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महिला दिवस पर कहाँ खो गई है हमारी देहाती महिलाये

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पालघर की स्वछतादूत बनी आदिवासी सुशीला

मुम्बई से सटा पालघर यह आदिवासी जिला है। सालो संघर्ष के बाद उसको ठाणे जिले से अलग कर दिया गया ताकियहाँ रहनेवाले आदिवासियोंके जिंदगी में कुछ बुनियादी बदलाव आ सके।

यह कहानी है सुशीला हनुमंत खुरकटे की जो जवार तहसिल के नांदगाव की रहनेवाली है।आठ मार्च को महिलादिवस के अवसर पर गुजरात के गांधीनगर में प्रधानमंत्री के हाथो उन्हें शक्ति अवार्ड से सम्मानित किया जा रहा है। एक मजदूर घर की महिला ने ऐसा क्या किया की उसे देश की अन्य महिलाओंके साथ सम्मानित किया जा रहा है? देश कोसुशीला पर नाज जरूर है, लेकिन आजादी मिलकर अरसा बीत गया है
पर हम अभी भी बुनियादी सुविधाओंके लिए हीतरस रहे है। हम का मतलब सभी है लेकिन ज्यादातर संकटोंसे महिलाओंकोही झुंझना पड़ता है।

सात महीने की गर्भवती सुशीला ने अपने हाथो से अपने परिवार के लिए घर में शौचालय बनाया है। कड़ी धूप में लेबरपेन के साथ शौचालय के लिए चार दिनों में उसने बड़ा गड्ढा खुदवाया।जब सुशीला गड्ढा बनाती तो उस वक्त पती दोवक्त की रोटी की जुगत में दिनभर मजदूरी करता रहता।यूनिसेफ के सलाहकार जयंत देशपांडे ने जब इस महिला कोदेखा तो उन्होंने उसकी तस्वीर केंद्रीय स्वछता सचिव परमेश्वर अय्यर से साझा की। अय्यर ने उस तस्वीर को ट्वीट किया। फिर क्या, लालफीताशाही में काम करनेवाले अधिकारियोंने सुशीला का काम आसान कर दिया।और परिवार के लिएबन गया अपना शौचालय। रोज के बुनियादी सुविधा के लिए बेबस सुशीला के परिवार की अब सम्मानपूर्वक जिंदगीशुरू हुई.

सुशीला की लगन और मेहनत ने उसे पालघर जिलेका स्वछतादूत बना दिया।कभी उसके कानो में स्वछ भारतअभियान के शब्द सुनाई पड़े और तबसे ही तमाम संकटोंके बावजूद उसने तस्वीर बदलनी चाही जिससे उसके परिवारको सही स्वास्थ्य का आनंद मिल सके
और वह केवल साफसफाई से ही संभव था।

देश महासत्ता की और बढ़ रहा है लेकिन आज भी गावोंकी तस्वीर और नक्शा बदलने के लिए तयार नहीं है; कुछहमारी मानसिकता इसके लिए जिम्मेदार है और कुछ सरकारी
लालफीताशाही।

बचपन में सरकारी बस में सवार होकर गाव जाता था तब जो हालात गाव के थे, वही आज भी जब कार सेगाव जाता हू तो कायम है। बदला मैं हू जो शहर में रहता हू, जो नहीं बदला वह है मेरा गाँववाला।कुछ तो बदलावजरूर हुए है लेकिन सराहनीय बिलकुल भी नहीं।जहा बचपन में दूध, घी, दही और ढेर सारी हरी सब्जिया औरफल आसानी से मिल जाते थे, आज जब जाता हु तो दूध के लिए भी हमारी महिलाओंको चार घर तलाशने पड़ते है।आखिर वह महिला अपना दर्द बताये तो बताये कहा…..

क्योकि शहर बदल रहा है लेकिन उसका गाव पिछड़ते गया है। जिसमे उसका भविष्य सुनहरा होने की जगह उजड़रहा है।

देश महिला दिन मना रहा है, कही महिला ब्यूरोक्रेट तो कही पत्रकार और महिला उद्यमियोंका सम्मान किया जा रहा हैलेकिन इस बिच में ग्रामीण भारत में बसी महिलाओंकी तस्वीर नहीं
बदल पाई है।उसका जीना सम्मानजनक नहीं है।वह घरेलु हिंसा, यौन शोषण की शिकार बनी हुई है।कुपोषण की मार से मेलघाट में सेंकडो मासूम बच्चोंकी मौतहरसाल हो रही है।अनगिनत स्वास्थ्य समस्याओंके बिच उसकी जिंदगी झूल रही है। जो चाहती तो है, की उसका बेटाऔर बेटी पढ़ लिखकर एक सही इंसान और इस समाज का एक ऐसा शानदार हिस्सा बने जिसपर सभी नाज कर सके।

सुशीला का शायद यही सपना होगा की एक बेहतर समाज में उसकी भी साझीदारी हो और इसी सपनो की खातिर सातमहीने की गर्भवती होने के बावजूद उसने शौचालय बनाने की
ठान ली होगी।

गाँधी जी सही कहते थे की किसी घरको सही दिशा में आंकना है तो पहले उस घर का शौचालय देखना चाहिए की वह कितना साफ़ सुथरा है।गाँधी के विचारधाराओको न चाहते हुए भीमोदीजी आगे लेकर जा रहे है क्योकि वह जानते है की स्वछ भारत का मूलमंत्र गाँधी के विचार पर ही खड़ा हो सकता है।जिसमे महिला सशक्तिकरण की वह अजोड़ ताकत शामिल है.

सांगली में भृणहत्या के मामले ने दहला दिया देश को

पहला अनुभव भी महाराष्ट्र से था और दूसरा भी इसी राज्य से है। क्योकि अनुभव ही समझा सकते है की आज समाज किस कगार पर खड़ा है। पहला अनुभव सुशीला का है जो बेहदप्रेरणादायी है।क्योकि जिस समाज में फीमेल सॉलिडेरिटी मार्च ,फीमेल ओनली लंच और किट्टी पार्टीज जैसे कार्यक्रम मनाये जाते है, वही महिला दिवस को सेलिब्रिटी अंदाज में मनाया जाताहै।उसी समाज में भ्रूणहत्या अब भी बदस्तूर जारी है। सांगली जिल्हे में म्हैसाला गाव में नवशिशु के शव मिलने के उन्नीस मामले सामने आये है।एक डॉक्टर जो एमबीबीएस नहीं है फिर भीसालो से गर्भपात करता आ रहां है क्योकि समाज में आज भी वह दरिंदा बाप मौजूद है जो नहीं चाहता है की उसे बच्ची हो। और वही बाप अपनी बेबस पत्नी पर भी जुल्म करते वक़्त आगे पीछेनहीं देखता है।स्वाति जमदाडे की गर्भपात के वक्त मौत ना होती तो शायद यह गोरखधंदा कभी समाज के सामने नहीं आता। क्योकि हम ही चाह रहे है की कोख में बच्ची फल फूलने से पहलेही उसका क़त्ल किया जाये। क्योकि वह परिवार और समाज पर बोझ है।वह तो स्वाति को मौत के घाट उतार देने वाले पति की ससुरालवालोंके मांग पर पुलिस ने गिरफ्तारी की वरनाआननफानन में पत्नीका अंत्यसंस्कार करनेवाले प्रवीण की काली करतूत
का भण्डाफोड़ कभी नहीं होता।

समाज का जीने का अंदाज बदला है लेकिन सोच बदलने के लिए वह बिल्कुल तैयार नहीं है। तैयार हुआ भी है तो उसकी इतनी गति धीमी है कि न तो उसका असर जानदार दिखता है और ना ही हम उसे महसूस कर पा रहे है।

पहाड़ी इलाको में भी वही हाल

पिछले साल पंद्रह दिन मनाली ,लेह और लद्दाक के दौरे पर गया था। मनाली से लेकर लेह लद्दाक तक मैंने सभी जगह केवल महिलाओंको कामकाज संभालते देखा। हर जगह छोटा मोटा उद्योग सिर्फ महिलाएं ही कर रही थी। वह रहने खाने की व्यवस्था के अलावा सर्दी में गर्म कपडे बेचने का काम करती थी।मैने मनाली की फुटपाथ पर गर्म कपडे बेच रही महिला से पूछा कीआपके पति कहा है जी? तो उसने बताया की “वह घर पर है”।और मैंने रातको जब सब सामान लपेटकर घर जा रहे उस महिला को देखा तो सही में मदत के लिए साइकिल लेकर पतिदेव आये जरूर थे लेकिन शराब की हालत में। अब बच्चो के स्कूल और बाकि मूद्दों पर भी महिला से बात हो ही गई थी। पता चला की वह काफी चिंतित थी उनके भविष्य को लेकर। यही चिंता इस देश की तमाम महिलाओंकी है जो ग्रामीण और पिछड़े इलाकों में बस्ती है।आज हमें उनको जरूर याद करना होगा महिला दिन पर।क्योकि उनको याद किये बिना, नाहम सही मायने में यह महिला दिन मना पाएंगे और नाही चुनावी जुमलो के बिच हम उनके दर्द को समझ पाएंगे। मेलघाट में कुपोषण की आड़ में मरते उन बच्चोकी आवाज जब तक शहर मेंबसे महिलाओंके कान में जोरो से नहीं गूंजती तब तक किसी आझादी का और उसके नाम पर महिला दिन का मनाया जा रहा जश्न फिजुल है साहब ।

Image Courtesy: NDTV