात्र दिन बना है जब भारत में मजदूरों की बात होती है, उनके सुरक्षा, रक्षा की बात होती है, मजदूरों के हितों की बात होती है, उनके हक़ की बात होती है।लेकिन आज इस ख़ास मौके पर हम बात करेंगे उनकी लॉक डाउन (Lock Down) में परेशानियों की, उनकी दिक्कतों की, उनके भूख की, मजदूरों के घर की, उनके गांव जाने की। लेकिन ये बताना जरुरी है कि आज ये हम ऐसी बातें क्यों कर रहें है, क्योंकि 1 मई मजदूर दिवस है।

क्यों मनाया जाता है मजदूर दिवस

मजदूरों का किसी भी देश के विकास एवं उन्नति में महत्वपूर्ण योगदान होता है। मजदूरों के बिना किसी भी देश में आर्थिक और औद्योगिक ढांचे के निर्माण की कल्पना करना संभव नहीं है। मजदूर सभी कामों की धुरी होने के साथ मानवीय श्रम का आदर्श उदाहरण भी होते हैं। मजदूर कड़कड़ाती सर्दी, भीषण गर्मी व मूसलाधार बरसात जैसे कठिन से कठिन हालातों में अपना पसीना बहाते हैं और अपना मेहनत बेचकर मजदूरी पाता हैं। मजदूरों के हिस्से में कभी कोई इतवार नहीं आता। रोज कुआं खोदकर प्यास बुझाना ही उसका काम है। यही कारण है कि कड़ी मेहनत करने वाले मजदूर कभी नींद की गोली नहीं लेते बल्कि हर ज़ोर जुल्म की टक्कर में संघर्ष उनका नारा होता है।
मजदूरों का यह संघर्ष हमें 1886 को अमेरिका में देखने को मिलता है। जहां के मजदूरों ने संगठित होकर काम की अधिकतम समय सीमा आठ घंटे तय करने की मांग की थी। अपनी यह मांग मनवाने के लिए उन्होंने हड़ताल का सहारा लिया और इसी हड़ताल के दौरान एक अज्ञात शख्स ने शिकागो के हेय मार्केट में बम फोड़ दिया। पुलिस ने गलतफहमी में मजदूरों पर गोलियां चला दी जिसके कारण सात मजदूरों की जान चली गई। इस घटना के बाद मजदूरों की मांग मान ली गई और उनके काम की समय सीमा अधिकतम आठ घंटे तय कर दी गई। इस ऐतिहासिक विजय की याद एवं अपने हक के लिए कुर्बान हुए मजदूरों के स्मरण में तभी से हर साल 1 मई को अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस मनाया जाता है। इन सब के साथ यह दिवस मजदूरों की निष्ठा, लगन, परिश्रम व कर्तव्य को दर्शाता है।

लॉक डाउन में मजदूरों का छलकता दर्द

भारत ने कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने के लिए लॉकडाउन लागू किया, लॉकडाउन लागू होते ही देश के कोने-कोने से ऐसी तस्वीरें आईं कि लोग भूख और प्यास से तड़प रहे हैं, प्रवासी मजदूर अपने घरों को लौटने को बेताब हैं, तालाबंदी ने दिहाड़ी मजदूरों की कमर तोड़ दी है। रोज खाना कमाने वाले अब सरकारी इंतजामों पर निर्भर हैं। तालाबंदी के बाद बेघर और बिना काम वाले लोग एक वक्त की रोटी के लिए लंबी-लंबी कतार लगाए बैठ गए।पेट की आग ऐसी कि वे सोशल डिस्टेंसिंग क्या होती है यह भी नहीं जानना चाहते। जो कभी गांवों और कस्बों से निकलकर शहरों में रोजगार की तलाश में आए थे, वह एक वायरस के कारण उसी हालात में वापस आने के लिए बेताब हैं। आंखों में सपने लेकर गांवों से शहरों में आए लोग पैदल या ट्रक का सहारा लेकर लौट रहे हैं, शुरवात में वे भूखे रहे, प्यासे रहे, सरकारी बदइंतज़ामी दिखी। लेकिन अब तो ये मजदूर भूखें तो नहीं है लेकिन बस किसी तरह अपने गांव, अपने परिवार और अपने लोगों के बीच जाना चाहते है।

दिहाड़ी मजदूरों की दयनीय दशा

अकेले दिल्ली में बिहार के 40 लाख से अधिक मजदूर काम करते हैं, महाराष्ट्र में 10 लाख दिहाड़ी मजदूरों की संख्या है, और ये सभी मजदूर इन दिनों एक ही बात से परेशान है, भले ही इन्हे खाना मिल रहा हो लेकिन इनका कहना है कि कोरोना से मरने से अच्छा है कि अपनों के पास जाकर मरे, जाहिर है इन दिहाड़ी मजदूरों की हालत बहुत दयनीय है। कोरोना संकट काल में ये घर के न हुए और ना घाट के। दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों में रोजी रोटी की तलाश इन्हे अन्धकार की उन गलियों और उन घरों में लेकर जाती है जिन घरों में रौशनी तक नहीं आती। घर में पैर डालते ही घर ख़त्म हो जाता है, आलम ये होता है कि तंगहाल जिंदगी में सोशल डिस्टेंसिंग के मायने खत्म होने लगते है। लॉक डाउन में इन घुटन और कोरोना से बचने के लिए इनकी बेताबी जायज भी नज़र आ रही है। बांद्रा और दिल्ली की तस्वीर में अगर विद्रोह नहीं होता तो शायद ही आज सरकार इस नतीजे पर नहीं आती कि अब मजदूरों की घर वापसी हो।

कोरोना काल खत्म होते ही क्या होगा मजदूरों का

एक आकड़ों की माने तो भारत में मजदूरों की कुल संख्या 4 करोड़ 87 लाख है, जिनमें 94 प्रतिशत मजदूर असंगठित क्षेत्र के हैं। देश में मजदूरों की संख्या जाहिर करती है कि मशीनी क्रांति के बाद भी मजदूरों की महत्ता कम नहीं हुई है। लेकिन अफसोस इस बात का है कि आज भी भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में मजदूरों की दशा सुधारने के लिए काम नहीं होता, उनकी दशा पर राजनीति होती है। पलायन करते मजदूरों पर हर कोई अपील कर रहा है, योगी हो या नितीश लेकिन अगर यही लोग और देश के तमाम मुख्यमंत्री अपने अपने राज्यों में नौकरियों और रोजगार के लिए मौके देतें तो आज ये हालात नहीं होते। बहरहाल कोरोना काल में परिस्तिथि डरावनी है ही लेकिन बाद की तस्वीर और भयावह होगी। आर्थिक और औद्योगिक दृष्टिकोण की बात करें तो यही मजदूर अपना खून पसीना बहाकर देश की जीडीपी में योगदान देता है, यही मजदूर हमारी और आपकी जिंदगी को आसान बनाता है। हमारे लिए काम करता है ताकि हम तरक्की की राह चल सकें। संकट के बाद अगली बार जब इनसे सामना हो तो जरा इनकी पथरीली आंखों में पल रही मेहनत को देखिएगा, ना कि उसकी मांगी मजदूरी में से पैसे काटने के बहाने तलाशिएगा। क्योंकि अगर ये ना रहें तो आपकी और हमारी जिंदगी पर बिना किसी कारण के ही लॉकडाउन लग जाएगा।

देश में फंसे प्रवासी मजदूरों को उनके घर जाने की मंजूरी

केंद्र सरकार ने बुधवार को लॉकडाउन के 35 दिनों बाद प्रवासी मजदूरों को बड़ी राहत दी है। सरकार ने अपने आदेश में कहा कि देश के विभिन्न हिस्सों में फंसे हुए प्रवासी मजदूर, छात्र और पर्यटक अपने घरों को जा सकते हैं। इसके लिए राज्य सरकारें बसों का इंतजाम करेंगी। गृह मंत्रालय ने इसका आदेश बुधवार को जारी कर दिया है। मंत्रालय ने 6 प्वाइंट्स की गाइडलाइन राज्यों को भेजी है। इसमें बताया गया है कि कैसे सरकारें इन फंसे हुए लोगों को उनके घर तक पहुंचाने का काम कर सकती हैं। सरकार के इस फैसले से देशभर में फंसे करीब लाखों मजदूरों, छात्रों, श्रद्धालुओं, सैलानियों को राहत मिलेगी।
135 करोड़ की आबादी वाले भारत में 12 करोड़ की जनसंख्या तो उन अप्रवासी मजदूरों की ही मानी जा रही है। अब जब हम एक मई को विश्व मजदूर दिवस मना रहे होंगे तो क्या देश इनके बारे में सोचेगा? क्या कोरोना के संकट से निपटने के बाद इन लोगों के श्रम को सम्मान और सुरक्षा मिल पाएगी? क्या पलायन की त्रासदी को कम करने के बारे में सोचा जाएगा? देश का मजदूर भिक्षु नहीं हैं, वह श्रमजीवी हैं, उनकी अपनी अस्मिता है, सम्मान है, उन्हें सम्मान से रोजगार दिया जाना चाहिए। उसके मेहनत का वाजिब मूल्य भी मिलना चाहिए। आईये, हम कोरोना संकट में आए इस मजदूर दिवस को हम कुछ इस तरह से भी सोचें और ये माने कि मेहनत का नाम है मजदूर।