भारत ने बीते एक दशक में सौर ऊर्जा के क्षेत्र में ऐतिहासिक प्रगति की है और आज वह दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा सोलर पावर उत्पादक बन चुका है। लेकिन इस तेज़ विस्तार के साथ एक गंभीर समस्या उभर रही है सोलर पैनलों से निकलने वाला कचरा। यदि समय रहते इसके प्रबंधन की ठोस योजना नहीं बनी, तो स्वच्छ ऊर्जा का यह सपना पर्यावरण संकट में बदल सकता है।
भारत में सौर ऊर्जा का तेज़ विस्तार
पिछले दस वर्षों में भारत ने सौर ऊर्जा को अपनी जलवायु रणनीति का केंद्र बना लिया है। बड़े-बड़े सोलर पार्कों से लेकर शहरों और गांवों की छतों तक नीले सोलर पैनल दिखाई देने लगे हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, सब्सिडी योजना के तहत लगभग 24 लाख घरों में रूफटॉप सोलर सिस्टम लगाए जा चुके हैं।
इस विस्तार से कोयले पर निर्भरता कम हुई है। हालांकि आज भी कुल स्थापित क्षमता का आधे से अधिक हिस्सा गैर-नवीकरणीय स्रोतों से आता है, लेकिन सोलर की हिस्सेदारी अब 20% से ज्यादा हो चुकी है।

सोलर पैनल उपयोग में स्वच्छ, लेकिन अंत में खतरा
सोलर पैनल आमतौर पर 25 साल तक चलते हैं। इसके बाद इन्हें हटाकर फेंक दिया जाता है। ये पैनल मुख्य रूप से कांच, एल्युमिनियम, सिल्वर और पॉलिमर से बने होते हैं, जो काफी हद तक रीसायकल किए जा सकते हैं।
लेकिन इनमें लेड और कैडमियम जैसी विषैली धातुएं भी होती हैं, जो गलत तरीके से निपटान होने पर मिट्टी और पानी को प्रदूषित कर सकती हैं। यही वजह है कि सोलर कचरा एक उभरता हुआ पर्यावरणीय खतरा बनता जा रहा है।
सोलर कचरे के डरावने आंकड़े
भारत के पास फिलहाल सोलर कचरे का कोई आधिकारिक डेटा नहीं है। हालांकि एक अध्ययन के अनुसार 2023 तक देश में लगभग 1 लाख टन सोलर वेस्ट पैदा हो चुका था, जो 2030 तक बढ़कर 6 लाख टन तक पहुंच सकता है।
Council on Energy, Environment and Water की एक नई रिपोर्ट के मुताबिक, 2047 तक भारत में 1.1 करोड़ टन से ज्यादा सोलर कचरा पैदा हो सकता है। इसके प्रबंधन के लिए लगभग 300 रीसायक्लिंग संयंत्रों और करीब 478 मिलियन डॉलर के निवेश की जरूरत होगी।
नीतियां मौजूद, लेकिन क्रियान्वयन कमजोर
2022 में भारत सरकार ने सोलर पैनलों को ई-वेस्ट नियमों के तहत शामिल किया, जिससे कंपनियों को पैनलों के संग्रह, भंडारण और रीसायक्लिंग की जिम्मेदारी दी गई। लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि इन नियमों का पालन खासतौर पर घरेलू और छोटे सोलर सिस्टम में कमजोर है। ये सिस्टम कुल इंस्टॉलेशन का केवल 5–10% हैं, फिर भी इन्हें ट्रैक करना और इकट्ठा करना मुश्किल होता है। नतीजतन, कई पुराने या टूटे पैनल लैंडफिल या अवैध रीसायक्लरों के पास पहुंच जाते हैं, जहां असुरक्षित तरीकों से उन्हें तोड़ा जाता है।


