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October 2, 2025

ब्राह्मण, विद्वान और परम शिवभक्त रावण की कहानी: क्यों हुए राम और शिव उसके अंत पर दुखी?

The CSR Journal Magazine
रावण, त्रेतायुग का एक ऐसा पात्र है, जो जितना शक्तिशाली और विद्वान था, उतना ही विवादास्पद भी। उसका जन्म एक विशिष्ट कुल में हुआ था। उसके पिता थे महर्षि विश्रवा, जो पुलत्स्य ऋषि के पुत्र थे और एक तेजस्वी ब्राह्मण माने जाते हैं। वहीं उसकी माता थीं कैकेसी, जो राक्षस कुल के राजा सुमाली की पुत्री थीं। इस प्रकार रावण एक ब्राह्मण-पिता और राक्षसी-माता की संतान था, इसलिए उसे ‘ब्राह्मण’ होते हुए भी ‘राक्षस’ प्रवृत्ति वाला कहा गया।
रावण के तीन प्रमुख भाई-बहन थे: कुंभकर्ण, विभीषण और शूर्पणखा। सभी को दैत्य गुरु शुक्राचार्य से शिक्षा मिली थी और उन्होंने दैत्य परंपरा को अपनाया।

रावण: विद्वान, तपस्वी और शिवभक्त

रावण केवल एक युद्धकला में निपुण योद्धा नहीं था, बल्कि अत्यंत विद्वान, शास्त्रों का ज्ञाता, संगीतज्ञ और तंत्र-मंत्र में पारंगत था। उसने वेदों का अध्ययन किया, आयुर्वेद, ज्योतिष और संगीत में गहरी पकड़ बनाई। वह वीणा वादन में निष्णात था और ऐसा कहा जाता है कि उसने “शिव तांडव स्तोत्र” की रचना की थी।
रावण भगवान शिव का परम भक्त था। शिव को प्रसन्न करने के लिए उसने कठोर तपस्या की और अपने दस सिरों की आहुति एक-एक कर दी। हर बार शिव ने उसे सिर पुनः प्रदान किए और इस प्रकार वह ‘दशानन’ कहलाया। अंततः उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर शिव ने उसे अमोघ वरदान और शक्तिशाली अस्त्र प्रदान किए।

लंका का निर्माण और राज्याभिषेक

रावण ने अपने सामर्थ्य से लंका को स्वर्ण नगरी में बदल दिया। कहा जाता है कि लंका का निर्माण स्वयं विश्वकर्मा ने किया था। रावण ने अपने भाई कुबेर से लंका को बलपूर्वक छीन लिया और वहां अपनी राजधानी बनाई। वह एक कुशल शासक भी था, लेकिन धीरे-धीरे उसकी शक्ति के साथ-साथ उसका अहंकार भी बढ़ता गया।

अधर्म की राह और सीता हरण

अपने अहंकार और कामवासना में अंधा होकर रावण ने मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की पत्नी सीता का हरण कर लिया। यह उसका सबसे बड़ा अधर्म माना गया। उसने न केवल एक स्त्री का अपहरण किया, बल्कि धर्म, मर्यादा और रिश्तों का अपमान किया। अपने मामा मारीच को स्वर्णमृग बनाकर उसने सीता को भ्रमित किया, और फिर छल से उनका अपहरण किया।
यह भी उल्लेखनीय है कि जब विभीषण ने उसे समझाया कि वह धर्म के मार्ग पर लौटे, तो रावण ने उसे अपमानित कर लंका से निष्कासित कर दिया।

राम-रावण युद्ध और ब्राह्मण हत्या का दोष

राम और रावण के बीच हुए युद्ध को धर्म और अधर्म की टक्कर कहा गया। कई दिनों तक चले इस युद्ध में अंततः श्रीराम ने अश्विन शुक्ल दशमी के दिन रावण का वध किया। रावण के अंत समय में भी भगवान शिव ने शोक प्रकट किया, क्योंकि रावण ब्राह्मण कुल से था। एक धर्मात्मा ब्राह्मण का वध हुआ था, भले ही उसने राक्षसी कर्म किए हों।
श्रीराम ने भी इस हत्या का प्रायश्चित करने के लिए ब्राह्मणों से यज्ञ करवाया और पूजा की, जिससे उन्हें ब्रह्महत्या के दोष से मुक्त किया गया। इससे यह भी सिद्ध होता है कि रावण कोई साधारण राक्षस नहीं, बल्कि एक विद्वान, ज्ञानी और शिवभक्त ब्राह्मण था, जिसकी दिशा गलत हो गई थी।

शिवजी और भगवान राम दोनों हुए थे रावण के अंत से दुखी

रावण की मृत्यु पर केवल उसकी हार ही नहीं, बल्कि उसकी महानता और उसकी जटिलता के कारण भगवान शिव और श्रीराम दोनों दुखी थे। शिवजी, जिनके अनन्य भक्त रावण थे, को यह ज्ञात था कि रावण ब्राह्मण कुल से था और उसका ब्राह्मणत्व आज भी शुद्ध था, बावजूद इसके उसने गलत रास्ता अपनाया था। शिवजी के लिए यह एक पीड़ा थी कि एक ऐसा भक्त, जिसने कठोर तपस्या की और उनका आशीर्वाद पाया, अब ब्रह्महत्या के दोष में फंसा।

वहीं श्रीराम के लिए भी यह दुखद था कि उन्हें अपने धर्म की रक्षा के लिए अपने शिष्य और प्रियजनों के साथ-साथ एक महान विद्वान और शक्तिशाली राजा को मारना पड़ा। रावण का अंत न केवल अधर्म की हार थी, बल्कि एक मानव की त्रासदी भी थी, जो अपनी शक्तियों और ज्ञान का दुरुपयोग करके स्वयं विनाश के मार्ग पर चल पड़ा। इसलिए दोनों देवता रावण के अंत से केवल विजय का उत्सव नहीं मनाते थे, बल्कि उस दुख और क्षति को भी समझते थे जो इस लड़ाई में हुई थी।

दशहरा: धर्म की जीत का प्रतीक

रावण वध के दिन को ही ‘विजयादशमी’ या ‘दशहरा’ कहा जाता है। यह पर्व अधर्म पर धर्म की विजय, अहंकार पर विनम्रता की विजय, और असत्य पर सत्य की जीत का प्रतीक माना जाता है।

रावण का पुतला जलाने की परंपरा कब और कैसे शुरू हुई?

रावण के पुतले को जलाने की परंपरा कब शुरू हुई, इस पर निश्चित ऐतिहासिक प्रमाण नहीं हैं, लेकिन माना जाता है कि यह परंपरा मध्यकालीन भारत से शुरू हुई।
एक मान्यता के अनुसार, 16वीं शताब्दी में गोस्वामी तुलसीदास द्वारा लिखित रामचरितमानस और रामलीला के मंचनों ने इस परंपरा को जनमानस में लोकप्रिय बना दिया।
मुगल काल में रामलीला को विशेष संरक्षण मिला। राजा दशरथ की भूमिका और राम के आदर्श चरित्र को नाटकों और मंचन के माध्यम से दिखाया जाने लगा, और इसके साथ ही रावण-दहन की परंपरा ने भी जन्म लिया।
यह परंपरा धीरे-धीरे उत्तर भारत, विशेषकर उत्तर प्रदेश, बिहार, और दिल्ली में आम हो गई। बाद में यह पूरे भारत में फैल गई।

क्या पौराणिक ग्रंथों में रावण-दहन का उल्लेख है?

अधिकांश पुराणों और वाल्मीकि रामायण में रावण के वध का वर्णन तो मिलता है, लेकिन पुतला जलाने की परंपरा का प्रत्यक्ष उल्लेख नहीं मिलता।
यह एक सांस्कृतिक परंपरा के रूप में विकसित हुई, जिससे समाज को यह संदेश मिले कि अहंकार, अधर्म, अत्याचार और स्त्री अपमान का अंत अवश्य होता है, चाहे व्यक्ति कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो।

रावण और आज का समाज

आज दशहरा केवल एक त्यौहार नहीं, बल्कि एक सामाजिक और नैतिक संदेश है, कि अधर्म और अन्याय चाहे जितना भी शक्तिशाली हो, अंततः उसकी पराजय निश्चित है। रावण के पुतले के साथ हम न केवल राक्षस का प्रतीक जलाते हैं, बल्कि अपने भीतर के अहंकार, लालच, क्रोध, और अन्याय को भी जलाते हैं।
हर साल विजयादशमी हमें याद दिलाती है कि सच्चाई की राह कठिन हो सकती है, लेकिन उसका अंत सदैव विजय में ही होता है।
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