शुक्रवार को शून्यकाल (Zero Hour) के दौरान, राज्य सभा की मनोनीत सदस्य सुधा मूर्ति ने देश में सोशल मीडिया पर बच्चों के चित्रण (Portrayal) को लेकर गंभीर चिंता व्यक्त करते हुए केंद्र सरकार से स्पष्ट और कठोर नियामक रूपरेखा (Regulatory Framework) लाने की मांग की।
सुधा मूर्ति का आग्रह- सोशल मीडिया पर बच्चों के ‘Commodification’ पर नियमन आवश्यक
सुधा मूर्ति ने कहा कि आजकल सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर बच्चों को एक तरह की “इन्फ्लुएंसर” या “मदर-इन्फ्लुएंसर” की तरह पेश किया जा रहा है, जिससे उनकी मासूमियत और बचपन दोनों खतरे में पड़ रहे हैं। कई माता-पिता अपने छोटे बच्चों को विभिन्न वेशभूषा, कपड़े, नृत्य और अन्य कमीर्शियल प्रस्तुतियों के साथ सोशल मीडिया पर प्रस्तुत करते हैं, ताकि उनकी फॉलोअर संख्या बढ़े, जिससे उन्हें आर्थिक लाभ हो। “बच्चे हमारा भविष्य हैं। हमें उन्हें अच्छे मूल्य, शिक्षा, खेल और अन्य गतिविधियों के माध्यम से विकसित करना चाहिए।”
संसद में उठी आवाज़ और सोशल मीडिया के स्टार बच्चों की चमक
सुधा मूर्ति चेताया कि सोशल मीडिया के इस व्यावसायीकरण का दीर्घकालिक प्रभाव बच्चों के मनोविज्ञान पर पड़ सकता है। ऐसे में बच्चे अपनी मासूमियत खो सकते हैं, उनका बचपन प्रभावित हो सकता है, और वे खेल-कूद, सामाजिक गतिविधियां या अच्छी शिक्षा से दूर हो सकते हैं।
डिजिटल मंच या डिजिटल पिंजरा?
मूर्ति ने उन देशों, जैसे कि फ्रांस (France) का उदाहरण दिया, जहां बच्चों के डिजिटल प्रदर्शन पर नियम पहले से ही लागू हैं, ताकि उनकी सुरक्षा और गरिमा बनी रहे। उन्होंने केंद्र सरकार से आग्रह किया कि भारत में भी सोशल मीडिया पर बच्चों की छवि, उनकी अनुमति, और माता-पिता द्वारा उनकी “प्रदर्शनी” पर नियंत्रण हो। उन्होंने यह भी बताया कि जबकि सरकार ने बच्चों से जुड़ी विज्ञापनों और फिल्म-उद्योग में काम करने/अभिनय करने में नियम बनाए हैं, लेकिन सोशल मीडिया पर अभी ऐसी कोई सख्त व्यवस्था नहीं है, और यदि जल्द व्यवस्था नहीं बनी, तो यह हमारे बच्चों और समाज के लिए “एक बड़ी समस्या” बन सकती है।
प्रस्तावित रूपरेखा क्यों ज़रूरी – मुख्य बिंदु
समस्या |
सुधा मूर्ति की चिंता / तर्क |
बच्चों का व्यावसायीकरण(
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सोशल मीडिया पर बच्चों को दर्
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अनजाने में अनुमति / सहमति काअभा
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बच्चे व्यावसायिक कंटेंट में हो
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बचपन, मासूमियत, विकासबाधित |
स्कूल, खेल, सामाजिक गतिविधियों
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दीर्घकालिक मनोवैज्ञानिक असर |
बचपन में व्यावसायिकता, प्रदर्
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सुधा मूर्ति की मांगें
1: सोशल मीडिया पर बच्चों के चित्रण के लिए स्पष्ट नियम (Guidelines / Norms) बनाने का अनुरोध।
2: यह ध्यान देने की जरूरत कि सोशल मीडिया भी एक ताकतवर माध्यम है, “चाकू की तरह” जो फल काट सकता है या नुकसान भी पहुंचा सकता है।
3: बच्चों को केवल कमाई या सोशल मीडिया लोकप्रियता के माध्यम के रूप में प्रयोग न किया जाए, बल्कि उन्हें शिक्षा, खेल और स्वस्थ बचपन देने की प्राथमिकता दी जाए।
कितनी कीमत है बचपन की?
संसद में शुक्रवार को हुए अपने संबोधन में, सुधा मूर्ति ने कहा कि सोशल मीडिया का उपयोग लाभकारी हो सकता है, लेकिन बच्चों को “कंटेंट” या “प्रदर्शन” के लिए इस्तेमाल करना उसके प्रति असंवेदनशीलता है। उन्होंने सरकार से आग्रह किया कि सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर बच्चों के चित्रण, उनकी स्वीकृति और उपयोग की नैतिकता सुनिश्चित करने के लिए नियामक ढांचा बनाए। उनके अनुसार, यही कदम हमारे बच्चों के बचपन, उनकी मासूमियत और भविष्य की रक्षा के लिए जरूरी है।
लाइक्स की दौड़ में खोता बचपन? Zara Zyanna से MyMissAnand तक चाइल्ड-स्टार्स का डिजिटल सफर
ज़ारा ज़ायना Zara Zyanna
Zara Zyanna भारत की सबसे लोकप्रिय चाइल्ड-इन्फ्लुएंसर्स में गिनी जाती हैं। उनके इंस्टाग्राम पर लाखों फॉलोअर्स हैं, फैशन, स्टाइल और लाइफ-स्टाइल कंटेंट के चलते। उन्होंने ब्रांड कॉलैबोरेशन भी की है। बच्चों के कपड़े, एक्सेसरीज़, फैशन से जुड़े ब्रांड्स के साथ काम करके वह बच्चों के फैशन जगत की पहचान बन चुकी हैं। इसके अलावा, Zara ने कुछ अभिनय / मॉडलिंग का भी काम किया है। इस तरह सोशल मीडिया + वास्तविक दुनिया दोनों में उनकी पहचान है।
अकृति शर्मा Aakriti Sharma
Aakriti Sharma एक सफल चाइल्ड-इन्फ्लुएंसर / चाइल्ड एक्ट्रेस हैं। उनकी फैन फॉलोइंग बहुत बड़ी है। सोशल मीडिया पर उनके कंटेंट में एक्टिंग के क्लिप्स, उनकी दिनचर्या, फैशन और स्टाइल दिखाया जाता है, जो युवा दर्शकों और परिवारों दोनों को पसंद आता है। उनकी लोकप्रियता इस बात का उदाहरण है कि कैसे बच्चे सिर्फ सोशल मीडिया से ही नहीं, बल्कि अभिनय-मॉडलिंग से भी पहचान बना सकते हैं।
अनन्त्या आनंद Anantya Anand (MyMissAnand)
Anantya “MyMissAnand” नाम से जानी जाती हैं। उनकी शुरुआत बहुत कम उम्र में हुई, और आज वह बच्चों के मनोरंजन, स्किट्स, लाइफस्टाइल व्लॉग्स आदि में सक्रिय हैं। उन्होंने कई ब्रांड्स के साथ पार्टनरशिप की है, और उनकी लोकप्रियता इस बात की गवाही देती है कि डिजिटल प्लेटफार्म्स पर छोटे बच्चों की पहचान और फॉलोविंग संभव है। Anantya की कहानी इस जमीनी हक़ीकत को उजागर करती है कि “कंटेंट क्रिएटर” बनना आज बच्चों के लिए भी एक व्यसायिक रास्ता बन चुका है।
शायशा सिंह Sayesha Singh
Sayesha Singh एक मल्टी-टैलेंटेड चाइल्ड-इनफ्लुएंसर हैं। मॉडलिंग, एक्टिंग, और संगीत (पियानो) में उनकी रुचि है। इस विविधता ने उन्हें खास बनाया है। उन्होंने फैशन वीक जैसे आयोजनों में हिस्सा लिया है, जिससे उनका परिचय सिर्फ सोशल मीडिया तक सीमित नहीं रहा। उनके इंस्टाग्राम को उनके माता-पिता (विशेष रूप से मां) द्वारा मैनेज किया जाता है। यह उदाहरण है कि कई परिवार किस तरह बच्चों के डिजिटल प्रोफ़ाइल को मॉनिटर करते हैं।
भारत में 83,000 से अधिक चाइल्ड इन्फ़्लुएंसर्स
भारत में 2025 तक एक अनुमान के अनुसार लगभग 83,000 से अधिक पेड / पेड-इनफ्लुएंसर बच्चों (Under 16) डिजिटल प्लेटफार्म्स पर सक्रिय हैं। इन बच्चों की फॉलो ऑफ बढ़ती जाती है और कई कम उम्र में ही ब्रांड्स, प्रमोशन, मॉडलिंग आदि से जुड़ते हैं। लेकिन यह “कमीर्शियलाइजेशन ऑफ चाइल्डहुड” का रूप भी ले सकता है। बचपन, निजी विकास, स्कूल-पढ़ाई, सामाजिकता, इन सब में असंतुलन हो सकता है।
बचपन की कीमत कितनी? बढ़ते चाइल्ड इन्फ्लुएंसर ट्रेंड पर गंभीर सवाल
डिजिटल युग में सोशल मीडिया केवल मनोरंजन का साधन नहीं रहा। यह पहचान, करियर और कमाई का प्लेटफॉर्म बन चुका है। इसी डिजिटल रेस में एक नया वर्ग तेजी से उभर रहा है- चाइल्ड इन्फ्लुएंसर! मासूम चेहरे, आकर्षक कंटेंट और भावनात्मक जुड़ाव, ये सब मिलकर लाखों व्यूज़ और करोड़ों रुपए की संभावनाएं खड़ी कर रहे हैं। लेकिन इस चमकदार स्क्रीन के पीछे कई अनदेखे सवाल छिपे हैं।
क्या बच्चों को ‘कंटेंट प्रोडक्ट’ बना देना सही है?
सोशल मीडिया पर आज छोटे बच्चे मेकअप, ट्रेंडिंग फैशन, रील डांस और ब्रांडेड प्रमोशन की दुनिया में धकेले जा रहे हैं। जहां बचपन खेल, सीखने और अनुभवों का समय होना चाहिए, वहीं अब वह कैमरे, स्क्रिप्ट और एंगेजमेंट रेट के नाम पर परफॉर्मेंस में बदल रहा है। यह स्थिति और भी जटिल तब हो जाती है जब बच्चे सहमति देने की उम्र में नहीं होते, माता-पिता उनके नाम पर कमाई करते हैं और सफलता की कीमत मानसिक और भावनात्मक दबाव बन जाती है। आज का सवाल सिर्फ यह नहीं है कि बच्चे सोशल मीडिया पर क्यों हैं; सवाल यह है कि क्या वे इसका बोझ उठाने के लिए तैयार हैं?
डिजिटल तालियों का बोझ
लाइक्स, फॉलोअर्स और ब्रांड डील्स का यह संसार अक्सर प्रशंसा और आलोचना दोनों से भरा होता है। एक ट्रेंडिंग वीडियो बच्चे को सोशल मीडिया स्टार बना सकता है, लेकिन एक आलोचनात्मक कमेंट उसकी मासूम भावनाओं को तोड़ भी सकता है। बच्चों में आत्मसम्मान तेजी से बदलता है। ऐसे में, “ऑनलाइन परफेक्ट दिखने” का दबाव उनके व्यक्तित्व निर्माण और आत्मविश्वास पर नकारात्मक असर डाल सकता है।
कानूनी और नैतिक सवाल
मनोरंजन उद्योग में बच्चों के लिए नियम हैं, लेकिन सोशल मीडिया अब भी लगभग नियमविहीन है-
उनके काम के घंटे कौन तय करेगा?
कमाई किसकी होनी चाहिए?
उनकी गोपनीयता कौन बचाएगा?
यह गंभीर है, क्योंकि इंटरनेट कुछ भूलता नहीं, एक वीडियो, एक फोटो बच्चा बड़ा होने तक हमेशा के लिए डिजिटल रिकॉर्ड में बदल सकती है।
माता-पिता बनाम बाज़ार
अधिकतर मामलों में बच्चे अपनी इच्छा से नहीं, बल्कि माता-पिता की ज़रूरत, महत्वाकांक्षा या आर्थिक गणना का हिस्सा बनते हैं। सोशल मीडिया के इस अंधे दौड़ में कहीं माता-पिता ही अपने बच्चों के पहले “मैनेजर” और “ब्रांड” न बन जाएं, यह चिंता वास्तविक है।
सख्त कदम उठाने की की जरूरत
भारत को अब कठोर ढांचा बनाने की जरूरत है, जैसे कुछ विकसित देशों ने किया है। कुछ मूलभूत नियम होने चाहिए-
बच्चों की गोपनीयता और पहचान की सुरक्षा,
कमाई का पारदर्शी कानूनी प्रबंधन,
कंटेंट में शोषण या भावनात्मक दबाव से बचाव,
माता-पिता के लिए आचार-संहिता,
बच्चों की सहमति की व्यवस्था और उसके मायने।
स्क्रीन से बड़ा बचपन
सोशल मीडिया अवसर देता है, लेकिन हर अवसर नैतिक नहीं होता। बच्चों की मुस्कान कैमरे के सामने अच्छी लगती है लेकिन उससे कहीं बेहतर खेल के मैदान, किताबों और परिवार के बीच चमकती है। हमारा समाज, सरकार और परिवार, तीनों को मिलकर यह तय करना होगा कि, “हम बच्चों को डिजिटल मंच दे रहे हैं या डिजिटल पिंजरा?” क्योंकि लाइक्स, व्यूज़ और पैसे कमाए जा सकते हैं, पर खोया हुआ बचपन कभी वापस नहीं आता!
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