app-store-logo
play-store-logo
September 27, 2025

भारत की अनूठी परंपरा: जहाँ दुर्गा पूजा को मानते है शोक का पर्व

The CSR Journal Magazine
देशभर में इस समय शारदीय नवरात्रि और दुर्गा पूजा का उल्लास छाया हुआ है। हर तरफ माँ दुर्गा के जयकारे लग रहे हैं और भक्तिमय माहौल है। यह पर्व देवी दुर्गा द्वारा महिषासुर नामक असुर सम्राट के संहार की विजयगाथा के रूप में धूमधाम से मनाया जाता है।
परंतु, भारत विभिन्नताओं का देश है। एक तरफ जहाँ करोड़ों लोग माँ दुर्गा की आराधना करते हैं, वहीं झारखंड के गुमला और आस-पास के क्षेत्रों में रहने वाली असुर जनजाति के लोग इस दौरान शोक मनाते हैं। इन लोगों के लिए महिषासुर कोई राक्षस नहीं, बल्कि उनके पूजनीय पूर्वज और शक्तिशाली सम्राट थे।

महिषासुर के वंशज: 9 दिन घर से बाहर नहीं निकलते ‘असुर’

असुर समुदाय के लोग नवरात्रि के नौ दिनों को शोक की अवधि मानते हैं। इन नौ दिनों में उनके यहाँ किसी भी प्रकार का मंगल कार्य नहीं होता। वे न तो नए कपड़े पहनते हैं और न ही कोई खुशी मनाते हैं। गुमला जिले के डुमरी गाँव के दहारू असुर के अनुसार, वे षष्ठी से दशमी तक मातम मनाते हैं। इस दौरान वे तमाम काम रात में निपटाते हैं और दिन में घर से बाहर नहीं निकलते, क्योंकि उनका दावा है कि देवी दुर्गा ने उनके पूर्वज का वध किया था।
उनकी लोकगाथा हिंदू पुराणों में वर्णित कहानी से बिल्कुल विपरीत है। उनके अनुसार, राजा महिषासुर महिलाओं का अत्यंत सम्मान करते थे और इतने शक्तिशाली थे कि वे किसी नारी से युद्ध नहीं कर सकते थे। देवताओं को यह भय था कि यदि महिषासुर लंबे समय तक जीवित रहे तो लोग देवताओं की पूजा करना बंद कर देंगे।

मिट्टी के शेर से बैर: सदियों पुरानी मान्यता और अटूट विश्वास

असुर जनजाति के लोग भैंस की पूजा करते हैं और दुर्गा पूजा की आराधना नहीं करते। इस समुदाय की अटूट मान्यताएँ उनके रोजमर्रा के जीवन में भी दिखाई देती हैं। इस जनजाति के बच्चे मिट्टी के बने शेर के खिलौनों की गरदन मरोड़ देते हैं, क्योंकि शेर को माँ दुर्गा का वाहन माना जाता है। यह उनके गहरे और सदियों पुराने विश्वास का प्रतीक है।
झारखंड में असुरों की संख्या बेहद कम है। 2011 की जनगणना के अनुसार, झारखंड में इनकी जनसंख्या लगभग 22,459 थी और बिहार में 4,129। ये लोग सुखुआपनि, चाईबासा और गुमला जिलों के गाँवों और जंगलों में रहते हैं। यह समुदाय सोहराई का त्योहार मनाता है, जो दीपावली के आस-पास पड़ता है। इस दिन ये लोग अपनी नाभि, सीने और नाक पर एक विशेष तेल लगाते हैं, जो इस बात का प्रतीक है कि उनके सम्राट महिषासुर का रक्त भी इन्हीं स्थानों से बहा था। ये लोग चावल से बनी कच्ची शराब और मुर्गे का मांस अपने पूर्वजों पर चढ़ाकर प्रसाद के तौर पर सेवन करते हैं।

मगध से महाभारत: असुरों की लौह-कला, जिस पर आज तक नहीं लगा जंग

कहा जाता है कि महिषासुर के मारे जाने के बाद यह जनजाति जंगलों में फैल गई और लोहे के हथियार बनाने के काम में लग गई। इनके बनाए गए हथियारों की ऐतिहासिक महत्ता रही है।
ऐसा माना जाता है कि महाभारत के युद्ध में इन्हीं लोगों द्वारा बनाए गए हथियारों का प्रयोग हुआ था। यहाँ तक कि मगध साम्राज्य में भी इन्हीं असुरों द्वारा निर्मित लौह-हथियारों का इस्तेमाल होता था। सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि सम्राट अशोक के समय के लौह स्तंभों मेंजो इस्तेमाल किया गया लोहा भी इसी जनजाति के लोगों द्वारा ढाला गया था। इस लोहे की गुणवत्ता इतनी बेहतरीन थी कि उसमें आज तक जंग नहीं लगा है, जो उनकी उत्कृष्ट लौह-कला का प्रमाण है।
यह कहानी भारतीय संस्कृति के उस पहलू को दर्शाती है जहाँ एक ही घटना को दो समुदाय बिल्कुल अलग-अलग नज़रिए से देखते हैं। यह वाकई एक दिलचस्प जानकारी है।

Long or Short, get news the way you like. No ads. No redirections. Download Newspin and Stay Alert, The CSR Journal Mobile app, for fast, crisp, clean updates!

App Store –  https://apps.apple.com/in/app/newspin/id6746449540 

Google Play Store – https://play.google.com/store/apps/details?id=com.inventifweb.newspin&pcampaignid=web_share

 

Latest News

Popular Videos