शेख़ हसीना के सत्ता से बाहर होने के बाद बांग्लादेश की विदेश नीति और आंतरिक राजनीति में बड़ा बदलाव दिख रहा है। पाकिस्तान के साथ बढ़ती नज़दीकी, भारत से तनाव, जमात-ए-इस्लामी का उभार और चीन की सक्रियता ये सभी घटनाक्रम भारत की सुरक्षा, कूटनीति और पूर्वी सीमाओं के लिए नई चुनौतियां खड़ी कर रहे हैं।
इतिहास की कड़वाहट से नज़दीकी तकबांग्लादेश और पाकिस्तान संबंधों का बदलता सफ़र
1971 के मुक्ति युद्ध के बाद बांग्लादेश और पाकिस्तान के संबंध लंबे समय तक बेहद तनावपूर्ण रहे। बांग्लादेश के संस्थापक शेख़ मुजीब-उर रहमान पाकिस्तान को मान्यता देने के सख़्त खिलाफ़ थे। हालांकि 1974 में ओआईसी शिखर सम्मेलन के दौरान पाकिस्तान ने बांग्लादेश को मान्यता दी, लेकिन दोनों देशों के बीच भरोसा पूरी तरह कभी बहाल नहीं हुआ।
अब लगभग 52 साल बाद परिस्थितियां बदलती दिख रही हैं। शेख़ हसीना के सत्ता से हटने के बाद पाकिस्तान और बांग्लादेश के बीच कूटनीतिक, व्यापारिक और वैचारिक संपर्क तेज़ हुए हैं, जो दक्षिण एशिया की राजनीति में नए समीकरण बना रहे हैं।
भारत–बांग्लादेश तनाव हत्याएं, अफ़वाहें और राजनयिक खटास
हाल के महीनों में बांग्लादेश में हुई राजनीतिक और सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं ने भारत-बांग्लादेश संबंधों को झकझोर दिया है। युवा नेता उस्मान हादी की हत्या और एक हिंदू मज़दूर की भीड़ द्वारा हत्या के बाद भारत विरोधी भावनाएं तेज़ हुईं।
सोशल मीडिया पर यह अफ़वाह फैल गई कि हत्यारे भारत भाग गए हैं, हालांकि बांग्लादेश सरकार या पुलिस ने इसकी पुष्टि नहीं की। इन घटनाओं के बाद ढाका में भारतीय दूतावास के बाहर विरोध प्रदर्शन हुए और दोनों देशों ने अस्थायी रूप से वीज़ा सेवाएं भी रोक दीं। भारत ने इन आरोपों को सिरे से ख़ारिज करते हुए अंतरिम सरकार पर कट्टरपंथी तत्वों के ख़िलाफ़ सख़्ती न दिखाने का आरोप लगाया।
पाकिस्तान की सक्रियता व्यापार, वीज़ा और सैन्य संकेत
शेख़ हसीना के हटने के बाद पाकिस्तान ने बांग्लादेश के साथ संबंध सुधारने में तेज़ी दिखाई है। नवंबर 2024 में कराची से चटगांव के बीच पहला सीधा समुद्री व्यापार शुरू हुआ, जो अब तक सिंगापुर या कोलंबो के ज़रिए होता था।
इसके अलावा पाकिस्तान ने बांग्लादेशी नागरिकों के लिए आसान वीज़ा नीति की घोषणा की। पाकिस्तानी नौसेना के जहाज़ का चटगांव बंदरगाह पहुंचना भी एक अहम संकेत माना जा रहा है। ये सभी कदम दिखाते हैं कि पाकिस्तान बांग्लादेश को रणनीतिक रूप से अपने क़रीब लाने की कोशिश कर रहा है।
जमात-ए-इस्लामी का उभार और मुक्ति युद्ध की विरासत पर सवाल
बांग्लादेश में जमात-ए-इस्लामी फिर से मुख्यधारा की राजनीति में उभरती दिख रही है। यह वही पार्टी है जिसने 1971 के मुक्ति युद्ध का विरोध किया था और भारत की भूमिका पर सवाल उठाए थे।
शेख़ हसीना के जाने के बाद मुक्ति युद्ध की प्रतीकों और विरासत पर हमले, शेख़ मुजीब-उर रहमान के घर पर हमला और इतिहास की नई व्याख्या के प्रयास चिंता बढ़ाते हैं। विश्लेषकों का मानना है कि अंतरिम सरकार के समर्थन से जमात-ए-इस्लामी को राजनीतिक लाभ मिल रहा है, जिससे बांग्लादेश का धर्मनिरपेक्ष ढांचा कमजोर हो सकता है।
भारत के लिए सुरक्षा चुनौती: सीमा, उग्रवाद और चीन की एंट्री
भारत के लिए सबसे बड़ी चिंता सुरक्षा को लेकर है। विशेषज्ञों का मानना है कि बांग्लादेश से संबंध बिगड़ने पर 4,000 किलोमीटर लंबी सीमा पर घुसपैठ और भारत-विरोधी गतिविधियां बढ़ सकती हैं।
इसके साथ ही पाकिस्तान और चीन इस स्थिति का फ़ायदा उठा रहे हैं। चीन की मध्यस्थता में बांग्लादेश-पाकिस्तान की त्रिपक्षीय बैठक और ढाका में बीजिंग की बढ़ती भूमिका भारत के लिए रणनीतिक चुनौती मानी जा रही है। भारत को डर है कि बांग्लादेश फिर से उग्रवादी संगठनों के लिए सुरक्षित ज़मीन बन सकता है।
बांग्लादेश की आंतरिक बहस बांग्ला राष्ट्रवाद बनाम इस्लामिक राष्ट्रवाद
बांग्लादेश की पहचान शुरू से ही बांग्ला भाषा और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर आधारित रही है, हालांकि इसमें इस्लाम की भी अहम भूमिका रही। अब विशेषज्ञ मानते हैं कि देश में इस्लामिक राष्ट्रवाद तेज़ी से उभर रहा है।
कुछ बुद्धिजीवियों का कहना है कि लोकतांत्रिक विफलताओं और राजनीतिक अस्थिरता ने कट्टरपंथी ताक़तों को आगे बढ़ने का मौका दिया है। वहीं, दूसरी राय यह है कि बांग्लादेशी समाज में अभी भी पर्याप्त उदारता और प्रतिरोध की ताक़त मौजूद है, जो देश को पूरी तरह कट्टरपंथ की ओर जाने से रोक सकती है।
बांग्लादेश और पाकिस्तान की बढ़ती नज़दीकी केवल द्विपक्षीय संबंधों का मामला नहीं है, बल्कि इसका सीधा असर भारत की सुरक्षा, कूटनीति और क्षेत्रीय संतुलन पर पड़ता है। बदलती राजनीति, वैचारिक संघर्ष और बाहरी शक्तियों की सक्रियता ने दक्षिण एशिया को एक बार फिर अस्थिर मोड़ पर ला खड़ा किया है। भारत के लिए यह समय सतर्क, बहुपक्षीय और दूरदर्शी कूटनीति अपनाने की बड़ी परीक्षा है।
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