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August 1, 2025

रेगिस्तान में लौटी उम्मीद: राजस्थान के सूखते नमक झील क्षेत्र को कैसे जिंदा किया समुदायों ने

The CSR Journal Magazine
विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस पर राजस्थान की एक प्रेरणादायक कहानी हमें याद दिलाती है कि प्रकृति को बचाना असल में जीवन को बचाना है।
राजस्थान के सांभर नमक झील क्षेत्र की बंजर ज़मीन—जहां कभी खारे पानी की चमक और जीवन की चहल-पहल थी—पिछले एक दशक में निराशा का प्रतीक बन गई थी। भूजल स्तर बेहद नीचे चला गया था, पानी की गुणवत्ता गंभीर रूप से खराब हो गई थी और खेती पूरी तरह अस्थिर हो गई थी।
इसका असर सीधे लोगों पर पड़ा—कई परिवार बेहतर जीवन की तलाश में पलायन कर गए और झील और स्थानीय समुदायों के बीच पुराना रिश्ता टूटने लगा।
लेकिन जो स्थिति कभी पूरी तरह बर्बादी जैसी लग रही थी, वह अब संघर्ष, सहयोग और परिवर्तन की एक प्रेरणादायक कहानी बन गई है।

स्थिरता की जड़ में सहयोग

इस बदलाव की शुरुआत एक मजबूत सोच और उसके ज़मीनी क्रियान्वयन से हुई। चार संगठनों—MCKS ट्रस्ट फंड, बेयरफुट कॉलेज तिलोनिया, मंथन संस्था कोटड़ी और द कोका-कोला फाउंडेशन—ने मिलकर सिर्फ एक जलस्रोत नहीं, बल्कि एक पूरे जीवन तंत्र को पुनर्जीवित करने का बीड़ा उठाया।
इस पहल में कोई ऊपर से थोपे गए समाधान नहीं थे, बल्कि स्थानीय ज्ञान, परंपराओं और समुदाय की भागीदारी को आधार बनाया गया।
12 वर्षों में सांभर झील क्षेत्र के 15 गांवों में कुल 24 तालाब  बनाए गए। इन जल संरचनाओं की मदद से अब हर साल लगभग 111 करोड़ लीटर वर्षा जल संचित हो रहा है। अब तक 12 वर्षो में 1336 करोड़ लीटर वर्षा जल तालाबों में आय|

कमी से आत्मनिर्भरता तक

सबसे बड़ा बदलाव जल की उपलब्धता में देखा गया है। जो जल स्तर कभी बेहद नीचे चला गया था, वह अब धीरे-धीरे ऊपर आ रहा है। पानी की गुणवत्ता में भी सुधार हुआ है। पहले जो लोग पानी के टैंकर के लिए घंटों कतार में खड़े रहते थे या मीलों पैदल चलते थे, अब उनके पास खुद के गांव में साफ पानी उपलब्ध है।
लेकिन इस बदलाव के असर सिर्फ पानी तक सीमित नहीं हैं।
“पानी वापस आया तो जीवन भी लौट आया,” कहते हैं नारायण प्रजापत, जो किसान और कुम्हार हैं और तालाबों के पास रहते हैं। कभी जयपुर पलायन करने की सोचने वाले नारायणअब कहते हैं, “अब फसल है, मवेशी हैं, बच्चे पढ़ रहे हैं, और भविष्य दिखाई देता है।”
खेती का पुनर्जीवन रोजगार की वापसी का कारण बना है, खासकर महिलाओं के लिए जो पहले दिहाड़ी मजदूरी के लिए बाहर जाती थीं। अब वे स्थानीय स्तर पर काम पा रही हैं।
स्थानीय जैव विविधता भी लौट रही है—जो प्रवासी पक्षी और वन्य जीव कभी गायब हो चुके थे, अब दोबारा इन तालाबों और जलभराव क्षेत्रों में दिखने लगे हैं।

पलायन से वापसी तक

सबसे भावनात्मक बदलाव “रिवर्स माइग्रेशन” यानी लोगों का अपने गांव लौटना है। जो परिवार पहले सांभर छोड़ चुके थे, अब बेहतर हालात और पुरखे की जमीन के कारण वापसी कर रहे हैं।
स्कूलों में नामांकन बढ़ा है, और छोटे स्थानीय व्यवसाय जैसे दर्जी, किराना दुकानें, दूध विक्रेता फिर से सक्रिय हो रहे हैं।
“यह सिर्फ पानी की बात नहीं है,” संजय मलाकार कहते हैं, जो मंथन संस्था कोटड़ी ऑपरेशन हेड हैं। “यह गरिमा की बात है—लोग अब आत्मविश्वास से अपना घर, खेत और भविष्य वापस पा रहे हैं।”

एक बड़ी तस्वीर

इस पूरी पहल की खासियत यह है कि यह किसी बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर या सरकारी योजना पर आधारित नहीं थी। यह एक “people-first, decentralised” मॉडल की ताकत को दिखाती है, जैसा कि इस पहल के विचारकर्ता तेजाराम माली बताते हैं।
यह सहयोगात्मक प्रयास यह भी दिखाता है कि जब Corporate Social Responsibility (CSR) को स्थानीय ज्ञान और भागीदारी से जोड़ा जाए, तो बदलाव स्थायी और सशक्त होता है।
The Coca-Cola Foundation की आर्थिक सहायता ने संसाधन उपलब्ध कराए, जबकि Barefoot College और Manthan Sanstha ने ज़मीनी पहुंच, प्रशिक्षण और दीर्घकालिक प्रतिबद्धता से इस प्रयास को मजबूत किया।
विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस के मौके पर राजस्थान की यह कहानी हमें याद दिलाती है कि प्रकृति को पुनर्जीवित करना सिर्फ पर्यावरण की रक्षा नहीं है, बल्कि मानव और पर्यावरण के बीच संतुलन को वापस लाना है।

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