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October 20, 2025

अंधेरी रात, तंत्र की शक्ति और मां काली की होती है असली पूजा: जानिए महानिशा पूजा का रहस्य

The CSR Journal Magazine
पूर्वी भारत में दिवाली सिर्फ धन और वैभव का पर्व नहीं है। बंगाल, बिहार, झारखंड, असम और ओडिशा में इस रात को महानिशा पूजा के रूप में मनाया जाता है, जिसमें मां काली की पूजा होती है। इसे निशीथ काल यानी आधी रात में किया जाता है, जब अंधकार अपने चरम पर होता है। यह पूजा केवल बाहरी धन की कामना नहीं, बल्कि भीतर के डर और अज्ञान को मिटाने का प्रतीक है।

मां काली की ही सत्व शक्ति हैं महालक्ष्मी

मां काली को अंधकार और भय का नाश करने वाली देवी माना जाता है। महानिशा पूजा के माध्यम से भक्त अपने भीतर के डर, अज्ञान और नकारात्मकता को पहचानकर उसे दूर करने का प्रयास करते हैं। यह पूजा सिर्फ धन और वैभव की कामना का पर्व नहीं, बल्कि आत्मिक शुद्धि और मुक्ति का अवसर भी है।
शास्त्रों के अनुसार, महालक्ष्मी और मां काली का गहरा संबंध है। महालक्ष्मी वही शक्ति हैं जो मां काली की सत्व शक्ति से उत्पन्न हुई हैं। सरल शब्दों में कहें तो जो ऐश्वर्य और समृद्धि हमें लक्ष्मी माता से प्राप्त होती है, उसकी नींव मां काली की शक्ति में ही है। यही कारण है कि पूर्वी भारत में दिवाली की रात महानिशा पूजा के रूप में मनाई जाती है।

भगवान विष्णु और महानिशा पूजा

काली पूजा का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों और तंत्र शास्त्रों में “महानिशा पूजा” के रूप में मिलता है। ऐसा कहा जाता है कि भगवान विष्णु ने देवताओं और असुरों के बीच संतुलन स्थापित करने के लिए देवी काली को निशीथकाल में जागृत किया। उसी समय पहली बार मां काली की आराधना की गई।इस कारण यह पूजा रात्रि के अंधकार में की जाती है, जब संसार विश्राम में होता है और साधक अपने भीतर की शक्तियों से संवाद करते हैं। बंगाल में 16वीं शताब्दी के आसपास नवद्वीप और कलकत्ता के तांत्रिक संप्रदायों ने इस पूजा को सार्वजनिक रूप से आयोजित करना शुरू किया, जिससे यह केवल तांत्रिक अनुष्ठान नहीं बल्कि सामूहिक सांस्कृतिक पर्व बन गया।

कैसे होती है महानिशा पूजा?

महानिशा पूजा तांत्रिक विधियों और मंत्रों से संपन्न होती है। भक्त मां काली के घोर काल स्वरूप की आराधना करते हैं, जिसे निशामग्नि भी कहा जाता है। दीप और मंत्रों के माध्यम से भक्त अपनी आत्मा को अंधकार और भय से मुक्त करने का प्रयास करते हैं।

जब अंधेरी रात में खिल उठता है श्यामा संगीत

पश्चिम बंगाल की धरती पर काली पूजा केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक जीवंत सांस्कृतिक उत्सव बन चुकी है। कोलकाता, बारासात, नैहाटी, तामलुक, रानीगंज, सिलीगुड़ी और कूचबिहार जैसे शहरों में इस दौरान सैकड़ों पंडाल और कलात्मक मूर्तियां सजती हैं। पूरे शहर में श्यामा संगीत, नाट्य मंचन और आतिशबाजी का संगम चलता रहता है।कालीघाट मंदिर में इस दिन देवी की पूजा लक्ष्मी स्वरूप में होती है, जबकि दक्षिणेश्वर मंदिर में मां के रौद्र और करुण, दोनों रूपों की आराधना की जाती है। बिहार के अंग क्षेत्र, विशेषकर भागलपुर, काली पूजा के रंग में पूरी तरह डूब जाता है। यहां यह पर्व न केवल पूजा, बल्कि जनसांस्कृतिक उत्सव का प्रतीक भी बन चुका है।

काली उपासना का लोकप्रिय स्वरूप

पूर्वी भारत में काली पूजा का लोकप्रिय स्वरूप श्यामा रूप में होता है। भक्त उनके रौद्र सौंदर्य और शक्ति के बीच अपने भीतर के अंधकार को पहचान कर उसे मिटाने का प्रयास करते हैं। रात के अंधकार में दीपों की झिलमिलाहट और मां काली का यह स्वरूप दिवाली को अद्भुत और रहस्यमयी बनाता है।

दिवाली सिर्फ धन और रोशनी का पर्व नहीं

इस दिवाली, जब आप दीप जलाएं और खुशियां मनाएं, तो याद रखें कि पूर्वी भारत में मां काली की पूजा के माध्यम से यह संदेश दिया गया है कि असली प्रकाश वही है जो भीतर के अंधकार को पहचानकर उसे दूर करने के बाद उत्पन्न होता है। दिवाली केवल धन और समृद्धि का पर्व नहीं, बल्कि भीतर के अंधकार को दूर करने और आत्मिक शक्ति प्राप्त करने का पर्व भी है।
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