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सीएसआर से मिले शव वाहन, ताकि मौत के बाद ना हो बेकद्री

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मध्य प्रदेश के मुरैना में 8 साल का मासूम अपने 2 साल के भाई का शव गोद में लेकर बैठा रहा। सफेद कपड़े से ढंकी लाश पर मक्खियां भिनभिना रही थी। बड़ा भाई मक्खियां उड़ाता फिर मदद की उम्मीद में इधर-उधर नजरें दौड़ाता। यह सब डेढ़ घंटे चला। उसका दिल छोटे भाई की मौत से भारी है। गोद नन्ही थी लेकिन जिम्मेदारी बड़ी थी। जिम्मेदारी भाई के शव को घर ले जाने की। यह मंजर जिसने देखा, उसकी रूह तक कांप उठी। मुरैना जिले में 10 जुलाई को इंसानियत को शर्मसार कर देने वाली इस तस्वीर को जिसने देखी दांतों तले उंगलियां दबा ली।

शव वाहन नहीं मिलने से शव की हो रही है बेकद्री

दो साल के बच्चे का शव गोद में लेकर बैठे भाई और शव वाहन के लिए दो घंटे तक भटकते पिता का मामला सामने आने के बाद बड़ा सवाल यही है कि स्वास्थ्य सेवाओं के नाम पर हर साल सरकारी बजट के साथ साथ सीएसआर फंड के करोड़ों रुपए खर्च होने के बाद भी शव वाहन की व्यवस्था को लेकर जिम्मेदार आखिर बेपरवाह क्यों हैं? मौत के बाद इंसानी शव की बेकद्री की ये तस्वीर कोई पहला मामला नहीं है। कई ऐसे मामले मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में भी आये जब शव वाहनों की कमी या फिर उनके नहीं होने की वजह से शवों को परिजन अपने अपने तरीकों से घर ले जाने को मजबूर हुए।

शव वाहन के अभाव में लाश को कभी चारपाई तो कभी ठेले पर ले जाने को मजबूर परिजन

अमीर तो कोई न कोई व्यवस्था तो कर लेता है लेकिन शव वाहन नहीं होने की मार गरीब पर पड़ता है। कभी किसी गर्भवती स्त्री को एंबुलेंस ना मिलने से प्राण गंवाने पड़ते हैं, तो कभी लोगों को अपने बीमार परिजन को चारपाई पर लिटाकर अस्पताल ले जाना पड़ता है। कोरोना महामारी के समय ये दृश्य और भयावह था। ऐसा नहीं है कि एम्बुलेंस की कमी हो लेकिन सरकारी तंत्र शवों को एम्बुलेंस में नहीं लेकर जाते है। किसी की मौत हो जाए तो सम्मान के साथ शव को घर तक पहुंचाने में सरकारी सिस्टम फेल है। सरकारी अस्पतालों के पास शव वाहन तक नहीं होते है।

सीएसआर से एम्बुलेंस की खरीददारी लेकिन शव वाहन नहीं

देश के हर एक प्रदेश की सबसे पहले प्राथमिकता शिक्षा और स्वास्थ्य होती है ताकि प्रदेश की जनता शिक्षित और स्वस्थ हो। इसके लिए बड़े पैमाने पर स्वास्थ्य बजट तय किये जाते है। एम्बुलेंस की खरीददारी भी बड़े पैमाने पर की जाती है। स्वास्थ्य सेवाओं के लिए एम्बुलेंस बहुत महत्वपूर्ण होते है लेकिन शव वाहन को भी दरकिनार नहीं किया जा सकता है। क्योंकि शव वाहन में ही सम्मान के साथ शव को उनके घर पर पहुंचाया जाता है। सरकार और सीएसआर की मदद से एम्बुलेंस की खरीददारी और सुविधाएं दी जाती है लेकिन शव वाहन नाम मात्र खरीदा जाता है, खासकर CSR Funds से तो नहीं ही खरीदा जाता है।

सीएसआर के तहत स्वास्थ्य सेवाओं पर सबसे ज्यादा खर्च

मुरैना जहां ये घटना हुई उस मध्य प्रदेश में आगे एम्बुलेंस की बात करें तो इमरजेंसी मेडिकल एम्बुलेंस सर्विस, 554 बेसिक लाइफ सपोर्ट (बीएलएस) एम्बुलेंस और 50 एडवांस लाइफ सपोर्ट (एएलएस) एम्बुलेंस के बेड़े के साथ मध्य प्रदेश राज्य में रणनीतिक रूप से तैनात है, जो पूरी तरह कार्यात्मक केंद्रीकृत कॉल सेंटर के साथ जुड़ी है। इस कॉल सेंटर में प्रतिदिन 25000 से अधिक कॉल एम्बुलेंस के लिए आते है। ये एम्बुलेंस सुविधा रोजाना 2500 इमरजेंसी को हैंडल करती है। एंबुलेंस में बायोमेट्रिक सिस्टम के साथ जीपीएस लगाया गया है। इस परियोजना में लगभग 3000 कर्मचारी और 1400 पायलट (ड्राइवर) और आपातकालीन प्रबंधन तकनीशियन (ईएमटी) अपनी सेवाएं दे रहे हैं।

कहां जा रही कंपनियों की सीएसआर की राशि?

कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी (Corporate Social Responsibility) की बात करें तो देश भर में साल 2020-21 में 6946.545 करोड़ CSR फंड्स अकेले Health and Infrastructure पर खर्च किया गया। वहीं मध्य प्रदेश की तमाम कोल कंपनियों ने सीएसआर फंड्स से एम्बुलेंस भेंट किये लेकिन शव वाहन नहीं। Northern Coalfields Ltd हो या NTPC या फिर SECL मध्य प्रदेश में कई बड़ी इकाइयां PSU हैं। इन कंपनियों द्वारा हर साल कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी (सीएसआर) के नाम पर जरूरतमंदों की मदद के बड़े-बड़े दावे किए जा रहे हैं। लेकिन नागरिकों का कहना है कि किसी भी कंपनी ने अब तक शव वाहन चलाने की बात नहीं की है। ऐसे में अब कॉरपोरेट और सरकारों को ये जरूर सोचना चाहिए कि मृतक पार्थिव शरीर को आखिरी सम्मान मिले।