कोरोना के इस आपातकाल में खून की एक एक बूंद उन पेशेंट के लिए जीवनदान है जो थैलेसीमिया बीमारी से ग्रसित है। थैलेसीमिया मरीजों को नियमित रूप से खून चढाने की जरुरत पड़ती है। और इस कोरोना काल में खून की बेहद कमी हो गयी है। लिहाजा थैलेसीमिया बीमारी से पीड़ित मरीजों को कोरोना महामारी की दोहरी मार झेलनी पड़ रही है। कोरोना काल में रक्तदान की लहर पर ब्रेक लग गई है। रक्तदान कैंप नहीं लग रहे। लोग भी रक्तदान के लिए आगे नहीं आ रहे। जिसकी वजह से ब्लड बैंक में रक्त की कमी हो गई है। ऐसे में स्वेच्छा से रक्तदान करने वालों को बुलाकर मरीजों की जरूरतों को पूरा किया जा रहा है।
रक्तदान से बचाया जा सकता है थैलेसीमिया मरीजों की जान
रक्तदान महादान है। रक्तदान से एक नहीं बल्कि कई जिंदगियों को बचाया जा सकता है। रक्त को किसी लैब या फिर किसी फैक्टरी में नहीं बनाया जा सकता है। खून की आपूर्ति सिर्फ और सिर्फ रक्तदान से ही किया जा सकता है। कोरोना की वजह से खून की कमी हो गयी है और चूंकि थैलेसीमिया मरीजों को रक्त की बहुत ज्यादा जरूरत है ऐसे में कोरोना थैलेसीमिया पेशेंट के लिए अभिशाप बन गया है। थैलेसीमिया दिवस पर आईये हम एक जिम्मेदार नागरिक का फर्ज निभाएं और रक्तदान के साथ साथ कोरोना और थैलेसीमिया के प्रसार को रोकने में देश की मदद करें।
8 मई को मनाया जाता है विश्व थैलेसीमिया दिवस
विश्व थैलेसीमिया दिवस निर्णय और नीति निर्माण, स्वास्थ्य देखभाल पेशेवरों, मरीजों और उनके परिवारों व समुदायों से संबंधित लोगों के बीच जागरूकता बढ़ाने के लिए हर साल 8 मई को मनाया जाता है। रक्त से जुड़ी हुई बीमारी थैलेसीमिया असाध्य मानी जाती है। देश में हर साल थैलेसीमिया मेजर जो थैलेसीमिया का जटिल प्रकार है इससे ग्रसित 10,000 बच्चे जन्म लेते हैं। विश्व थैलेसीमिया दिवस के मौके पर आइये जानते है थैलेसीमिया रोग की गंभीरता और इलाज के तरीकों के बारे में।
थैलेसीमिया बीमारी रक्त से जुड़ी हुई आनुवंशिक बीमारी है
थैलेसीमिया बीमारी रक्त से जुड़ी हुई आनुवंशिक बीमारी है। इससे पीड़ित व्यक्ति के खून में हीमोग्लोबिन की मात्रा कम होती है। खून में लाल रक्त कोशिकाएं (आरबीसी) भी बेहद कम बनती हैं। इससे मरीज़ को एनीमिया हो जाता है। थैलेसीमिया दो तरह का होता है- माइनर और मेजर। माइनर गंभीर नहीं होता। कभी-कभी माइनर के रोगियों को जिंदगीभर भी रोग के बारे में पता नहीं चल पाता। मेजर के भी दो प्रकार होते हैं- अल्फा और बीटा।थैलेसीमिया जेनेटिक बीमारी है, मतलब माता-पिता में से किसी को है, तो ही बच्चे को यह बीमारी हो सकती है।
बच्चे में थैलेसीमिया का संक्रमण रोका जा सकता है
अगर माता-पिता में से किसी एक को थैलेसीमिया है, तो बच्चे को माइनर थैलेसीमिया हो सकता है। लेकिन अगर माता-पिता दोनों को थैलेसीमिया है तो 25 प्रतिशत बच्चों को मेजर थैलेसीमिया होने की आशंका होती है। इसमें 25 प्रतिशत बच्चे सामान्य हो सकते हैं। वहीं 50 प्रतिशत को माइनर थैलेसीमिया की आशंका होती है। बच्चे में थैलेसीमिया का संक्रमण रोका जा सकता है, बशर्ते माता-पिता वक्त रहते अपनी जांच करवाएं। गर्भधारण से 12 हफ्ते तक अगर माता-पिता के थैलेसीमिया वाहक होने का पता चल जाए, तो डॉक्टरी सलाह से इसका इलाज किया जा सकता है। पति-पत्नी को थैलेसीमिया है तो फिर 10 से 12 हफ्ते के भ्रूण की क्रोनिक विलस सेंपलिंग (सीवीएस) टेस्ट किया जाता है। यह टेस्ट भ्रूण में किसी तरह के जेनेटिक डिसऑर्डर का पता लगाने के लिए किया जाता है।
थैलेसीमिया मरीजों के ये है लक्षण
Thalassaemia से ग्रसित बच्चों के शरीर में धीरे-धीरे पीलापन बढ़ता जाता है। बच्चे चिड़चिड़े होते जाते हैं, भूख बहुत कम हो जाती है। स्तनपान भी कम कर देते हैं, नतीजतन उनका वज़न बढ़ना भी कम हो जाता है। ऐसे बच्चों का पेट भी सामान्य बच्चों की तुलना में बढ़ा हुआ होता है। थैलेसीमिया से ग्रसित बच्चे भी अच्छा जीवन जी सकते हैं। बस उनकी उचित देखभाल की जरूरत होती है। बच्चे में जैसे ही बीमारी का पता चले, बिना देर किए लाल रक्त कोशिकाओं की जरूरत पूरी करनी चाहिए। रक्त में आरबीसी की सही मात्रा से हीमोग्लोबिन का स्तर 9 ग्राम/डीएल बना रहता है। इसका स्थायी इलाज बोन मैरो ट्रांसप्लांट से ही संभव है।
थैलेसीमिया मरीजों को हफ्ते में खून चढ़ाया जाता है ताकि हीमोग्लोबिन बनती रहे। खून चढ़ाए जाने के बाद थैलेसीमिया के मरीजों को शरीर में जमा अतिरिक्त लोहे को निकालने के लगातार एक खास थैरेपी से गुरजना होता है। भारत में पूरी दुनिया में थैलेसीमिया के मरीज (Thalassaemia Patients) सबसे ज्यादा हैं। यहां तक कि इसे थैलेसीमिया कैपिटल कहा जाता है। हर साल 10 हजार से ज्यादा शिशु इस बीमारी के गंभीर रूप के साथ जन्म लेते हैं। आंकड़ों के अनुसार, हमारे देश में थैलेसीमिया के 3.5 करोड़ से अधिक वाहक हैं। ऐसा अनुमान है कि हर महीने लगभग 1 लाख मरीज ब्लड ट्रांसफ्यूजन से गुजरते हैं और केवल उन्हीं के इलाज के लिए 2 लाख यूनिट से भी ज्यादा खून की जरूरत होती है। इन हालातों में सुधार के लिए सरकारी सुविधाएं बहुत कम हैं। यही वजह है कि इलाज पर 90% से ज्यादा खर्च मरीज ही करते हैं और हर मरीज अनुमानतः हर साल 1 लाख रुपए इलाज पर खर्च करता है।
थैलेसीमिया रोकथाम के लिए सीएसआर पहल
Thalassaemia मरीजों के लिए कई एनजीओ और कॉर्पोरेट्स काम करते है। कॉर्पोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी (CSR) के तहत बड़े पैमाने पर थैलेसीमिया मरीजों के लिए थैलेसीमिया बीमारी रोकथाम कार्यक्रम चलाया जा रहा है। कोल इंडिया की 12 वर्ष से कम उम्र के थैलीसीमिया से पीड़ित वंचित तबके के मरीजों के इलाज के लिए CSR से मदद कर रही है। कोल इंडिया के इस पहल के तहत वह समाज के गरीब और वंचित तबकों से आने वाले लोगों को वित्तीय मदद देती है। कोल इंडिया ने वर्ष 2017 में ‘थैलीसीमिया बाल सेवा योजना’ की शुरुआत की थी। इसके तहत थैलेसीमिया के मरीजों को हेमेटोपॉइटिक स्टेम सेल प्रतिरोपण के लिए वित्तीय मदद दी जाती है। ऐसे ही बैंक ऑफ़ इंडिया, कंटेनर कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया, कॉनकोर एयर, एचपीसीएल, इंडियन आयल, ओएनजीसी जैसे कॉर्पोरेट्स भी थैलेसीमिया के लिए काम करते है।