क्या सफल हुआ अण्णा आंदोलन और महाराष्ट्र का बजट सत्र?
विपक्षी नेता धनंजय मुंडे के भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सदन के शुरुवात में ही बीजेपी और शिवसेना ने जोरदार हंगामा किया। लेकिन बाद में किसानों की रैली ने सदन का नूर ही बदल दिया। विधिमंडल का कामकाज आम आदमी की मांगो को लेकर केंद्रित हुआ। देवेंद्र फडणवीस की सरकार ने नाशिक के आदिवासी इलाके से निकली विशाल रैली को पहले तो दरकिनार कर दिया था लेकिन बाद में हजारों किसान और आदिवासी देश की आर्थिक राजधानी में पहुंची और सरकार के दिल की धड़कन तेज हो गई। इसको निपटाने में सरकार सफल हुई नही कि रालेगणसिद्धी से समाजसेवी अण्णा हजारे दिल्ली से फिर एक बार टकराने के लिए तैयार हुए जो देवेंद्र फडणवीस सरकार के लिए सिरदर्द साबित हुआ।
जब महाराष्ट्र के सदन में आम जनता की मुद्दों को दरकिनार किया जा रहा था तब समाजसेवक अण्णा हजारे लोकपाल नियुक्ति के मुद्दे समेत कई मांगो को लेकर दिल्ली में अनशन पर बैठ गए। इस देश ने 2011 के आन्दोलन में जिसमे दूसरा गांधी देखा था।जिसके आंदोलन की वजहसे कांग्रेसी सत्ता के तख्त को बदल दिया। उसी अन्ना हजारे के इस अनशन को केंद्र सरकार ने शुरुवात में अनदेखा कर दिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके कैबिनेट मंत्रियों ने तो अण्णा से मिलने की जहमत तक नही उठाई। लेकिन अनशन शुरू हो जाने के बाद महाराष्ट्र सरकार के जल आपूर्ति मंत्री गिरीश महाजन केंद्र के आदेश पर महाराष्ट्र सरकार का बजट सत्र छोड़कर अण्णा को मनाने के लिए दिल्ली में डेरा डालकर बैठे रहे।
जब अण्णा को वह मना नही पाए तब खुद मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस को दिल्ली जाना पड़ा और निम्बु पानी पिलाकर अण्णा के अनशन को तोड़ने में वह सफल रहे। इसबार के अण्णा के आंदोलन ने मीडिया में जोर नहीं पकड़ा और इसलिए भी पीएम नरेंद्र मोदी बिलकुल भी परेशान नहीं हुए। लेकिन सवाल अण्णा के बिगड़ते हालत की थी इसलिए उनको मनाने की जिम्मेदारी महाराष्ट्र सरकार को सौप दी गई।
देश के आम लोगों के लिये और किसानों के भले के लिए अनशन पर बैठे अण्णा के कई मांगो को तत्वतः मंजूरी दे दी गई।
केंद्र और राज्यमें लोकपाल की नियुक्ती।
खेती के लिए इस्तमाल में लानेवाले औजारों पर लगाया जानेवाला जीएसटी बारा फीसदी से पांच फीसदी करना।
कृषि मुल्य आयोग को ऑटोनॉमस दर्जा देने के लिए उच्च समिति का गठन करना।
चुनाव प्रक्रिया में सुधार करना।
इन तमाम मांगो को अगर छह महीने में पूरा नाही किया जाएगा तो अण्णा ने कहा है कि वह छह महीने बाद फिर से अनशन पर बैठ जाएंगे।
उम्र के अस्सी पार कर चुके अण्णा आम आदमी की आवाज को फिर बुलंद करने और सरकार को उनके मांगो पर ध्यान देने के लिए मजबूर करने के लिए आंदोलन कर सकते है लेकिन सवाल यह है कि हम अपने अधिकारोंके के लिए लड़ने के लिए खुद तैयार नही है। जो जोश अण्णा के बीच दिखता है वह हममें नही है। और यही कारण था कि मुंबई में किसानों की रैली में किसान और आदिवासियों के साथ में उनके समर्थन के लिए आम आदमी मैदान में नही उतरा जो अपनी जाती के आरक्षण के लिए नेताओं के कहने पर मोर्चा निकालते है। दिल्ली में इस बार वही हुआ
2011 में अण्णा के आंदोलन को देशभर के युवा और बुज़ुर्गों का समर्थन था। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल समेत कई अन्य सामाजिक कार्यकर्ता उस आन्दोलन को आजादी की दूसरी लड़ाई करार देते हुए जंग में उतरे थे। उसी अण्णा को इस बार उन तमाम लोगों ने अकेला छोड़ दिया था। वक्त गुजर गया। केजरीवाल आन्दोलन के भरोसे दिल्ली के सीएम बन गए। बाकी कार्यकर्ता बीजेपी में जाकर नेता बन गए।
आंदोलन का इस्तेमाल हमेशा सरकार पर आम आदमी के मांगो को लेकर दबाव डालने के लिए किया जाता है लेकिन मोदी और फडनवीस सरकार में आन्दोलन को या तो दरकिनार किया गया या फिर उसे खास रणनीति के तहत मैनेज किया गया।
मैं फिर से महाराष्ट्र के विधिमंड़ल के बजट सत्र का जिक्र करूँगा की जहाँ आम आदमी के कितनी समस्या को इस बार हल किया गया तो जवाब आता है नही। बीजेपी, शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी के बीच अपने ही अस्तित्व की लड़ाई ज्यादा लड़ी गई। तमाम पार्टियों में जूतम पैजार दिखाई दी। बजट सत्र को लंबा खींचकर भी बुनियादी मसले हल नहीं हुए। और अब विधिमंड़ल का मानसून सत्र मुंबई के बजाय नागपुर में लिये जाने वाला है। वजह यह है कि पृथक विदर्भ की मांग को दरकिनार किया जाए। और दिखाया जाए की नागपुर में सत्र लेकर सरकार विदर्भ की समस्याओं को खासा तवज्जो दे रही है।
लेकिन सवाल तब भी मन में है कि किसानों की आत्महत्या का गढ़ बन चुके विदर्भ का केवल विधिमंड़ल का सत्र लेकर भला होने वाला है या फिर कुछ ठोस कार्यक्रम की जरूरत है।